Wednesday, 4 April 2012

धर्म क्या है?

भाग - ग्यारह
हमारे यहां कहा जाता है कि प्रेम का उत्पादन भी धन से ही होता है। श्रेष्ठ कर्म भी धन से होते हैं। गीता में भगवान ने कहा, चार तरह से लोग मेरा भजन करते हैं। कुछ लोग कठिनाई दूर करने के लिए। कुछ लोग समृद्ध के लिए। कुछ लोग ज्ञान की प्राप्ति के लिए और कुछ लोग जो सब जान गए हैं, वे भी भजन करते हैं। उनकी योग्यता क्या होनी चाहिए, उनका धर्मात्मा होना जरूरी है। धर्म की सामग्री जिसके पास नहीं है, उसका क्षेत्र ईश्वर तक नहीं जा पाएगा। दुनिया में कई लोग मजाक उड़ाते हैं कि देखिए, दुख हो गया, तो चिल्ला रहे हैं, किन्तु दुनिया में करोड़ों दुखी ऐसे भी हैं, जिनके मुंह से एक बार भी नहीं निकलता है कि हे ईश्वर मेरा दुख दूर करो। वह तभी निकलेगा, जब धर्म की प्रतिष्ठा होगी।
जैसे पैसे से पैसा कमाया जाता है, बड़ी रकम होगी, तभी न फैक्टरी खुलेगी, बड़ी रकम होगी, तभी तो ठेका मिलेगा, वैसे ही धर्म से धर्म कमाया जाता है। आज धर्म कमाने वालों की कमी होने लगी है। साधु भी अब यही सोचने लगे हैं कि शिष्य बस लिफाफा दे दें, फिर जो मन में आए करें।
एक शिष्य ने अपने गुरु से कहा, ‘वह अमीर तो आपकी निंदा कर रहा था। जबकि आप उसे कितना मानते हैं।’
गुरु ने कहा, ‘अरे ऐसी निंदा का क्या? वह समय-समय पर हमें धन भेज देता है, गाड़ी भेजता हूं तो उस पर लकड़ी लादकर भेज देता है, हमें और क्या? निंदा करना है, तो करो।’
वस्तुत: यह तो भोग हो गया। महात्मा भी भोग में लग गए हैं। लेकिन किसी को यदि यह आकांक्षा हो कि यश हो, प्रेम भी बढ़े, तो धार्मिक होना पड़ेगा। जैसे लोग समय-समय पर शरीर की जांच करवाते हैं, ठीक उसी तरह से धन बढऩे पर यह टेस्ट करना चाहिए कि धन का उपयोग, विनियोग कहा हो रहा है, अगर सही हो रहा है, तो समझना चाहिए कि धन हमें देवता बनाने के लिए आया है।
पैसे का उपयोग सही होना चाहिए और मुझे पता है यह कैसे होता है। मैं पूछता हूं, बिड़ला ज्यादा धनवान हैं या हम। बिड़ला जी को धर्म का क ख ग नहीं आता, किन्तु मैं धर्म का मास्टर हूं। प्रयोग भी करता हूं। आप मंदिर बना लो, लेकिन आप लोगों को नहीं कह सकते कि मंदिर आओ। मैं ही लोगों को कहूंगा कि लक्ष्मी नारायण जी का मंदिर है, जाओ, वह नहीं कह सकेंगे। मेरा धर्म बड़ा धर्म है, उनको छोटा है। मुझे एक रुपया मिलता है, तो धर्म में सवा रुपया खर्च करके पचीस पैसा कर्ज में रहता हूं। दुनिया का कौन धनी ऐसा करता होगा? अभी भी मुझ पर कर्ज है। हमारी बराबरी अमीर करेंगे क्या? दो-दो रुपए जोडऩे वाले, जगह-जगह से दो रुपए बचाने वालों से मेरी क्या तुलना?
धन आने में कोई दिक्कत नहीं है, धन का विनियोग सही होना चाहिए। धन केवल पत्नी पर खर्च करने के लिए नहीं है, माता-पिता में भी लगे। माता-पिता की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।
दुनिया में जितने लोग हैं, सब हिन्दू धर्म के आंशिक अनुवाई हैं। हम उस धर्म के अनुवाई हैं, जिससे कोई बच नहीं सकता। हमारा धर्म बनावटी नहीं है, नैसर्गिक है। मैं आपको उदाहरण देता हूं, आप कहीं जा रहे हैं, एक दुर्घटना हुई, किसी को चोट लगी, वह सडक़ पर पड़ा तड़प रहा है, खून से लथपथ। तब क्या आपको कुछ-कुछ होता है, यही दया है। हमें यह नैसर्गिक शक्ति मिली हुई है। कोई तड़प रहा है, तो हमारे मन में आता है कि ओह, इसका दुख दूर हो जाता। भले हम डॉक्टर न हों, सर्जरी नहीं कर सकते हों, लेकिन लगता है कि काश! तड़पने वाले का दुख-दर्द दूर हो जाता।
धर्म नैसर्गिक शक्ति का नाम है। धर्म नहीं होता, तो बूढ़े, बुजुर्गों को कौन संभालता? धर्म नहीं होता, शादी-विवाह, भाईचारा कहां से होता? पश्चिम में क्या है? काम पूरा किया और वस्त्रहीन होकर समुद्र किनारे लेट गए, ऐसे दुनिया चलेगी क्या? धर्म करना जरूरी है। धर्म चर्चा जरूरी है।
अभी जो सुख हम ले रहे हैं, यह ऐतिहासिक क्षण है, धर्म चिंतन का क्षण है। कल पता नहीं, हममें से कौन रहेगा, कौन नहीं रहेगा। यह भी देखिए, अभी इसी समय कई लोग गिट्टी डाल रहे हैं। हम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के श्रेष्ठ भाव का चिंतन कर रहे हैं। उधर, हमारे सामने मजदूर काम कर रहे हैं, वे भी अपने धर्म का पालन कर रहे हैं, लेकिन उनका जीवन उतना श्रेष्ठ नहीं है। हालांकि वे भी धार्मिक हैं, वे निर्माण कर रहे हैं। उन्हें ईश्वर भक्त कहने में कोई हर्ज नहीं है।
विष्णु पुराण के एक श्लोक का भाव मैं आपको सुनाता हूं। अगर कोई अपने कत्र्तव्य का सही तरीके से पालन करता है, तो वह भगवद् सेवा कर रहा है। वह डंके की चोट पर कहे कि मैं किसी पुजारी से कम नहीं हूं, उसे सद्गति मिलेगी ही मिलेगी। उसकी मानवता पूर्ण विकसित होगी ही होगी, क्योंकि वह भी धर्म का पालन कर रहा है।
समापन

धर्म क्या है?

भाग - दस
विनोबा भावे कहते थे, जो मजदूर हैं, वही शेषनाग हैं, यदि ये नहीं होते, तो पृथ्वी को धारण कौन करता?
मेहतर माने महत्तर। महान काम जो करता है, उसको महत्तर बोलते हैं, वही बिगडक़र मेहतर हो गया। महत्त शब्द से तरप प्रत्यय करने पर महत्तर बनता है, दो में जो महान हो। अपना ही आदमी जब मल-मूत्र साफ करता है, तो बहुत मुश्किल से सुबह वाली बेला बीतती है, किन्तु जो दिन भर यही काम करता है, उसे महान का दर्जा होना ही चाहिए। किन्तु लोग उससे ही घृणा करने लगे। हमारे धर्म ने कभी यह नहीं कहा कि महत्तर से घृणा करो।
हमने कहा, तुम भी नहाकर आओ। वैसे बारह बजे तक जो झाड़ू लगाएगा, वह सुबह मंदिर कैसे आएगा, तो कहा गया, तुम शिखर का दर्शन करो, तो तुम्हें बराबरी का फल मिलेगा। इसमें क्या समस्या है? पति को एड्स हो जाए, तो पत्नी बोले कि मैं आपकी पत्नी हूं, लेकिन आप दूर रहेंगे, तो हमारा जीवन सुरक्षित होगा। क्या दिक्कत है, वह कैसे व्याभिचारिणी हुई? आचार का वर्गीकरण, विद्या का वर्गीकरण, धर्म का वर्गीकरण हो, किन्तु ईश्वर के आधार पर घृणा नहीं होनी चाहिए। यहां तो भगवान ने सबरी को भी स्वीकार किया। कुब्जा जिसके सभी अंग टेढ़े-मेढ़े थे, लेकिन उसमें भावना आसक्ति की थी कि भगवान एक बार आलिंगन कर लें, भगवान ने इच्छा पूरी की, गले लगा लिया, तो सारे अंग ठीक हो गए, कुब्जा सुन्दरी हो गई।
भगवान का जो अवतार है, ये साम्यवाद के प्रयोग की पराकाष्ठा है। ये जो कथाकार हैं, जो पाउडर लगातार मंच पर बैठकर कथा कर रहे हैं, ये तो गलत कर रहे हैं। ये तो उस बात को कह ही नहीं रहे हैं कि भगवान ने श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों को, जो धर्म का श्रेष्ठ स्वरूप है, उसे बिछा दिया सडक़ों पर।
सभी के साथ खेलना, सभी के साथ दूध पीना, दूसरों के लिए चोरी करना। ईश्वर मक्खन भी चुराता है, तो सम वितरण करता है, अपने लिए नहीं, अपने भूखे साथियों के लिए चुराता है।
एक मित्र ने कहा कि साधु लोग भी अब दो नंबर का पैसा ले रहे हैं। साधु अगर सहज है और जो दो नंबर का पैसा है, उससे भंडारा कर दिया गरीब से ब्राह्मण तक सबको भोजन करा दिया, तो इससे बढिय़ा क्या हुआ। उस ब्राहण को दान दे, जो वेद पढऩे या पढ़ाने में लगा है, तो क्या बुरा है? आज साधुओं को बहुत सारी जो दक्षिणा मिल रही है, वह ऐसी ही मिल रही है। वे जीवित इसलिए हैं, क्योंकि वे उस पैसे का सदुपयोग करते हैं।
जो अपनी मानसिकता को मेंटेन करके या संभाल करके नहीं चलेगा, वह कदम-कदम पर शोकग्रस्त होगा। मानसिकता को मेंटन रखने का एकमात्र संसाधन धर्म है, जैसे टेंपरेचर को मेंटन रखना है। सादगी पूर्ण जीवन और सद् चिंतन नहीं होगा, तो कोई इस संसार में एक क्षण भी सुख से नहीं रह सकेगा। आप जिस अपेक्षा से आए हैं, उस अपेक्षा के अनुरूप नहीं हुआ, तो आप तुरंत शोकग्रस्त हो जाएंगे। अपमानित हो जाएंगे। अमरीकियों ने जो सोचकर बराक ओबामा को राष्ट्रपति बनाया था, वह यदि नहीं हुआ, तो बराक जी क्या करेंगे? मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री बने थे, इच्छाएं पूरी नहीं हुईं, तो वे क्या करेंगे? हर आदमी की अपनी सीमा और शक्ति है। ऐसी स्थिति में भी धर्म का पारिपालन होना चाहिए और लोग जान ही नहीं रहे हैं धर्म भोग को भी देता है और धन को भी देता है।
चोरी करके भी धर्म कमाया जाता है, धन कमाया जाता है, झूठ बोलकर भी धर्म कमाया जाता है। आज धार्मिक लोग भी ढोंग करके धन और भोग कमा रहे हैं। संन्यासी जीवन में धन की प्रधानता नहीं होनी चाहिए, धन आया है, तो उसका उपयोग समाज के लिए होना चाहिए। गृहस्थ जीवन में भोग प्रधान नहीं होना चाहिए, वह भी धर्म प्रधान होगा, तब उन्नति होगी, बच्चे ठीक होंगे, परिवार ठीक होगा। बहुत धन हो गया, धर्म नहीं हुआ, तो किडनी डैमेज होगी, जीवन का सबकुछ बिगड़ जाएगा। ऐसे ही नेताओं का है, धार्मिक आचरण नहीं रहेगा, तो आपने जो धन कमाया है, भोग कमाया है, वह आपको जेल पहुंचा देगा। बहुत से नेता जेल में सड़ रहे हैं। कई अधर्मी और पापी जेल में हैं, इसलिए धन जरूर आए, लेकिन उसका सही रास्ते से उपयोग हो, तो धन आपको और बढ़ा देगा, बड़ा बना देगा।
क्रमश:

धर्म क्या है?

भाग : नौ
आज भी लोग समझ नहीं रहे हैं, अभी किसी को सुख मिलने लगे, तो उसे चिंतन करना चाहिए कि कैसे मिल रहा है। मैं अपने जीवन के बारे में आपको सुनाता है, मुझसे बड़े-बड़े तपस्वी रामानंद संप्रदाय में हुए हैं। मुझसे बड़े विद्वान रामानंद संपद्राय में हुए हैं। मुझे लोग कहते हैं कि मैं विद्वान हूं। यह सुनकर मैंने कहीं कहा, पढ़ाने-लिखाने का मेरा ध्ंाधा बंद हो गया, जबसे संत-महात्माओं के क्षेत्र में आ गया, उतना अच्छा नहीं कर पा रहा हूं। एक महात्मा राजेन्द्र दास जी ने कहा कि अभी भी जो विद्वान हैं, अधिकांश लोग आपके विद्यार्थी हैं, इससे बढिय़ा क्या चाहिए।
आज कई बड़े विद्वान संत हैं, कई तो मेरे मित्र भी हैं, उनसे कोई जाकर पूछे एक आदमी का नाम बतलाइए, जिसे आपने गद्दी पर बैठने से पहले पढ़ाया हो और जो विद्वान हो और एक ऐसे आदमी का नाम बतलाइए, जिसे आपने गद्दी पर बैठने के बाद पढ़ाया हो, बहुतों के पास एक नाम नहीं मिलेगा। इस रामनरेशाचार्य ने अपने साथियों को, जो लोग मेरे साथ पढ़ते थे, उनको भी पढ़ाया। अपने आगे वालों को भी पढ़ाया और पीछे वालों की बात छोडि़ए। और मेरे शिष्य ऐसे विद्वान लोग हैं, जो जहां भी जाएंगे, यही कहेंगे कि मैं महाराज का विद्यार्थी हूं, हालांकि उनमें से बहुतों को मैं भूल भी चुका हूं।
मेरे द्वारा पढ़ाए गए ऐसे लोगों को भी विद्वान माना गया, जिन्हें मैं विद्वान नहीं मानता था। किसी की निंदा नहीं कर रहा हूं, लेकिन शिक्षक के रूप में मेरे उत्पादन दायरा बहुत बड़ा था। अब लगता है, कुछ छोटा हो गया है।
अब मैं अपने विषय पर आता हूं। मुझसे बड़े विद्वान और बड़े-बड़े तपस्वी और बड़ी आयु के लोग, जिनको श्रेय नहीं मिला, काम करने का मंच नहीं मिला, वह मुझे मिला। रामानंदाचार्य की पीठ में मुझे अवसर मिला। मैं बहुत चिंतन करता हूं कि मेरी कौन-सी विद्या थी, क्या धर्म था, कौन लोग मेरे सहयोगी थे, लेकिन अब लगता है, वस्तुत: राम जी का अनुग्रह और मेरा पिछला पुण्य काम कर रहा है। उसी पुण्य की बदौलत मुझे जब कोई मिल जाता है, तो मैं समझ जाता हूं कि पुण्य का प्रताप था। अपने यहां कहा जाता है कि आपका हमारा कोई लेना-देना था, इसलिए हम साथ आ गए या मिल गए, इसका मतलब ही है कि कोई पुण्य था, जिसने मिलाया।
हिन्दू धर्म माने विश्व का धर्म। हिन्दू धर्म माने सिर्फ हिन्दुओं का नहीं। विश्व में जो मानव हैं, उनके लिए जो धर्म बना, उसी का नाम हिन्दू धर्म है। भले ही उसे कोई बारह आना मानता है, कोई तेरह आना, तो कोई पांच आना। यह जो धर्म बना, वह तो सबके लिए था। सूर्य उगा हो और कोई दरवाजा-खिडक़ी बंद करके बैठा हो, तो इसमें सूर्य का क्या दोष है?
किसी के पास भी एक अलग धर्म मार्ग नहीं है। जैनियों के पास अहिंसा धर्म, बौद्धों के पास क्षणिकवाद, यह तो हम पहले से कह ही रहे हैं। गुरुग्रंथ साहब का पाठ हो रहा है, संपूर्ण गुरुग्रंथ साहब में राम, हरि, कृष्ण का भजन है, उसमें रामानंदाचार्य के चेलों के वचन हैं। लेकिन आज उनको पता ही नहीं है कि रामानंद कौन थे, कबीर दास जी के गुरु कौन थे। ये बतलाइए, जिन संतों के वचनों को पढक़र आप बहुत बड़े धार्मिक बन रहे हैं और उसके मूल का आपको पता ही नहीं है, यह क्या बात हुई? जैसे कोई यह जाने ही नहीं कि उसकी पार्टी का अध्यक्ष कौन है, तो किसी छोटे कार्यकर्ता से पार्टी चलेगी क्या?
हिन्दू धर्म को वर्गीकरण के लिए दोषी ठहराया जाता है। वर्गीकरण भला कहां नहीं है? क्या अफसर को ज्यादा वेतन नहीं मिलता है, क्योंकि वह ज्यादा पढ़ा-लिखा है, ज्यादा जिम्मेदारी के पद पर है, उसे अलग से केबिन देकर बैठाया जाता है, सबको बैठने के लिए अलग से केबिन नहीं मिलता। हुआ न वर्गीकरण? पहले अध्यापक का जो वेतन था, वह एक सैनिक का नहीं था, लेकिन बाद में धीरे-धीरे सुधार हुआ। नौकरी में फर्क है या नहीं। कोई उत्सव होता है, तो कई लोग तो अब अतिथियों व सम्बंधियों का भी वर्गीकरण करते हैं। किसी को कम सुविधा किसी को ज्यादा सुविधा। धर्म ने वर्गीकरण किया था, तो क्या गलत है? मंदिर में कौन जाएगा, मंदिर में कौन वेद पढ़ेगा, यह तय हुआ, तो इसमें क्या बात हो गई? जिस आदमी को हनुमान चालीसा का भी ज्ञान नहीं है, उससे कोई पूछे कि धर्म क्या है, तो वह क्या बतलाएगा? उसको पता नहीं है, ‘चोदनालक्षणोह्यर्थो धर्म:।’ महर्षि जैमिनी द्वारा लिखित यह धर्म का प्रतिपादक दर्शन है। पूर्वमीमांसा दर्शन में यही सूत्र बनाया गया। वेद के प्रतिपादित जो प्रयोजनमान अर्थ है, उसको धर्म कहते हैं। धर्म वह है, जिसे वेद ने हमारे कल्याण के साधन के रूप में प्रतिपादित किया हे। लिखा गया है कि शत्रु को मारने के लिए सोमयाग करना चाहिए, किन्तु वेदों ने कहा कि ये धर्म नहीं है, क्योंकि इससे शत्रु तो मर जाएगा, किन्तु बाद में नर्क जानना पड़ेगा। धर्म कल्याण के लिए है, विनाश के लिए नहीं। धर्म का ऐसा ही स्वरूप है जमीन से आकाश तक।
अब ज्यादातर लोगों को पता नहीं है कि धर्म का क्या मतलब है। धर्म का ऐसा क्रम जो जमीन से लेकर आकाश तक है। विद्यार्थी का, भाई का, मां का, पिता का ज्ञान। जिसमें धर्म नहीं होगा, वह पत्नी नहीं होगी। जिसको धर्म का ज्ञान नहीं होगा, वह पति नहीं बन सकेगा, जिसको धर्म को ज्ञान नहीं होगा, वह न छात्र बनेगा न किसान बनेगा। धर्म के ज्ञान से ही कुछ बना जा सकता है।
क्रमश: