गुरुदेव महाराज जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी के प्रवचन से ---
कैसे-कैसे लोग आज संत की गद्दी पर
बैठ गए हैं। एक ऐसे ही संत ने खास पंखा लगवाया, मैंने दूर से देखा, पूछा, 'कितने का पंखा लगवाया है?
उन्होंने उत्तर दिया, 'यह ज्यादा का नहीं है, बस 25 हजार का है। आप
भी लगवा लीजिए। हमने देखा ही नहीं कि कैसा पंखा है, क्या पंखा है। उनका नाम नहीं बतलाऊंगा।
हम जहां पढ़े थे, वहां एक व्यक्ति थे, बाद में उन्होंने विवाह कर लिया और अब फुलपैंट पहनकर वेदांत
पढ़ाते हैं। जब उन्होंने मुझे पहली बार श्रीमठ में रामानंदाचार्य की वेशभूषा में
देखा, तो रोने लगे, उन्होंने कहा, 'आप तो छात्रावस्था में इससे अच्छे थे।
श्रीमठ में जब मैं
रामानंदाचार्य जी की गद्दी पर आया, तब विरासत में
मिली जिस चौकी पर मुझे बैठाया गया, उसकी तीन पटरियां
ऊंची-नीची थीं। जिस पर चढ़कर मजदूर लोग दीवारों पर प्लास्टर इत्यादि करते हैं,
वैसे लकड़ी के फंटे ही जोड़कर मेरी चौकी बना दी
गई थी, उसमें तिलचट्टे भी बहुत
थे। उन्होंने मुझसे कहा, 'इससे बेहतर
स्थिति में तो आप पहले थे। वह मेरे विद्यार्थी भी रहे थे, एक साथ हम लोग पढ़े भी थे। उन्होंने कहा, 'इसी को रामानंदाचार्य कहते हैं क्या? क्या यह चौकी नहीं बदल सकती है? मैंने विनम्रता से कहा, 'जिस दिन मैं श्रीमठ गया, मैं पहले दिन ही चौकी बदलवा सकता था, इतना मेरे पास था, जेब में नहीं था, लेकिन प्रभाव था,
लेकिन मैंने कभी नहीं कहा कि चौकी बदली जाए।
बदलने को जरूरी काफी कुछ था, लेकिन बदलने के
लिए यदि मुझे चौकी ही सबसे पहले दिखेगी, तो राम राज्य कैसे आएगा?
आजकल तो बड़े लोग हर साल
अपना सोफा, कुर्सी-टेबल, सजावट बदल देते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए,
सादगी का जीवन होना चाहिए। रामराज्य का जीवन
होना चाहिए। जरा सोचिए कि राम जी ने जंगल में कैसे बिताया होगा समय। ईश्वर की बात छोडि़ए, अयोध्या के महल में तो सब कुछ था, किन्तु जंगल में रहकर एक दिन उफ् तक नहीं किया।
वृंदावन में एक महात्मा
से मैं मिला था। उन्हें देखकर बहुत अच्छा लगा, तो मैंने उनसे पूछा, 'आप इतने अच्छे साधु हो गए, इसका रहस्य क्या है?
उन्होंने कहा, 'मैं तो आपको अपना रोना कहने आया हूं, आप मेरा ही इंटरव्यू मत लीजिए। हां, मुझे एक बात का सदा ध्यान रहा कि मैं साधु बनने
आया हूं, और इसी का आज यह फल है।
मैं भी बनारस साधु बनने
नहीं आया था, मैं तो विद्वान बनने आया
था, अविवाहित रहने आया था।
मुझे साधु तो नहीं बनना था, लेकिन जब
रामानंदाचार्य हो गया, तो फिर कोशिश की
कि थोड़े-बहुत साधु हम भी हो जाएं, साधुओं जैसे
दिखने लगें। इस कोशिश से मुझे भी लाभ हुआ।
ध्यान दीजिएगा, केवल यह याद रहे कि मैं साधु हूं, तो आदमी साधु हो जाएगा। दिखावा क्या करना,
गद्दी का क्या करना? जब शरीर का मांस ही सूख जाएगा, तो बुढ़ापे में तो ये गद्दा ही गडऩे लगेगा। चेहरा सिकुड़
जाएगा, दांत टूट जाएंगे, तो ये गद्दा-पंखा काम करेगा क्या? कदापि नहीं करेगा।
उन मूल्यों को हम धर्म
कहते हैं, जो शाश्वत जीवन देते हैं,
जो बहुत सुख देते हैं।