सकारात्मक चिंतन का अभिप्राय है कि जो समाज के लिए उपयोगी है, जो समाज के लिए मान्य है, जो अपने लिए उपयोगी है, उसके लिए चिंतन करना। दूसरी ओर, जाति की मान्यता, समाज, परिवार की मान्यता, बड़े समुदाय की मान्यता से अलग हटकर सोचना नकारात्मक चिंतन है। वैसे तो व्यापकता में जाएंगे, तो नकारात्मक चिंतन को परिभाषित करना बहुत कठिन हो जाएगा। समुदाय की जो सोच है, ज्ञान बढ़ाने की, धन बनाने की, प्रेम बढ़ाने की, इससे अलग हटकर चिंतन करना या जो चिंतन जाति के लिए है, परिवार, राष्ट्र, जाति, संविधान के लिए है, उससे अलग हटकर चिंतन करना नकारात्मक चिंतन है।
पहले इसके कारण पर चिंतन करते हैं, तो सबसे पहले चिंतन का जो आधार है, उसे देखें। हम लोगों के यहां अंत:करण के चार भेद बतलाए जाते हैं - मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मन तो संकल्प, विकल्प करता है, ये ऐसा है, ये वैसा है। चित्त चिंतन करता है और जब किसी बात का निश्चय करना होता है, तो यह काम बुद्धि करती है और अहंकार तो होता ही रहता है, मैं-मैं की भावना या अहम् अहम् की जो भावना है, मैं गोरा हूं, मैं ब्राह्मण हूं, धनवान हूं, इत्यादि अहंकार ही है।
तो चित्त से जुड़ा है चिंतन। हम लोगों को दर्शन शास्त्र में पढ़ाया गया था कि चित्त जब सात्विक होता है, तभी वह सही चिंतन कर पाता है और उसमें सही भावनाएं, सही ज्ञान उत्पन्न होता है। जो सकारात्मक ज्ञान का स्वरूप है, वह चित्त के सात्विक होने पर ही उत्पन्न होता है। यदि हम चाहते हैं कि सबसे पहले हमारा चिंतन शुद्ध हो, जो हमारे जीवन को उत्कर्ष दे, उज्ज्वलता दे, तो इसके लिए हमारे चित्त का शुद्ध होना जरूरी है। जैसे खेत जब शुद्ध हो, तभी उसमें बीजारोपण सफल होता है और वह फसल को देने वाला बन पाता है। यदि खेत खराब हो, उसमें पत्थर हों, ज्यादा पानी हो या जरूरत से कम पानी हो, खर-पतवार ज्यादा हों या कोई और विकृति हो, तो उसमें बीजारोपण विफल हो जाता है। ठीक उसी तरह से सही चित्त में ही सही चिंतन आता है। इसके लिए आवश्यक है कि चित्त शुद्ध हो और इसके लिए शुद्ध आहार का होना जरूरी है। वेदों में लिखा है कि जो सात्विक आहार ग्रहण करते हैं, उनका ही मन शुद्ध होता है। सात्विक आहार का अर्थ है, जो राजस नहीं है, बहुत दिनों का बना हुआ नहीं है, जला हुआ नहीं है, बासी नहीं है, सड़ा हुआ, गला हुआ, ज्यादा मसाला वाला, तेल नहीं है, जो दुर्गंधित नहीं है। आहार शाकाहार होना चाहिए। सकारात्मक सोच के लिए शुद्ध चित्त की आवश्यकता है, शुद्ध चित्त तभी होगा, जब आहार शुद्ध होगा और जब शुद्ध व्यवहार होगा। और जिन लोगों का चित्त सकारात्मक है, उनका संसर्ग करें, उनके साथ बैठना-बोलना आवश्यक है। यहां तक कि चित्त की शुद्धि पर कपड़ा इत्यादि का भी प्रभाव पड़ता है। इस बात का महत्व है कि व्यक्ति किस रंग का कपड़ा पहनता है, जैसे उजला कपड़ा सात्विक माना जाता है, केसरिया, पीला, गुलाबी रंग भी सात्विक माना जाता है। सकारात्मक चिंतन के लिए आवश्यक है कि आदमी शास्त्रों में विश्वास करे, क्योंकि शास्त्र ही बतलाएंगे, गुरु ही बतलाएगा कि हमें कैसा चिंतन करना चाहिए कि हमारा विकास हो। हर आदमी को ईश्वर से चित्त मिला है, वह कुछ न कुछ विचार करता रहता है, निश्चय करता है, लेकिन समाज और जीवन को सुंदरता देने वाला, हमारे जीवन का सही उपयोग करने वाला, राष्ट्र को सही दिशा और विकास देने वाला, हमारे माध्यम से जो होगा, पूरी मानवता के लिए हम कैसे कारगर हो सकेंगे, इसके लिए जो चिंतन देगा, वो तो शास्त्र देगा, शास्त्रों को जानने वाले और उसका प्रयोग करने वाले गुरु देंगे। नकारात्मक चिंतन इसलिए हो रहा है, क्योंकि मन शुद्ध नहीं है, आहार, व्यवहार शुद्ध नहीं है, कोई राष्ट्रीय स्तर पर काम नहीं हो रहा है, लोग कैसे मांस, मदिरा और तमाम अभक्ष्य जो नहीं खाना चाहिए, वो सब खा रहे हैं। जब खेत ही शुद्ध नहीं होगा, तो फसल कहां से शुद्ध होगी? जब जल ही शुद्ध नहीं होगा, जब सामग्री शुद्ध नहीं होगी, तो मन कैसे शुद्ध होगा? मन से ही चित्त बनता है। भोजन से ही चित्त बनता है। तो शास्त्रों का विश्वास नहीं होने से, गुरु का विश्वास नहीं होने से लोगों का चिंतन नकारात्मक होता जा रहा है। शास्त्र ही बतलाएंगे, गुरु ही बतलाएंगे कि हमें क्या चिंतन करना है, चिंतन का सही स्वरूप क्या हो? रावण का चिंतन करना है या राम का करना है। अपनी पत्नी का चिंतन करना है या दूसरी लडक़ी का चिंतन करना है। धन कमाने के गलत रास्ते का चिंतन करना है या सही रास्ते का। विकसित होने के लिए सही रास्ते का चिंतन करना है या गलत रास्ते का चिंतन करना है। जीवन को स्वार्थी बनाना है या संयमी बनाना है, यह सब कौन बतलाएगा, शास्त्र ही बतलाएंगे, गुरु ही बतलाएंगे। तो वास्तव में इसका अभाव होने के कारण लोग नकारात्मक होते जा रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आदमी का जब तक ईश्वर में विश्वास नहीं होता, उसका काम नहीं चलता। ईश्वर में अविश्वास के कारण हमें यह समझ ही नहीं आता है कि हमारे जीवन का परम लाभ या परम गंतव्य या परम कत्र्तव्य क्या है, हम एक छोटे से दायरे में ही रहकर अपना जीवन बिता देना है, कहीं से भी आए, कहीं भी सो लिए, जैसे-तैसे पैसे भी कमा लिए, किसी के साथ भी जुड़ गए, हमें क्या लेना है समाज से, जाति से, राष्ट्र से या मानवता से, ये तो बिना मतलब का है, हमें एटम बम से क्या लेना है, चंद्रलोक में जाने से क्या लेना है, हमें विभिन्न तरह के विकास से क्या लेना है? आदमी जब शास्त्रों के माध्यम से ईश्वर से जुड़ता है, तो देखता है कि जैसे हमें अपना जीवन प्रिय है, वैसे ही पूरा संसार हमारा ही है। जब पूरे संसार को ईश्वर चला रहा है, जो वायु देता है, प्रकाश देता है, जल देता है आकाश देता है, जिसने हमारे जीवन की रक्षा की, उसे बनाया, संवारा, जो सम्पूर्ण सृष्टि का उत्पादक, पालक और नियंता है, सबकुछ उसके पास है, उसीका यह संसार है, वह हमारा है, तो हम उसके लिए प्रयास करें, उसके लोगों के लिए प्रयास करें, उसकी रीति से प्रयास करें, हमारा जो नकारात्मक चिंतन है, वह सकारात्मक चिंतन में बदलेगा। तो जब तक ईश्वरीय भावना नहीं होगी, काम नहीं चलेगा।
क्रमश:
पहले इसके कारण पर चिंतन करते हैं, तो सबसे पहले चिंतन का जो आधार है, उसे देखें। हम लोगों के यहां अंत:करण के चार भेद बतलाए जाते हैं - मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मन तो संकल्प, विकल्प करता है, ये ऐसा है, ये वैसा है। चित्त चिंतन करता है और जब किसी बात का निश्चय करना होता है, तो यह काम बुद्धि करती है और अहंकार तो होता ही रहता है, मैं-मैं की भावना या अहम् अहम् की जो भावना है, मैं गोरा हूं, मैं ब्राह्मण हूं, धनवान हूं, इत्यादि अहंकार ही है।
तो चित्त से जुड़ा है चिंतन। हम लोगों को दर्शन शास्त्र में पढ़ाया गया था कि चित्त जब सात्विक होता है, तभी वह सही चिंतन कर पाता है और उसमें सही भावनाएं, सही ज्ञान उत्पन्न होता है। जो सकारात्मक ज्ञान का स्वरूप है, वह चित्त के सात्विक होने पर ही उत्पन्न होता है। यदि हम चाहते हैं कि सबसे पहले हमारा चिंतन शुद्ध हो, जो हमारे जीवन को उत्कर्ष दे, उज्ज्वलता दे, तो इसके लिए हमारे चित्त का शुद्ध होना जरूरी है। जैसे खेत जब शुद्ध हो, तभी उसमें बीजारोपण सफल होता है और वह फसल को देने वाला बन पाता है। यदि खेत खराब हो, उसमें पत्थर हों, ज्यादा पानी हो या जरूरत से कम पानी हो, खर-पतवार ज्यादा हों या कोई और विकृति हो, तो उसमें बीजारोपण विफल हो जाता है। ठीक उसी तरह से सही चित्त में ही सही चिंतन आता है। इसके लिए आवश्यक है कि चित्त शुद्ध हो और इसके लिए शुद्ध आहार का होना जरूरी है। वेदों में लिखा है कि जो सात्विक आहार ग्रहण करते हैं, उनका ही मन शुद्ध होता है। सात्विक आहार का अर्थ है, जो राजस नहीं है, बहुत दिनों का बना हुआ नहीं है, जला हुआ नहीं है, बासी नहीं है, सड़ा हुआ, गला हुआ, ज्यादा मसाला वाला, तेल नहीं है, जो दुर्गंधित नहीं है। आहार शाकाहार होना चाहिए। सकारात्मक सोच के लिए शुद्ध चित्त की आवश्यकता है, शुद्ध चित्त तभी होगा, जब आहार शुद्ध होगा और जब शुद्ध व्यवहार होगा। और जिन लोगों का चित्त सकारात्मक है, उनका संसर्ग करें, उनके साथ बैठना-बोलना आवश्यक है। यहां तक कि चित्त की शुद्धि पर कपड़ा इत्यादि का भी प्रभाव पड़ता है। इस बात का महत्व है कि व्यक्ति किस रंग का कपड़ा पहनता है, जैसे उजला कपड़ा सात्विक माना जाता है, केसरिया, पीला, गुलाबी रंग भी सात्विक माना जाता है। सकारात्मक चिंतन के लिए आवश्यक है कि आदमी शास्त्रों में विश्वास करे, क्योंकि शास्त्र ही बतलाएंगे, गुरु ही बतलाएगा कि हमें कैसा चिंतन करना चाहिए कि हमारा विकास हो। हर आदमी को ईश्वर से चित्त मिला है, वह कुछ न कुछ विचार करता रहता है, निश्चय करता है, लेकिन समाज और जीवन को सुंदरता देने वाला, हमारे जीवन का सही उपयोग करने वाला, राष्ट्र को सही दिशा और विकास देने वाला, हमारे माध्यम से जो होगा, पूरी मानवता के लिए हम कैसे कारगर हो सकेंगे, इसके लिए जो चिंतन देगा, वो तो शास्त्र देगा, शास्त्रों को जानने वाले और उसका प्रयोग करने वाले गुरु देंगे। नकारात्मक चिंतन इसलिए हो रहा है, क्योंकि मन शुद्ध नहीं है, आहार, व्यवहार शुद्ध नहीं है, कोई राष्ट्रीय स्तर पर काम नहीं हो रहा है, लोग कैसे मांस, मदिरा और तमाम अभक्ष्य जो नहीं खाना चाहिए, वो सब खा रहे हैं। जब खेत ही शुद्ध नहीं होगा, तो फसल कहां से शुद्ध होगी? जब जल ही शुद्ध नहीं होगा, जब सामग्री शुद्ध नहीं होगी, तो मन कैसे शुद्ध होगा? मन से ही चित्त बनता है। भोजन से ही चित्त बनता है। तो शास्त्रों का विश्वास नहीं होने से, गुरु का विश्वास नहीं होने से लोगों का चिंतन नकारात्मक होता जा रहा है। शास्त्र ही बतलाएंगे, गुरु ही बतलाएंगे कि हमें क्या चिंतन करना है, चिंतन का सही स्वरूप क्या हो? रावण का चिंतन करना है या राम का करना है। अपनी पत्नी का चिंतन करना है या दूसरी लडक़ी का चिंतन करना है। धन कमाने के गलत रास्ते का चिंतन करना है या सही रास्ते का। विकसित होने के लिए सही रास्ते का चिंतन करना है या गलत रास्ते का चिंतन करना है। जीवन को स्वार्थी बनाना है या संयमी बनाना है, यह सब कौन बतलाएगा, शास्त्र ही बतलाएंगे, गुरु ही बतलाएंगे। तो वास्तव में इसका अभाव होने के कारण लोग नकारात्मक होते जा रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आदमी का जब तक ईश्वर में विश्वास नहीं होता, उसका काम नहीं चलता। ईश्वर में अविश्वास के कारण हमें यह समझ ही नहीं आता है कि हमारे जीवन का परम लाभ या परम गंतव्य या परम कत्र्तव्य क्या है, हम एक छोटे से दायरे में ही रहकर अपना जीवन बिता देना है, कहीं से भी आए, कहीं भी सो लिए, जैसे-तैसे पैसे भी कमा लिए, किसी के साथ भी जुड़ गए, हमें क्या लेना है समाज से, जाति से, राष्ट्र से या मानवता से, ये तो बिना मतलब का है, हमें एटम बम से क्या लेना है, चंद्रलोक में जाने से क्या लेना है, हमें विभिन्न तरह के विकास से क्या लेना है? आदमी जब शास्त्रों के माध्यम से ईश्वर से जुड़ता है, तो देखता है कि जैसे हमें अपना जीवन प्रिय है, वैसे ही पूरा संसार हमारा ही है। जब पूरे संसार को ईश्वर चला रहा है, जो वायु देता है, प्रकाश देता है, जल देता है आकाश देता है, जिसने हमारे जीवन की रक्षा की, उसे बनाया, संवारा, जो सम्पूर्ण सृष्टि का उत्पादक, पालक और नियंता है, सबकुछ उसके पास है, उसीका यह संसार है, वह हमारा है, तो हम उसके लिए प्रयास करें, उसके लोगों के लिए प्रयास करें, उसकी रीति से प्रयास करें, हमारा जो नकारात्मक चिंतन है, वह सकारात्मक चिंतन में बदलेगा। तो जब तक ईश्वरीय भावना नहीं होगी, काम नहीं चलेगा।
क्रमश:
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