Monday, 29 April 2019

प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा

भाग - २
प्रह्लाद जी की जो शिक्षा है, वह हिरण्यकश्यप की विचारधारा से मेल नहीं खा रही है। हिरण्यकश्यप की विचारधारा में कोई ईश्वर नहीं, कोई शास्त्र नहीं, कोई वेद नहीं, कोई पुराण नहीं। प्रह्लाद जी को शिक्षा मिलनी थी, मिली। ईश्वर के बनाए संसार में मिली। हिरण्यकश्यप क्या बनाएंगे आकाश को, सूर्य को, चंद्रमा को। उन्हें भी मालूम है कि मैं नहीं बना सकता, किन्तु उनका ध्यान इस पर नहीं जा रहा है कि इसका निर्माता कोई और हो सकता है, मुझसे बड़ा, मुझसे ज्यादा पराक्रम संपन्न, ज्यादा ज्ञानी कोई हो सकता है। पिछले पापों के कारण, सही शिक्षा नहीं मिलने के कारण हिरण्यकश्यप के साथ ऐसा हुआ। शास्त्रों पर विश्वास करने वाले श्रेष्ठजनों का आशीष उस पर नहीं था। उसका जीवन सही सांचे में नहीं ढला था। उसमें पिछले जन्म के असंख्य पापों का बाहुल्य भी था। ज्ञान की प्राप्ति तभी सही होती है, जब हमारे पिछले पाप नष्ट हो जाएं, मन साफ हो जाए, तभी ज्ञान, तभी प्रेम, तभी श्रेष्ठ भाव प्रगट होते हैं। जैसे खेत परिपूर्ण रूप से साफ हो जाए, बीज को अंकुरित होने से रोकने वाले तत्व जब खेत से निकाल दिए जाएं, तभी उसमें फसल उगती है। यदि खेत में पत्थर हैं, शुष्कता है, घास है, तमाम अवरोधक हैं, तो फसल नहीं होती, बीज अंकुरित, पुष्पित, पल्लवित और फलित नहीं होता। वो अपने पापों के कारण उस ज्ञान को नहीं प्राप्त कर पा रहा है, जिस ज्ञान से जीवन को सही प्रकाश, सही प्रेरणा, सही कार्यकारिता मिल पाए। अर्जुन ने भगवान से पूछा था कि महाराज, ज्ञान कब प्राप्त होगा, तो भगवान ने कहा, 
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। 
यानी कई जन्मों के बाद ज्ञान की प्राप्ति होती है। अर्जुन ने पूछ लिया कि भगवान इतने जन्म क्यों? भगवान ने कहा कि जब तक सब पाप नष्ट नहीं होंगे, तो मन मलीन रहेगा और उसमें वैसे ही ज्ञान नहीं उत्पन्न होता है, जैसे अस्त-व्यस्त, अंकुर विरोधी अवरोधकों से भरे खेत में बीजारोपण व्यर्थ हो जाता है। 
माता-पिता बच्चे को समझाते-बोलते रहते हैं कि बेटा ये नहीं करो, वो करो, किन्तु नहीं समझ में आती बात। अध्यापक बोलते हैं सभी बच्चों को, मगर नहीं समझ में आती बात। कुछ को आती है, तो जज, कलक्टर, इंजीनियर, विद्वान हो जाते हैं, बाकी नहीं हो पाते। तो इसका मूल कारण मन की अयोग्यता, मन की अयोग्यता मतलब पापों का बाहुल्य है, मन उसके लायक नहीं है। तो प्रह्लाद जी के पिताश्री का वैसा ही मन है। ऐसे न जाने कितने लोग दुनिया में हैं, जो ईश्वर पर विश्वास नहीं करतेे, जो सही जीवन नहीं जी रहे हैं, वो सब हिरण्यकश्यप हैं, शिशुपाल हैं, रावण हैं। 
प्रह्लाद जी का बड़ा ही उत्कृष्ट पुण्य है, तो उनका मन निर्मल है और उसमें जो गुरु लोग शास्त्र मर्यादित प्रेरणाएं दे रहे हैं, उपदेश दे रहे हैं, उसको वो समझ रहे हैं और उन्होंने समझ लिया कि जीवन का सही व्यवहार क्या है। कैसे जीवन में प्रयास करना चाहिए। जीवन में कैसी इच्छा होनी चाहिए और क्या ज्ञान होना चाहिए। 
पूछते थे हिरण्यकश्यप कि तुम क्या पढ़ते हो, कौन-सा उत्तम ज्ञान, तो उन्होंने कहा कि हमारा संपूर्ण जीवन जब ईश्वर में लगे, जब हमारी बाह्य अंग-प्रत्यंग इन्द्रियां और भीतरी इन्द्रियां, भीतरी अंग-प्रत्यंग संपूर्ण रीति से जब भगवान की सेवा में लगें, उनको जानने में, उनकी इच्छा करने में, उनके लिए कत्र्तव्य करने में, तो ही समझना चाहिए कि यही उत्तम अध्ययन, उत्तम ज्ञान है।
हम केवल खाने में, केवल सांसारिक विषयों के भोग में और सांसारिक सुख में ध्यान लगा रहे हैं, तो हमें समझना चाहिए कि हमने ज्ञान तो प्राप्त किया, किन्तु उत्तम ज्ञान प्राप्त नहीं किया। वो प्रथम श्रेणी की विद्या नहीं हुई। पिछले असंख्य जन्मों के पुण्य-प्रताप से इस तरह की पृष्ठभूमि प्रह्लाद जी को मिली। भगवान की दया से जैसे हमारे आचार्य लोग कहते हैं - जैसे पहली बार ही अध्यापक ने बतलाया और उस विद्यार्थी को समझ में आ गया, तो समझना चाहिए कि वो प्रथम श्रेणी का विद्यार्थी है। जिसको कुछ ज्यादा प्रयास से समझ में आया, तो वह मध्यम श्रेणी का विद्यार्थी हुआ और जिसको वर्षों लग गए, असंख्य बार अध्यापक, गुरुजन और बड़े लोग कह रहे हैं, तब समझ में आया, तो यह तृतीय श्रेणी का विद्यार्थी हुआ। 
क्रमश:

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