Saturday 16 July 2016

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

समापन भाग
हमें विश्वामित्र जी से प्रेरणा लेनी चाहिए। हम लडऩा भी जानते है और शास्त्रार्थ में पराजित करना भी जानते हैं। भारतीय संस्कृति में केवल पढऩा या शास्त्र तैयार करना ही पर्याप्त नहीं है। हम केवल ज्ञानवान नहीं हैं, हमारे पास धन भी रहना चाहिए। हमारे पास ज्ञान भी रहना चाहिए। 
शक्ति होनी चाहिए कि आज जो भारत भूमि को लांछित कर रहा है, रामराज्य को लांछित कर रहा है, हम उन्हें निश्चित रूप से सबक सिखा दें, इस तरह का सामथ्र्य भी हमारे पास होना चाहिए, इसके लिए हमें विश्वामित्र जी से प्र्रेरणा लेनी चाहिए। विश्वामित्र जी हर दृष्टि से समर्थ रहे। हमारा जीवन अपने लिए, समाज, परिवार की रक्षा, संरक्षण के लिए होना चाहिए। हमारा जीवन मानवता के लिए वरदान होना चाहिए। ज्ञान भी चाहिए और शक्ति भी चाहिए और धर्म के माध्यम से चाहिए। विश्वामित्र जी ने अपने को ऐसा बनाया था कि आज भी हमें गौरव है। इस देश में वशिष्ठ और विश्वामित्र जैसे ऋषि-संत हमारे लिए प्रेरणा स्रोत हैं, उनका ज्ञान, उनका जीवन हमारे लिए आदर्श है, उनका इतिहास हमारे साथ है। भगवान से प्रार्थना है कि ऋषियों की प्रेरणा, उनका ज्ञान, उनकी नीति, उनके द्वारा किया गया प्रयोग सभी के जीवन में आए और हम लोग अपने देश, संसार, मानवता को सभी दृष्टि से लांछित होने से बचाएं। संतत्व को लांछित होने से बचाएं। गुरुत्व लांछित हो रहा है, भारत भूमि की वंदना लांछित हो रही है। धर्मज्ञान, अध्यात्म लांछित हो रहा है, हमें सुधार की दिशा में बढऩा ही चाहिए।
कितना प्रभाव था विश्वामित्र जी का जनकपुर में, अनेक राजा-महाराजा आए थे, कोई विश्वामित्र जी के साथ आंख नहीं मिला सकता था, जनक जी ने स्वयं को धन्य माना कि आप राम जी को लेकर आए। वशिष्ठ ने भी स्वयं को धन्य माना। कहीं कोई कमी नहीं है, दूसरों को सम्मान देने में स्नेह देने में। जब दो परिपूर्ण विभूतियां एक दूसरे के साथ सही ढंग से जुड़ेंगी, तभी तो समाज को लाभ होगा, नहीं तो समाज अपनी संपत्ति को खो देगा, बिखर जाएगा।
हमें ऋषियों से गौरव लेना है, ज्ञान लेना है, दिशा लेनी है। रामजी को परिपूर्ण जीवन मिला। गृहस्थ जीवन बिना दान-त्याग के अधूरा होता है। हम कह सकते हैं कि विश्वामित्र जी ने ही जानकी जी से राम जी का विवाह करवाया। यह भी अद्भुत घटना है। जनकपुर में रामजी हैं, उस विवाह में वशिष्ठ जी भी पहुंचते हैं, वहां विश्वामित्र जी पहले से हैं, कहीं कोई संतुलन नहीं बिगड़ता है। दोनों एक दूसरे के लिए भरपूर सम्मान रखते हैं, एक दूसरे का प्रभाव बढ़ाते हुए रामराज्य को सशक्त करते हैं। यदि हम इन ऋषियों से कुछ भी सीखते हैं, तो हमारा खोया हुआ जगतगुरुत्व, खोया हुआ जो संसार का नेतृत्व है, जो खोया हुआ हमारा वैभव है, वह हमें अवश्य प्राप्त हो जाएगा।
जय श्रीराम

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

भाग - ७
सबसे पहले राम जी ने कहा - 
निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाईं। 
आप निर्भय होकर यज्ञ कीजिए। रामजी ने विश्वामित्र जी को कहा, जो राक्षस आएंगे, उन्हें मैं कालकलवित कर दूंगा। आप यज्ञ कीजिए।
धर्म का सबसे बड़ा कृत्य है यज्ञ। देवता जितना देते हैं, उसके बदले में हम भी उन्हें दें, उनका अभिनंदन करें, हमारी मानवता हमारा व्यक्तित्व देवत्व को प्राप्त करेगा। देवत्व से ईश्वरत्व को प्राप्त करेगा। जीवन की सबसे बड़ी ऊंचाई यही होती है कि हम अपने बच्चे को कैसे ऊंचाई तक ले जाएं। तो विश्वामित्र जी का और वशिष्ठ जी का, दोनों का ऋषित्व मिलकर एक बहुत बड़े संसार के उपकार का मार्ग प्रशस्त करता है। लोग कहा करते हैं कि राम जी अद्भुत हैं, ऋषि के समान हैं, ऋषि जैसे दो तत्वों को मिलाता है, एक पक्ष विश्वामित्र और दूसरा पक्ष वशिष्ठ जी हैं। एक का जन्म ही ब्रह्मर्षि के परिवार में हुआ है और एक का जन्म हुआ क्षत्रिय परिवार में, दोनों ने धीरे-धीरे संयम-नियम करते हुए जीवन को बड़ा किया और बहुत बड़ी दूरी थी दोनों के बीच, लेकिन वह भी धीरे-धीरे कम होती चली गई। परिपूर्ण, अटल रूप से दोनों के हित साथ हुए और दानों को राम जी ने जोड़ा। कौशल्या और कैकयी की दूरी को कम किया, उत्तर और दक्षिण को जोड़ा, ऐसे ही रामजी ने विश्वामित्र जी और वशिष्ठ जी को जोड़ा। दोनों ऋषियों ने मिलकर संपूर्ण जीवन में धर्म राज्य-अध्यात्म राज्य को बढ़ाया, यह पे्ररणा लेने वाली बात है।
रामजी जैसा सोचने की जरूरत है। विश्वामित्र और वशिष्ठ की तरह सोचने की जरूरत है। हमारे जीवन का जो मुख्य उद्देश्य है धर्म की स्थापना, हम संतों और आचार्यों के जीवन का, लेकिन अब तो सभी लोग धन एकत्र करने लगे कि कैसे मठ बड़ा हो जाए, कैसे गाडिय़ां बड़ी हो जाएं। कैसे हमारे जीवन का वैभव बढ़े, कैसे हमारा संग्रह प्रभाव बढ़े। कैसे रोज हमारा नाम अखबारों में आए। हम कैसे समाज के नेता हो जाएं, ये तमाम तरह इच्छाएं बलवती हो रही हैं। गृहस्थ जीवन में अर्थ और भोग ही जैसे प्रधान होता है, वैसे ही आज के संतों का मुख्य रूप से उद्देश्य केवल मान-सम्मान, धन-दौलत है।
मैं भगवान से प्रार्थना करता हूं, जैसे आपने वशिष्ठ-विश्वामित्र को एक साथ जोड़ा, दोनों को साथ लेकर संपूर्ण मानवता के लिए अपने को अर्पित किया। असंख्य जीवों का उद्धार किया। कैसी अनुपमता जीवन में प्रकट हुई, ठीक इसी तरह के परिवर्तन आज के संत समाज में होने चाहिए। ऐसा हुआ, तो बहुत लाभ होगा और पूरे विश्व को लाभ होगा। धन, विद्या, शक्ति इत्यादि सबमें वृद्धि होगी। आज जो अभाव दिख रहा है, एक दूसरे को सहन नहीं करने से उपजा अभाव है, कहीं-कहीं लगता है कि केवल हम हम ही हों, दूसरा कोई न हो, यह गलत प्रवृत्ति है। भगवान की दया से विश्वामित्र जी कहते थे कि हमारे एक हाथ में वेद है और एक हाथ में धनुष हैं।
हम दोनों ही दिशाओं में समर्थ हैं। शास्त्र भी है और शक्ति भी है। जिसके जीवन में केवल शास्त्र ही हो, उसका जीवन अधूरा है और जिसके जीवन में केवल शक्ति हो, उसका जीवन भी अधूरा है। भारतीय संस्कृति की विशेषता है। यह ध्यान देने की बात है कि हमने धन बल को बढ़ाया, तप बल को नहीं बढ़ाया, इसलिए देश पराजित हो गया। लंबे समय तक के लिए गुलाम हो गया।
क्रमश:

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

भाग - ६
वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी की आध्यात्मिकता में कहीं भी कोई खोटापन होता, कहीं मन में प्रतिस्पद्र्धा होती, तो ऐसा संभव नहीं होता। वशिष्ठ जी स्वयं लेकर जाते राम जी को या नहीं जाने देते, लेकिन वशिष्ठ जी श्रेष्ठ भावों को समझ रहे थे। आज के ऋषियों-संतों को देखना चाहिए, यदि आज ऐसी स्थिति हो, तो वे क्या करेंगे। विश्वामित्र जी लेने आए हैं, पहली बार राम जी को, ऐसे कर्म के लिए जाना है और इसी यात्रा में विवाह का भी योग बनना है। तो वशिष्ठ जी के स्थान पर कोई अन्य संत या ऋषि होता या आज का कोई धर्माचार्य होता, तो अपने शिष्य को देता क्या? दशरथ जी चाहते भी, तो मना कर देता या कहता कि मैं लेकर आऊंगा, लेकिन धन्य हैं वशिष्ठ जी, उनका ऋषित्व विशिष्ट है, उनमें कहीं से भी कोई त्रुटि नहीं है। इसलिए उन्होंने दशरथ जी को समझाया। समझाया कि राम जी क्यों आए हैं। राम तो संपूर्ण विश्व के लिए राम हैं, संपूर्ण विश्व में धर्म की संस्थापना के लिए राम जी आए हैं। रामराज्य की संस्थापना के लिए आए हैं, सब जगह प्रेम हो, अच्छे संस्कार हों, इसके लिए आए हैं। उस जगह के निर्माण के लिए आए हैं, जहां - सबहीं करें परस्पर प्रीति।
सबके लिए सबके मन में प्रेम हो, सभी लोग जीवन के चरमोत्कर्ष को प्राप्त करके जीवन जीएं। दशरथ जी ने वशिष्ठ जी के कहने पर राम-लक्ष्मण को जाने दिया। आज तक राम, लक्ष्मण के गुरु वशिष्ठ जी थे, लेकिन उन्होंने अपने शिष्यों को कहा कि ये केवल मेरे ही शिष्य नहीं हैं, अब विश्वामित्र जी के भी शिष्य हैं।
आश्वस्त होने के बाद दशरथ जी ने सहर्ष कहा -
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आना नहिं कोऊ।।
यात्रा के दौरान विश्वामित्र जी ने अनेक तरह की शिक्षाओं, साधनाओं से राम जी को परिचित कराया। ऐसे दिव्यास्त्र दिए, जो इन्हें साक्षात भगवान शंकर से मिले थे। ईश्वर के रूप में राम जी सबकुछ जानते हैं, लेकिन तब भी लोकाचार के लिए राम जी को कई शिक्षाओं से विभूषित किया।
आज के आचार्यों, धर्माचार्यों को सीखना चाहिए। आध्यात्मिक जीवन में लोगों को पे्ररणा लेनी चाहिए। सभी दृष्टियों से लौकिक और अलौकिक अवस्थाओं को जानने वाले शिष्य को कोई दूसरे को देता है क्या? मानवता के प्रति भले का भाव वशिष्ठ जी जैसा किसी के पास दिखता है क्या? आज के संतों में वैसा समर्पण है क्या? आज तो ज्यादातर लोग गर्त में जा रहे हैं। आज दो रुपया देने वाला चेला भी दूसरे मठ में जाता है, तो उसके गुरु को बुरा लगता है। बड़े-बड़े संत वेषधारी आचार्य बड़े-बड़े धर्माचार्य एकदम तड़पने लगते हैं कि कहां चला गया चेला, निकम्मा है, गधा है। बहुत विकृत्ति आई है धर्माचार्यों में।
विश्वामित्र जी को कितना अच्छा लगा होगा, वशिष्ठ जी उनका भरपूर सम्मान कर रहे हैं, अपने शिष्यों को मेरे साथ भेज रहे हैं। कैसा अनुभव हुआ होगा उन्हें, यह वैदिक सनातन धर्म का सुख जिसका कोई विकल्प नहीं है। ऐसे चरित्र कहां मिलेंगे, सभी लोगों को ऐसे ऋषियों, संतों से प्रेरणा लेनी चाहिए।
तो रामजी गए उनके साथ ऋषि-मानवता सेवा के लिए। रामजी के बोल तभी पहली बार निकलते हैं, उसके पहले उनके वचन का कोई उदाहरण नहीं मिलता, तुलसीदास जी ने पहली बार राम जी को बोलते हुए विश्वामित्र जी के साथ ही दिखाया। जब यज्ञ प्रारंभ होने वाला था, तब सबसे पहले राम जी ने जो कहा, उसे तुलसीदास जी ने लिखा, उसके पहले उनके किसी वचन को नहीं लिखा। इतनी बड़ी आयु तक वे सावधान थे कि जब राम-वचन की शुरुआत करूंगा, तो जिसके लिए ईश्वर ने अवतार लिया है, उसके लिए करूंगा।
आज खा लिया, आज वहां जाने का मन है, आज यह खेलूंगा, जैसी बालपन वाली बातों का विवरण तुलसीदास जी ने नहीं किया। ईश्वर का अवतार कोई ऐसी बातों के लिए होता है क्या, ईश्वर जिसके लिए आते हैं, उसी का महत्व है।
क्रमश:

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

भाग - ५
ऐसे धर्म भी हैं, जिनके कथित संतों को भक्तों ने ही मार दिया। दंड विधान था ही नहीं। लोग एक हत्या नहीं झेल पाते, लेकिन यहां सौ पुत्रों की हत्या हो गई, फिर भी वशिष्ठ निर्लिप्त थे, गुणों की क्या ऊंचाई है। ऐसा किसी धर्म में नहीं मिलेगा, मानवता के लिए यह अनुकरणीय है, अच्छे संस्कार होने चाहिए, जो भी अच्छा कार्य करे, उसकी प्रशंसा की प्रवृत्ति होनी चाहिए। हर कोई पवित्र जीवन को प्राप्त करे, बदले की कोई भावना नहीं रहे, तब जो समाज बनेगा, वह वरदान स्वरूप होगा।
वस्तुत: यही जीवन का अद्भुत क्रम है, जो हम विश्वामित्र जी के जीवन में देखते हैं। हम अपने जीवन का ध्यान करें, अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए बल को बढ़ाने के लिए तप को बढ़ाने के लिए, जो भी आंतरिक भावों को बढ़ाने के लिए सकारात्मक है, हम निरंतर साधना करें, तप करें, जप करें, संयम-नियम करें। ऐसा करते-करते धीरे-धीरे हमारा विकास होता जाएगा। हम अपने जीवन को भी सार्थक करेंगे और दूसरे के जीवन को भी। रामराज्य जो दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मानक राज्य है, जहां लोग सभी दृष्टि से संपन्न और आनंदित थे, जहां किसी तरह का संताप नहीं था, जहां किसी तरह का विरोध नहीं था, जहां परस्पर प्रेम था, उस रामराज्य को अनेक लोगों ने अपना बल दिया होगा, प्रयास किया होगा। अपना सर्वस्व अर्पित किया होगा, लेकिन विश्वामित्र जी भी वशिष्ठ जी के समान ही रामराज्य के संस्थापकों में गिने जा सकते हैं। यह अद्भुत घटना है, राम जी पहली बार विश्वामित्र जी के आचार्यत्व में ही घर से निकलते हैं। ईश्वर मानवता के लिए ही आता है, समाज के परिष्कार के लिए आता है, वैदिक सनातन धर्म की यही मान्यता है। धर्म का सबसे बड़ा स्वरूप यज्ञ को माना जाता है। धर्म के अनेक रूप है, दान भी धर्म है, दया भी धर्म है, सेवा भी धर्म है, तीर्थाटन भी धर्म है, माता-पिता गुरु, गऊ, दरिद्रनारायण की सेवा भी धर्म है, धर्म के अनेक विकल्प हैं, लेकिन इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान यज्ञ का है। देवताओं को सम्बोधित करके जब समर्पण होता है, तब यज्ञ संपन्न होता है।
तो भगवान के अवतारों में आदर्श अवतार है भगवान श्री राम का। धर्म के सर्वश्रेष्ठ कर्म के संपादन के लिए यज्ञ की सुरक्षा में अपने को अर्पित करने के लिए विश्वामित्र जी के आचार्यत्व में अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ राम जी वन जाते हैं। तैंतीस हजार वर्षों का काल है राम जी का, लेकिन कर्म का पहला प्रयोग, उसके लिए जो पहली यात्रा हुई, वह विश्वामित्र जी के साथ ही शुरू हुई। कौन सेवा के क्षेत्र में, धर्म के क्षेत्र में लेने आया, कौन लेकर गया, यह बहुत महत्व रखता है। विश्वामित्र जी ने ही राम जी को मांगा और दशरथ जी से मांगकर ले गए। उन्हें मालूम था कि भगवान प्रकट हुए हैं, मैं अयोध्या जाऊंगा, तब राम जी मिलेंगे।
राम जी लौकिक दृष्टि से विश्वामित्र जी के भी शिष्य हैं। व्यावहारिक दृष्टि से मानवीय दृष्टि से विश्वामित्र जी को शाष्टांग प्रणाम करते हैं, लेकिन वास्तव में विश्वामित्र जी भक्त हैं राम जी के। उन्हें मालूम है कि मैंने जो तप किया था, उसका फल हैं राम जी। फल देने वाले भी यही हैं और मुख्य लक्ष्य भी यही हैं, उनके लिए ही मैंने तप किया था। विश्वामित्र जी ले गए राम जी को यज्ञ रक्षा के लिए। पहले यह बात समझ में नहीं आ रही थी महाराजा दशरथ जी को, राम जी को भेजने को तैयार नहीं हो रहे थे। 
दशरथ जी को राम जी बहुत प्रिय थे, प्रेम अतुलनीय था, अपने प्राणों से अधिक पे्रम वे अपने पुत्र राम जी से करते थे। यह बात ध्यान देने योग्य है कि वशिष्ठ जी ने कहा कि मैं लेकर आता हूं, दशरथ जी राम जी को भेजने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं, मैं समझाऊंगा, तैयार करूंगा।
क्रमश:

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

भाग - ४
बाद में वे राजर्षी के रूप में प्रतिष्ठित हुए, लेकिन यहां भी मेनका के सौंदर्य ने उन्हें पराजित कर दिया, तपश्चर्या को नष्ट कर लिया। काम ने उनके तप को निगल लिया। तब उन्हें ग्लानि हुई, लज्जा हुई, इसके बाद उन्होंने फिर तपस्या की। उनका दुनिया भर में डंका बजा। इसके बाद के घटनाक्रम में विश्वामित्र जी ने वशिष्ठ जी के पुत्रों को मार दिया।
ध्यान देने की बात है, काम और क्रोध, दोनों ही तपश्चर्या के घोर विरोधी हैं। जब हम आध्यात्मिक जीवन में कुछ करना चाहते हैं, तो हमें अनेक तरह के दुर्गुणों से बचना चाहिए। अवरोधकों से हमें दूरी बनाकर रखना चाहिए। सबसे मुख्य है कि हमें काम और क्रोध से बचना चाहिए। विश्वामित्र जी तो दोनों से ही पराजित हो रहे हैं। मेनका के रूप में काम ने पराजित कर दिया और क्रोध के रूप में विश्वामित्र जी के पुत्रों को मारकर अपने तपस्वी जीवन को लांछित कर लिया। जो काम और क्रोध पर ही विजय नहीं प्राप्त करेगा, वह कभी जीवन के सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक ऊंचाई को प्राप्त नहीं कर सकता, कभी ऋषित्व को प्राप्त नहीं कर सकता, ईश्वरीय जीवन को प्राप्त नहीं कर सकता, वह अपने जीवन की परमावस्था को नहीं प्राप्त सकता। ऐसी स्थिति में सौ बच्चों की हानि के बावजूद वशिष्ठ जी का चित्त अत्यंत व्यवस्थित था, कहीं से कोई चिंता नहीं, कहीं से कोई लांछना नहीं, कहीं से कोई भेद नहीं, पूर्ण रूप से वे शांत हैं। कहीं भी कितनी भी बड़ी हानि हो जाए, लेकिन मन में विकृति नहीं आनी चाहिए, तभी आदमी आध्यात्मिक जीवन में ऊंचाई प्राप्त करता है।
जब वशिष्ठ जी शांत रहे, तो यह बात विश्वामित्र जी को बहुत खली। उन्हें लगा कि राजर्षित्व से ब्रह्मर्षित्व को प्राप्त करना चाहिए। ऐसे कर्मों से तो कोई राजर्षि नहीं बनता था, तो ब्रह्मर्षि क्या बनेगा? गलत आचरण वाला, काम, क्रोध का शिकार व्यक्ति संत कैसे होगा? जो ऋषि के ही पुत्रों को मार दे, वह संत कैसे बनेगा, उन्हें ग्लानि हुई, उन्होंने नए सिरे से अपने जीवन को संवारा। अद्भुत तप किया। जो लोग ऊंचाई पर जाने का प्रयास करते हैं, उन्हें प्रलोभन मिलते हैं, लेकिन भटकना नहीं चाहिए। दृष्टि अपने लक्ष्य पर रहनी चाहिए। जो आकाश पर जा रहा है, वही जमीन पर गिरता है। तप के क्रम में उन्होंने काम और क्रोध पर विजय प्राप्त की, इस क्रम में अनेक तरह के विघ्नों को उन्होंने पार किया। वे ऋषित्व की विशिष्टतम स्थिति में पहुंचे। उनका संपूर्ण संसार जय-जयकार करने लगा। उन्होंने सभी देवताओं, ऋषियों को प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी आए और कहा कि मैं बहुत प्रसन्न हूं। तुम वरदान मांगो।
तब ब्रह्मा जी को उन्होंने कहा कि आप मुझे वरदान दीजिए ब्रह्मर्षि बनने का। उन्होंने कहा, वशिष्ठ जी यदि ये उपाधि दें, सम्मान से दें, तब मुझे संतोष होगा। ब्रह्मा जी की प्रेरणा से वशिष्ठ जी आए, वशिष्ठ जी विश्वामित्र जी भी के तप के बारे में जानते थे, इसलिए विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि मनाने में देर नहीं की।
ब्रह्मर्षि के रूप में उन्होंने विश्वामित्र को सम्मान दिया। प्रसन्नता व्यक्त की। इस घटना के बाद विश्वामित्र जी सर्वश्रेष्ठ ऊंचाई पर पहुंचे। लेकिन सबसे बड़ी ऊंचाई तो सनातन धर्म की हुई, यहां केवल प्रभाव से उपाधियां नहीं मिलतीं, आध्यात्मिक जगत में कोई संस्था उपाधि नहीं बांटती, लोग उपाधि नहीं बांटते। जब तक व्यक्ति सही मायने में ऊंचाई पर नहीं पहुंचते, तब तक उन्हें स्वीकार नहीं किया जाता। विश्वामित्र जी ने वशिष्ठ जी का कितना विरोध किया था, कितना लांछित किया था, इसके बावजूद वशिष्ठ जी में लालसा नहीं थी। दुनिया के इतिहास में शायद ही कोई ऐसी घटना है।
इस घटना से प्रेरणा लेनी चाहिए कि अपना दुश्मन भी अगर सुधार करता है, आंतरिक-आध्यात्मिक श्रेष्ठ गुणों, मानवता को वरदान स्वरूप जो ऊंचाई को प्राप्त करता है, तो उसे हमें सहर्ष गले लगाना है और अपनी हानि के बावजूद उसे सम्मान देना है। किसी तरह का विद्वेष नहीं रखना है, लेकिन आज की दुनिया में यह काम बंद हो गया है, आज जो संत समाज है, आज जो साधकों का समाज है, उसमें यह काम कम हुआ है, लेकिन वास्तव में सनातन धर्म में ऐसा नहीं होना चाहिए।
क्रमश:

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

भाग - ३
यह कितना महान देश है, अतिथिदेव भव का देश है। वशिष्ठ जी ने अपने तप और शक्ति के दम पर उनके यहां विराजमान कामधेनु पुत्री नंदिनी की कृपा से विश्वामित्र जी और उनकी सेना का पूरा सम्मान किया। कल्पना नहीं कर सकते थे विश्वामित्र जी, अतिथि सत्कार की कोई ऐसी विधा या कर्म नहीं था, जो वशिष्ठ जी ने नहीं किया। परंपराओं का भरपूर पालन हुआ, अतिथि गदगद हो गए। बहुत बड़ी घटना हो गई। सैनिकों को आश्चर्य हो गया। सभी को लगा कि यह सम्मान तो कहीं प्राप्त ही नहीं हुआ था, पता नहीं कहां से आज ईश्वर तुल्य महर्षि अपनी संपूर्ण सदश्चर्या की शक्ति को लेकर अपनी गऊ नंदिनी की पूरी महिमा को लगाकर सम्मान कर रहा है, बहुत गदगद हुए विश्वामित्र जी।
यहीं से वशिष्ठ और विश्वामित्र के संबंध की शुरुआत हुई। विश्वामित्र जी का मन ललचा गया नन्दिनी की महिमा देखकर। उन्होंने कहा, यह गऊ आप हमें दे दीजिए।
विश्वामित्र जी के पास दान लेने की योग्यता नहीं है, लेकिन वे मांगने लगे। वे अपने धर्म से हटने लगे। लालच वश भी यदि वे ऐसा कर रहे हैं, तो भी वे अपने स्थान से गिर रहे हैं। उन्होंने यह नहीं सोचा कि मुझे वशिष्ठ जी को देना चाहिए, लेकिन मैं मांग रहा हूं।
वशिष्ठ जी ने कहा कि मैं इसके द्वारा अपने यज्ञ सफल बनाता हूं, मेरी संपूर्ण व्यवस्था का यह मूल स्रोत है, सबका सत्कार मैं इससे करता हूं, संसाधन अर्जन से लेकर हर सुविधा मैं इसी से लेता हूं, इसलिए मैं गऊ नहीं दे सकता, क्योंकि इसका कोई विकल्प नहीं है मेरे पास। विकल्प होता, तो मैं दे देता।
यह ध्यान देने की बात है कि विश्वामित्र जी ने जो याचना की थी, वह क्षत्रिय धर्म के खिलाफ थी। वे ऋषि पर आक्रमण नहीं कर सकते थे, राजा पालक होता है, वह मांगने वाला नहीं होता, देने वाला होता है। राजा को ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए कि वह ऋषियों को देने की बजाय मांगने लग जाए।
ऋषि से आध्यात्मिक शक्ति का लाभ उठाना चाहिए, उससे कुछ मांगना, लेना नहीं चाहिए। विश्वामित्र जी ने गलत काम किया। उनका जो प्रजापालक स्वरूप था, वह सब यहां लुप्त हो गया और नंदिनी को बलात ले जाने का उन्होंने प्रयास किया, तो लांछित हो गए, इतिहास उन्हें इसके लिए कभी माफ नहीं करेगा। महाराजा ने अपनी संपूर्ण शक्तियों को नंदिनी के लालच में लांछित कर लिया। गर्त में पहुंचा दिया, अशोभनीय कार्य किया। वशिष्ठ जी के मना करने पर भी वे बलात नंदिनी को ले जाने लगे, लेकिन वशिष्ठ जी शांत बैठे थे, कोई हलचल नहीं, बाहर भी नहीं, मन में भी नहीं, धैर्य की जो अवस्था होती है, संत की जो अवस्था होती है, लाभ और हानि में भी वह समान स्वरूप में रहता है।
नंदिनी ने जाते हुए उनकी ओर देखा, कहा कि आप चाहते हैं, तो मैं अपनी सुरक्षा के लिए कुछ करूं।
वशिष्ठ जी ने भरे हृदय से कहा, करो।
तो नंदिनी ने भयानक क्रोध किया, अपने नथुनों से असंख्य सैनिकों को पैदा कर दिया, जो सैनिक कामधेनु पुत्री नंदिनी की दिव्य शक्ति से पैदा हुए थे, उन्होंने विश्वामित्र जी की सेना को पराजित कर दिया। अद्भुत और अनुपम प्रताप दिखा। इस बड़ी हार से विश्वामित्र बहुत लज्जित हुए। क्षत्रिय बल का घमंड टूटा, वे सोचते थे, क्षत्रिय बल से कोई भी बड़ा नहीं है, लेकिन उन्हें लगा कि क्षत्रिय बल से ब्रह्म बल बड़ा है, ज्यादा प्रभावी है। तभी उन्होंने यह संकल्प लिया कि मैं भी तप करूंगा। मैं भी ऋषि शक्ति को प्राप्त करूंगा। वे तप में जुट गए, आगे बढ़ते गए।
क्रमश:

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

भाग - २
विश्वामित्र का कद बढ़ा, तो संयम, नियम से बढ़ा, उन्होंने अपने जीवन को पकाया, स्वयं उच्च अवस्था को प्राप्त किया, तो उन्हें ब्रह्मर्षि की उपाधि प्राप्त हुई। ये उपाधि वैसी नहीं थी, जिसे पैसा देकर प्राप्त किया जाए। आजकल दुनिया में जो उपाधियां बंट रही हैं, वैसे पहले उपाधि नहीं बंटती थी। अब किसी के प्रभाव में आकर भी ये उपाधियां दे दी जाती हैं। कसौटियों पर खरा उतरकर ही विश्वामित्र जी को ब्रह्मर्षित्व की प्राप्ति हुई। संसार के धर्मों के लिए यह एक मानक है और परम सनातन है, जो भी कसौटी पर खरा उतरता है, चाहे वह किसी जाति का हो, किसी आयु का, किसी अवस्था का, किसी भाषा का हो, स्वभाव का हो, उसे ऊंचाई मिलनी चाहिए। समाज, संप्रदाय को, परंपरा को उनका अनुसरण करना चाहिए, विश्वामित्र जी को संसार में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त हुआ।
ब्राह्मण को सर्वोच्च माना जाता है और उसने ऐसे काम भी किए हैं, मानवता का उद्धार करना, जितना संयम, उद्यम, अपने को पका-पका कर परम तत्व को प्राप्त करना, मंगल भाव को प्राप्त करना, उसका उपयोग समाज के लिए करना। तो ब्राह्मण ने जितना किया है, उतना किसी ने नहीं किया, इसलिए ब्रह्मर्षित्व की उपाधि कोई केवल ब्राह्मणों की उपाधि नहीं है, यह मानवता की श्रेष्ठ उपाधि है, इससे बड़ी उपाधि हो ही नहीं सकती। जो ईश्वर को जान ले, जो ईश्वर की व्यवस्था को समझ ले, जीवन में उतार ले, जो संपूर्ण संसार के लिए हो गया, जिसमें कोई विद्वेष नहीं है, कोई भी विकृति नहीं है, कदाचार नहीं है, भ्रष्टाचार नहीं है, जिसमें छोडऩे योग्य कुछ नहीं है, उस अवस्था को प्राप्त करना। संसार की सबसे बड़ी उपाधि विश्वामित्र जी ने प्राप्त की। यह उन्होंने तप और त्याग के आधार पर प्राप्त किया, यह बल या धन से प्राप्त स्थान नहीं है। किसी को प्रभावित करके प्राप्त स्थान नहीं है।
राजा विश्वामित्र अपनी सेना के साथ जंगल में विहार कर रहे थे, पर्याप्त मात्रा में सैनिक उनके साथ थे। जितने साधन आवश्यक होते हैं, वो सब थे, बड़ा ही प्रताप था। ऐसी अवस्था में भी वशिष्ठ जी ने उन्हें आकर्षित किया। वे वशिष्ठ जी के आश्रम पहुंच गए। अतिथि तो देव समान होता है। वशिष्ठ जी ने उनका पूरा सत्कार किया। विश्वामित्र जी को कहा कि आप हमें सत्कार का अवसर दें, यहां आप जो कहेंगे, हो जाएगा।
विश्वामित्र जी को लगा कि ये ऋषि हैं, मेरे पास इतनी बड़ी सेना है, सबका सम्मान, सत्कार ये ऋषि कैसे करेंगे। इनका आश्रम छोटा-सा है, इसमें कुछ ही लोग हैं, संसाधन भी अल्प हैं, ऐसी अवस्था में इतनी बड़ी सेना का पालन ये कैसे कर सकते हैं। बहुत महंगा पड़ेगा। उन्होंने मना किया, लेकिन वशिष्ठ जी ने कहा कि सब हो जाएगा, आप आतिथ्य देने के लिए तैयार हो जाइए। बहुत आग्रह करने के बाद राजा विश्वामित्र ने स्वीकार किया कि ठीक है, हम मना नहीं कर सकते।
संसार का, संपूर्ण सृष्टि का, संपूर्ण मानवता का, सबसे तेजस्वी ऊर्जावान, अपनी अंतरात्मा व व्यक्तित्व को निखारने वाला, जिसका जीवन ईश्वर तुल्य जीवन है, जिसके जीवन में रोम-रोम से संयम-नियम-तप झलक रहे हैं, ऐसा ऋषि एक राजा के सम्मान के लिए कह रहा है और बहुत कायदे से कह रहा है, अपनी अंतरात्मा से कह रहा है। बहुत बड़ी बात है। यह क्रम अनुकरणीय क्रम है, वैदिक सनातन धर्म का एक आदर्श क्रम है।
क्रमश:

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र


नित नई राह निकाल बढ़े

महाराज गाधि जी के पुत्र थे विश्वामित्र जी। राज परिवार के थे, क्षत्रिय वंश में समाज के विस्तार का, शक्तियों को बढ़ाने का शौक होता है, बहुत तरह की अच्छाइयां और बुराइयां होती हैं। वे प्रजापालक भी थे, लोगों के संरक्षण की चिंता करना, अच्छे राजाओं में इनकी गणना होती थी, ये पुरुषार्थी राजा थे, यह नहीं कि दूसरे के द्वारा अर्जित धन संपदा से ही संतुष्ट हो गए, दूसरों से अर्जित करके ही जीवन जीने का उनमें विश्वास नहीं था। एक पुरुषार्थी अपने जीवन में जिन ऊंचाइयों को प्राप्त कर सकता है, वैसा उन्होंने किया। केवल मनोरथ करने से किसी की सिद्धि नहीं होती, जंगल का सिंह भी अगर बैठा रहे या सोया रहे, तो उसके पास कोई भी नहीं आएगा। राजा को ही प्रयास करना पड़ता है। जब कोई पुरुषार्थी होगा, तभी तो उसके मनोरथ पूरे होंगे। वे जीवन भर पुरुषार्थ करते रहे। कभी विराम नहीं लिया। भगवान की दया से ईश्वर के आशीर्वाद से इन्हें सभी क्षेत्रों में सफलता मिली। उनके जीवन से सबसे बड़ी प्रेरणा ही यही है कि व्यक्ति को पुरुषार्थी होना चाहिए। अच्छी चीजों के लिए प्रयास करना चाहिए। जो जीवन को समृद्ध करने वाला है, जो समाज को समृद्ध करने वाला है, मानवता को समृद्ध करने वाला है, इस तरह के पुरुषार्थ को कभी बंद नहीं करना चाहिए। निष्क्रिय जीवन ठीक नहीं है। पूर्णता के बाद भी पुरुषार्थ नहीं छोडऩा चाहिए। पुरुषार्थ को कभी विराम नहीं देना चाहिए। उसे कुंठित नहीं करना चाहिए। जीवन में जो भी शक्ति मिली है, उसके साथ हमें लगे रहना चाहिए, परिवार, समाज के लिए, अपने लिए। जीवन के सभी क्षेत्रों में विश्वामित्र जी ने काम किया, विद्या, तप के क्षेत्र में, राजा के क्षेत्र में भी, बल के क्षेत्र में भी, अनेक तरह की सिद्धियों को प्राप्त किया। सबसे बड़ी उपलब्धि तो यह है कि ब्रह्मणत्व को प्राप्त कर लिया, राजर्षि से ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त कर लिया और संतों की सर्वश्रेष्ठ ऊंचाई को प्राप्त किया। 
विश्वामित्र जी का जीवन अद्भुत जीवन है, उनके जीवन से सनातन वैदिक धर्म की उदारता का भी परिचय मिलता है।
ईसाइयों का सबसे प्रमुख देश अमरीका है, जो दुनिया का नेतृत्व कर रहा है, अमरीका दुनिया के संरक्षक के रूप में स्वयं को देखता है और उसकी मान्यता भी है, तो अमरीका का जो प्रजातांत्रिक जीवन है, उस जीवन में भी उद्धार आसान नहीं है।
वरिष्ठ जॉर्ज बुश के कार्यकाल में एक अश्वेत व्यक्ति को संतत्व की उपाधि मिली। ईसाई धर्म को इससे पहले २ हजार साल हो गए थे, किसी भी अश्वेत आदमी को संतत्व हासिल नहीं हुआ था। किसी अश्वेत व्यक्ति को आगे नहीं बढ़ाया गया था, लेकिन अपने वैदिक सनातन धर्म में उदारता महत्वपूर्ण है, अनुकरणीय है, यहां क्षत्रिय ब्रह्मर्षि हो गया। जब उन्होंने प्रयास किया राजर्षि से ब्रह्मर्षि होने का, तो विधिवत सम्मान हुआ, ब्रह्मा ने भी उन्हें मान्यता प्रदान की और महर्षि वशिष्ठ ने भी कहा कि ये ब्रह्मर्षि हैं, उन्हें गले लगाया, उनका अभिनंदन किया। इससे सनातन धर्म की उदारता ही प्रकट होती है। रंग के आधार पर यदि धर्म का या गरिमा का या ऊंचाई का निर्धारण हो, तो वह कौन-सा मानव धर्म हुआ, वह ऐसे में विश्व धर्म या मानव धर्म नहीं हो सकता। जो जिसके लायक है, जिस गरिमा को प्राप्त करने के लिए प्रयास कर रहा है, सही ऊंचाई पर पहुंचता है, तो उसे यथोचित पद मिलना चाहिए। किन्तु दूसरे संप्रदायों में इस गुण का बहुत अभाव रहा है। सिख पंथ में तो गुरु परंपरा को ही विराम दे दिया गया, गुरुग्रंथ साहब को ही गुरु के रूप में मान लिया गया। क्या यह सोचने वाली बात नहीं हो गई कि केवल ग्रंथ गुरु कैसे होगा? ग्रंथ को पढऩे वाला, जानने वाला, अपने जीवन में उतारने वाला, उसे दूसरों को समझाने की क्षमता वाला गुरु होता है। हमारे यहां वेदों की अनुपम महिमा है, लेकिन इनको जो समझे, अपने जीवन में उतारे, वही गुरु होगा। चौबीसवें तीर्थंकर के बाद जैनों ने तीर्थंकरों की परंपरा को बंद कर दिया। बौद्ध भी किनारे होने लगे हैं, दलाई लामा निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं। कोई पूछने वाला नहीं है।
क्रमश: