Wednesday, 31 August 2011

आचार्य श्री की कलम से

सम्पूर्ण सृष्टि के जनक, पालक एवं संहारक परमेश्वर अपनी उत्पादित सृष्टि के द्वारा निरन्तर परम्परा सम्बंध से अपने उत्पादकादि स्वभाव का निर्वाह करते रहते हैं। इस क्रम में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका उनके श्वास प्रश्वासभूत वेदों, उपबृंहणभूत इतिहास-पुराणों तथा सर्वसुलभ एवं सर्वग्राह्यभूत संतवचनों की है। संत अपनी अनुभूतियों एवं जीवन प्रयोगों के द्वारा भगवान की भूमिका जनक, पालक एवं संहारक के रूप में स्थापना कर सृष्टि के वस्तुत: उद्देश्य की सम्पूर्ति करते हैं। इस संसार में विचारों का निरंतर प्रवाह प्रवाहित हो रहा है तथा सर्वदा होता भी रहेगा। ये सब मूलभूत विचारों (वेदों) का उपबृंहण ही तो है अर्थात सर्वग्राह्य एवं सर्वकल्याणमय प्रस्तुति का प्रयास ही तो है। परन्तु महान कष्ट यह है कि आज की सम्पूर्ण विचार प्रणाली सृष्टि को लंका की ओर ले जा रही है। जहां बल-सौन्दर्य-प्रभाव-ज्ञान-परिवार एवं भोगादि सबकुछ अपरिमित स्वरूप में हैं। परन्तु अपने तथा सृष्टि के लिए कलंकभूत तथा महान घातक हैं, क्योंकि सभी संसाधनों का प्रयोग काम (भोग) के लिए है, राम के लिए नहीं।
इसी क्रम में जगदगुरु श्रीरामानन्दाचार्य का विचार प्रवाह एवं उसका प्रयोग अनुपम है। जिस तरह सभी भगवद्रूपों में भगवान श्रीराम अतुलनीय हैं, उसी तरह संतों व आचार्यों में आचार्यप्रवर श्रीरामानन्दाचार्य भी अनुपम हैं। तभी तो संत चरित्र के सर्वश्रेष्ठ गायक नाभादास जी ने कहा, 'रामानंद रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जगतरण कियो। आचार्यप्रवर की जन्मभूमि तीर्थराज प्रयाग, इष्टदेव लोकनायक भगवान श्रीराम, विचारावाहिका देवभाषा संस्कृत की सर्वाधिक समीपवर्ती तथा राष्ट्रभाषा के रूप में व्यापक हिन्दी, परमभागवत अनन्तानन्द-कबीर-रविदास-पीपा-धन्ना-सैन आदि महाभागवतों का अनुपम आध्यात्मिक लोकसंघ इत्यादि सभी अनुपम ही तो है। वीर-भक्त त्यागी तथा पूर्ण समर्पित नागा संतों की धर्म सेना का निर्माण। सैनिकत्व तथा संतत्व का अद्भुत संगम। ऐसी आध्यात्मिक सेना के बिना सुरक्षा व संवर्धन भी लंकीय वातावरण को उत्पन्न करते हैं। अर्थ एवं काम के संरक्षण तथा सम्पादन के लिए प्रयुक्त तथाकथित विकसित देशों की सेनाएं कभी भी राष्ट्र एवं मानवता के लिए वरदान सिद्ध नहीं हो सकतीं।
नारियों को लोकधर्म तथा आध्यात्मिक जीवन में बराबरी का अद्वितीय प्रयोग। दुनिया के किसी भी समाज में आज तक यह प्रयोग नहीं हुआ। अपनी अद्भुत कल्याणमयी शक्ति के द्वारा वेद-वाल्मीकि रामायण के समान ही अनुपम रामचरितमानस को प्रकट कराना। रामचरितमानस के समान किसी भी धर्म-सम्प्रदाय-पन्थ परम्परा-जाति-भाषा-राष्ट्र आदि के पास लोकभिराम-कालजयी ग्रन्थ नहीं है। जगदगुरु रामानन्दाचार्य द्वारा रामभक्ति परम्परा के सर्वश्रेष्ठ तीर्थ अयोध्या को छोडक़र समीपवर्ती शैवप्रधान नगरी काशी में श्रीमठ को बनाए रखना सनातन धर्म के विघटन को दूर करने हेतु परमप्रमाण था। काशी में रामानन्द सम्प्रदाय की आचार्यपीठ को छोड़ वैदिक सनातन धर्म की अन्य किसी भी प्रामाणिक परम्परा का मुख्यालय नहीं है।