Wednesday, 25 February 2015

सर्वथा अनिन्दिता सीता

समापन भाग
लोकसंत सेनाचार्य जी स्वामी अचलानन्द जी एवं अपने पट शिष्य स्वामी पदमनाभ जी के साथ जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज 

सीता जी जरा भी निन्दित होने योग्य नहीं हैं। वाल्मीकि जी ने लिखा है। सर्वथा अनिन्दिता सीता। उनके जीवन में ऐसा कोई पक्ष नहीं है, जिसकी निन्दा हो सके। धरती से जन्म लेने से लेकर धरती में समाने तक उन्होंने सदा ही उच्चता का परिचय दिया। वह सर्वथा अनिन्दिता हैं।
तो जितने भी संदेह हो सकते हैं, संभावना हो सकती है, इन सबको जानकी जी ने उपस्थित किया और सबका समाधान हनुमान जी ने किया। समुद्र पार करके आएं हैं, तो जाएंगे भी, बड़ा स्वरूप दिखा दिया, तो यह भी सिद्ध हो गया कि उनमें क्षमता है। सभी दृष्टि से संतुष्ट होने के बाद जानकी जी ने कहा कि मैं पर-पुरुष का स्पर्श नहीं कर सकती। 
भारतीय पतिव्रता नारी पर-पुरुष का स्पर्श नहीं करती है, यह बहुत बड़ा सबक है। रावण के यहां निवास किया, तमाम तरह के शास्त्रों के जानकार लोग हैं। जिन्होंने वाल्मीकि रामायण को नहीं पढ़ा है, वे संदेह में डूबते उतराते हैं, मन को गंदा करते हैं कि जानकी जी सामान्य जीवों में हैं, जिनके सम्बंध में उंगली उठाई जा सकती है। जो नारी चरित्र की चरम हैं, जो नारी शक्ति की चरम हैं, इस बात को इस प्रसंग ने सिद्ध कर दिया।
जब राम जी के दासों के दास भक्त शिरोमणि हनुमान जी जिनमें कोई त्रुटि नहीं है, अंगूठी देकर जिन्हें भेजा था, शंकाओं का निर्मूल करके, पतिव्रता नारी के स्वरूप को स्थापित किया और बताया कि नारी छवि को कैसे संसार में स्थापित करना चाहिए, उनका जीवन का कोई भी कोण, अयोध्या में रही हों, लंका में रही हों, जनकपुर में रही हों, पृथ्वी में विलीन होने तक, उनका सम्पूर्ण चरित्र अनिन्दित है, उस चरित्र से नारियों को प्रेरणा लेनी चाहिए। आज तमाम तरह की विकृतियां महिलाओं में आ गई हैं, बलात्कार हो रहे हैं, शोषण हो रहे हैं। ऐसा लगता है कि नारी समाज के साथ अत्याचार हो रहा है, सम्पूर्ण दोष पुरुष को दिए जाते हैं, किन्तु नारी को स्वयं भी विवेकवान रहना चाहिए। नारी यदि सजग है, यदि वह छोटे-मोटे प्रलोभन के लिए बिगडऩे को तैयार नहीं है, ऐसी नारी को कोई बिगाड़ नहीं सकता, कहीं से वह अत्याचार का भाजन नहीं बनेगी। जो अत्याचारी हैं, दुराचारी हैं, जो कामलोलुप हैं, उनका शिकार नहीं होंगी। सम्पूर्ण समाज को नारी शक्ति का बल मिलेगा। जानकी जी का चरित्र आदर्श है। 
जय सियाराम...

सर्वथा अनिन्दिता सीता

भाग - 5
दो बातें हनुमान जी ने उत्तर के रूप में कही, 'आपने जो कहा, वह स्त्री स्वभाव के ही अनुकूल है, स्त्रियों में भिरुता होती है, वह आपमें भी है, कई ऐेसे स्वभाव जो शास्त्रों में वर्णित हैं, स्त्रियों के लिए, उसमें भीरुता भी है। सतियों का जो विनय है, मर्यादा है, जो पर पुरुष का स्पर्श नहीं करतीं, जो पतिव्रता हैं, पतिव्रता अपने पति के अतिरिक्त किसी को देखती नहीं, किसी के साथ कोई भी सम्बंध नहीं रखतीं, उसके अनुरूप भी आपने कहा, मैं संतुष्ट हूं। स्त्री स्वभाव के कारण आप समर्थ नहीं हैं सागर को पार करने में, मेरी पीठ पर बैठकर सप्तयोजन, ४०० कोस के विस्तारित समुद्र को आप पार नहीं कर सकतीं। दूसरा जो कारण है, आपने जो बतलाया कि रामजी के अतिरिक्त किसी का स्पर्श मैं नहीं कर सकती, तो यह बिल्कुल सही है। आप भगवान राम की पत्नी हैं, जो परामात्मा हैं, आपने निर्णय लिया, ठीक लिया। जो मैं ले जाना चाहता था, आपने मना किया, राम जी के अनुरूप ही आपने यह विचार व्यक्त किया, आपके अतिरिक्त कौन है, जो इस तरह के विचार व्यक्त कर सकता है? आप जैसी केवल आप ही हैं, जैसे गगन के समान केवल गगन ही है, उसकी दूसरे से तुलना नहीं की जा सकती, आपके अतिरिक्त आपके जैसा कोई नहीं है।'
हनुमान जी के मन में आया, हनुमान जी सफाई दे रहे हैं। राम जी का ध्यान करके उन्होंने जानकी जी को कहा, 'जो आपने कहा, जो आपने चेष्टा की रोदन की, निराशाएं आपने व्यक्ति की, उसको भगवान देख भी रहे हैं, सुन भी रहे हैं, वे सामान्य लोगों की तरह नहीं हैं कि वे हमारी बातों को सुन नहीं रहे हों। राम जी सब देख रहे हैं। मैंने बहुत से कारणों को ध्यान में रखकर निवेदन किया था, पहला कारण था, रामजी मेरे अत्यंत प्रिय हैं और उनके लिए मैं सुख देने वाला उनको उत्साह देने वाला उनको जीवन देने वाला उनको निराशा सागर से बाहर करने वाला, उनके लिए ही काम करूं, यही काम था कि मैं आपको लेकर जाऊं, राम जी की चिंता के संपादन के लिए मैंने यह कहा था। राम जी के स्नेह से भरा मेरा निवेदन था, मेरा मन पिघला हुआ था, इसलिए मैंने कहा, आप मेरे साथ चलिए और कोई कारण नहीं था। मैंने लंका में प्रवेश किया, समुद्र को भी आसानी से पार किया, इसलिए आप मेरे साथ चलें, मैं चाहता था कि आज ही आप मेरे साथ चलतीं, किन्तु आपने मुझे मना किया। भगवान की शपथ खाकर कहता हूं, मेरे मन में कोई अन्यथा प्रयोजन नहीं था कि मैंने आपको चलने के लिए कहा। यदि आप नहीं जाती हैं, तो आप कोई चिन्ह मुझे दें, जिसे लेकर मैं राम जी के पास जाऊं, ताकि उन्हें विश्वास दिलाऊं कि मेरी मुलाकात जगदंबा जानकी जी के साथ हुई, उन्हें पीडि़त करते रावण और राक्षसियों को मैंने देखा, आप कोई चिन्ह दें, तो मेरे लिए आसान हो जाएगा प्रमाणित करना कि मैं आपसे मिला।'
हनुमान जी अभिज्ञान की मांग करते हैं, जानकी जी ने चूड़ामणि निकाल कर हनुमान जी प्रदान की। राम जी से जुड़ा एक गुप्त प्रसंग भी बताया कि एक दिन जानकी जी राम जी के पास बैठी हुई थीं, इंद्र पुत्र जयंत कौवा का वेश बनाकर आया और उनके स्तनों के बीच प्रहार किया, बहुत भगाने की कोशिश की जानकी जी ने, वह बार-बार आता था, उसने प्रहार करके रक्तरंजित कर दिया, राम जी के ऊपर रक्त की बूंदें गिरी गरम-गरम तो राम जी उठे, उन्होंने एक तिनका लेकर उसे ब्रह्मास्त्र से शक्तिशाली बनाकर कौवा रूपी जयंत के पीछे लगा दिया, जयंत भागने लगा, जगह-जगह, तमाम देवताओं के पास गया, पिता इन्द्र के पास गया, ब्रह्मा जी के पास गया, अनेक ऋषियों के पास, कहीं भी किसी ने उसे शरण नहीं दी कि तू रामद्रोही है, तेरी सहायता कौन करे। अंत में जयंत राम जी के चरणों में ही आ गिरा, राम जी ने कहा, तू बड़ा पापी है, मैं अपनी पत्नी के साथ था, यह विधवा नहीं, अनाथ नहीं है, तूने इतना बड़ा दुस्साहस किया, तू कितना बड़ा दुष्ट है, किन्तु तू मेरी शरण में आ गया है, मैं शरण में आए हुए को मार नहीं सकता, तुझे जीवन दान देता हूं, किन्तु तेरी दाहिनी आंख यह ब्रह्मास्त्र जरूर लेगा।
यह प्रसंग जानकी जी ने सुनाया और कहा, 'यह प्रसंग केवल रामजी और मैं जानती हूं। जब मिलना, तो राम जी से कहना, मुझ दुखयारी को लेने के लिए जल्दी आवें।' 

क्रमशः

सर्वथा अनिन्दिता सीता

भाग - 4
सेनाचार्य जी स्वामी अचलानन्द जी के साथ जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज

सभी जिज्ञासाओं का हनुमान जी ने उत्तर दिया, 'मुझसे कोई भी लंका का वीर, कितने भी आयुध हों, कभी मुझसे नहीं जीत सकता, कभी मैं आपको न गिरने दूंगा, न मैं गिरूंगा, न आपको कोई ले जा पाएगा, न छिपा पाएगा, मुझे भगवान राम जी की शक्ति प्राप्त है, देवताओं की शक्ति प्राप्त है, मुझे कहीं से भी पराजय का मुंह नहीं देखना है आप निश्चिंत रहिए।' 
अनेक प्रकार से हनुमान ने जी आशंकाओं का निवारण किया, 'आप निराशा में ज्यादा दिनों तक नहीं रह पाएंगी, इसलिए आप चलें, अगर आपको कुछ हो गया, तो मेरे स्वामी का क्या होगा?'
इसके उपरांत जानकी जी ने एक और बड़ा संकट खड़ा कर दिया, उन्होंने कहा, 'पति भक्ति को ध्यान में रखकर मेरा जो पति के प्रति जो समर्पण है, पति के लिए जो सम्पूर्ण त्याग है, जो मुझ पतिव्रता का धर्म है, उसको ध्यान में रखकर मैं राम जी के अतिरिक्त किसी पुरुष का स्पर्श नहीं कर सकती। मैं अपनी इच्छा से कभी किसी पर पुरुष का स्पर्श नहीं किया है, न अभी तक किया है, न आगे करना है। मैंने जबसे विवाह हुआ है, राम जी के अतिरिक्त किसी का स्पर्श नहीं किया, इसलिए मैं आपकी पीठ पर स्थित होकर नहीं जा सकती, यह हमारी पति भक्ति है। अपने स्वामी के लिए जो मेरा प्रेम है, जो समर्पण है, जो स्वामी के लिए महान संकल्प है, उसके अंतर्गत यह मर्यादा है कि मैं उसके अतिरिक्त किसी का स्पर्श न करूं, रही बात मैंने रावण का स्पर्श प्राप्त किया था, किन्तु मैं बलात परिस्थिति के कारण उससे जुड़ी, मेरे पास कोई चारा नहीं था, मैं क्या करती, मैं स्वामी के बिना थी, विवश थी, इसलिए बल पूर्वक रावण ने मुझे स्पर्श किया। लंका पहुंचाया, उस समय की बात भिन्न थी, किन्तु मैंने स्वयं किसी पुरुष का स्पर्श नहीं किया। अब राम जी ही यहां आएं, राक्षस राज रावण की हत्या करें, जो उसके लोग हैं, उनको मारें और हमें लेकर जाएं, जैसे रावण लाया था, वैसे ही राम जी मुझे यहां से ले जाएं। राम जी ही मुझे मान-मर्यादा के साथ लेकर जाएं, तब जाकर उसकी बराबरी होगी, आप ले जाएंगे, तो नहीं होगी। राम जी को यहां आने दीजिए। भगवान के ऐश्वर्य से मैं परिचित हूं, भगवान ने खरदूषण और त्रिजटा और उनकी १४,००० सेना को मारकर धूल में मिला दिया, तब उनका कोई सहायक भी नहीं था, उस समय कोई नहीं था जो राम जी का पक्ष लेता, राम जी ने सभी को अपनी तेजस्विता से उत्तर दिया। और संसार में कौन ऐसा है, जो रामजी के साथ लड़ सकता है? कोई राक्षस नहीं है, जो रामजी का युद्ध में सामना कर सके. इसलिए आप जाइए और रामजी को मेरा दुख-दर्द बतलाइए और प्रेरित करके रामजी को यहां लाइए और रामजी राक्षसों का विनाश करें, तभी मैं जाऊंगी।'
जब जानकी जी ने साफ मना कर दिया, तो हनुमान जी के लिए संकट खड़ा हो गया। वह कांपने लगे, अपने को संभालकर प्रस्तुत किया, 'मैं संतुष्ट हूं, आपने जो कहा, आप तो जो कहती हैं, वह अत्यंत ही न्याय और मर्यादा और सिद्धांत की बात होती है, आपने बिलकुल सही कहा।' क्रमशः

सर्वथा अनिन्दिता सीता

भाग - 3
समाधान किया हनुमान जी ने, वे समझ गए कि जानकी जी को मेरे शरीर को देखकर विश्वास नहीं हो रहा है, मेरे प्रभाव को नहीं जानती हैं, मेरे सत्व को नहीं पहचानती हैं। उन्होंने जानकी जी से कहा, 'इच्छा के साथ मेरा शरीर बढ़ता है। यह जो आप देख रही हैं, यह तो छोटे रूप वाला मेरा शरीर है, जो मैंने अपनी इच्छा से धारण कर रखा है।'
वे जानकी जी के पास आ गए, पहले वानरों की तरह पेड़ पर बैठकर ही संवाद कर रहे थे, कूद कर नीचे आ गए और अपने विशाल स्वरूप को, दुष्टों का मर्दन करने वाला जो स्वरूप है, अरि का मर्दन करने वाला जो शरीर है, उसे बढ़ाना हनुमान जी ने शुरू किया, ताकि जानकी जी को विश्वास हो जाए कि मैं उनका भार वहन कर सकता हूं, जो लडऩे आएंगे, उनका मुकाबला कर सकता हूं, राम जी के पास पहुंचा सकता हूं। हनुमान जी ने सुन्दर और अत्यंत बलशाली स्वरूप को प्राप्त किया, जानकी जी के सामने खड़े हो गए, पर्वत के समान ताम्र वस्त्र और महाबली स्वरूप। 
हनुमान जी ने जानकी जी को कहा, 'देखिए मेरा कैसा स्वरूप है, सम्पूर्ण लंका को, जो लोगों से भरपूर है, उसे भी लेकर चलने की  मुझमें क्षमता है। आप मुझ पर संदेह न करें।
जब इस तरह का स्वरूप हनुमान जी ने धारण किया, तो जानकी जी का विश्वास प्रकट हुआ और उन्होंने प्रशंसा की। कहा, 'नहीं, मैं संतुष्ट हूं, यदि आपमें इतना बल नहीं होता, तो आप कैसे यहां आ सकते थे, कोई साधारण बंदर यहां नहीं आ सकता, आपमें अद्भुत बल है, तभी आप समुद्र को पार करके, हर दृष्टि से जो सुरक्षित लंका है, उसमें प्रविष्ट हो गए, मेरे पास आ गए, आपकी गमन शक्ति और आपकी ले जाने की क्षमता को भी मैं जानती हूं, आप मुझे निश्चित रूप से लेकर जा सकते हैं, किन्तु मेरा मन बार-बार इस बात को कहता है कि वायु के वेग से आप मुझे लेकर जाएंगे, तो मैं तो गिर ही जाऊंगी, वेग को सहन नहीं कर पाऊंगी, इसलिए आपके  साथ मेरा जाना उचित नहीं है। और जब गिर जाऊंगी, जो जानवर समुद्र में हैं, वो मुझे खा जाएंगे। आपकी शक्ति की कमी का आरोप नहीं है, किन्तु आपकी इस यात्रा में मैं संभलकर कैसे रह पाऊंगी, इसका मुझे संदेह है, अत: मैं आपके साथ जाने में असमर्थ हूं।
एक और संदेह व्यक्त किया जानकी जी ने, 'आप मुझे लेकर जाओगे, तो लोग समझेंगे कि यह पत्नी वाला है, पहले आप अकेले ही आए थे, ब्रह्मचारी के रूप में, अब मैं जाऊंगी, तो देखने वाले सोचेंगे कि यह निश्चित रूप से पत्नी वाला कोई है, इसलिए मैं आपके साथ जाने में संकोच कर रही हूं। मैं नहीं जा सकती आपके साथ। जब आप चलोगे, तो रावण की आज्ञा से, जो दुष्टराज है, हजारों-हजारों, लाखों-लाखों सैनिक आपका पीछा करेंगे, उनके हाथ में तरह-तरह के आयुध होंगे, आप घिर जाओगे, जो स्त्री वाला है, यह वीर नहीं है, संदेह भी होगा, वे आयुध के साथ होंगे आकाश में और आप बिना आयुध के होंगे, आपके पास अस्त्र-शस्त्र नहीं हैं, आप मुझे पीठ पर लेकर कैसे उनसे लड़ेंगे और मेरी रक्षा कैसे करेंगे.  आपका जब उनसे युद्ध होगा, जो अत्यंत निर्दयी हैं, मैं आपकी पीठ पर से गिर जाऊंगी, तो गिरने के उपरांत मेरी रक्षा कैसे होगी, जो राक्षस हैं, बल वाले हैं, कहीं उन्होंने आपको हरा दिया, तो...  लडऩे में आप हार गए, तो मेरे जीवन को खतरा हो जाएगा। यदि लड़ते हुए मैं गिर गई, तो भी खतरा, गिरने के उपरांत कल्पना कीजिए कि समुद्री जंतुओं ने नहीं खाया, तो राक्षस ले जाएंगे, वे बड़े पापी हैं। वे मुझे लेकर पुन: चले जाएंगे, कैद हो जाऊंगी। लडऩे पर जरूरी नहीं कि आप ही विजयी हों, वो भी विजयी हो सकते हैं। यदि राक्षसों ने मुझे किसी ऐसी जगह पर छिपा दिया, जहां किसी को पता नहीं चल सके कि मैं कहां हूं, तो कठिनाई हो जाएगी, अभी तो मैं अशोक वाटिका में थी, आपको लोगों ने बताया और आप यहां पहुंच गए। यदि मुझे कहीं अत्यंत गुप्त जगह पर छिपा दिया, तो किसी को पता नहीं चल पाएगा, अत: आप मुझे ले जाने के संकल्प को छोड़ दीजिए।'
क्रमशः

सर्वथा अनिन्दिता सीता


भाग - 2
महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है, हनुमान जी ने कहा, 'आज ही मैं आपको राक्षसों से मुक्त कर देता हूं। राक्षसों से मुक्ति पा जाएंगी, दुख सागर को पार कर लेंगी, आप मेरी पीठ पर विराजमान हों, मैं आपको आज ही मुक्त करवा देता हूं। भगवान श्रीराम के पास आपको ले चलता हूं।
जानकी जी को विश्वास दिलाने के लिए उन्होंने कहा, 'मैं सक्षम हूं, आपको पीठ पर बैठाकर सागर को पार कर लूंगा। रावण सहित लंका को भी ढोने की क्षमता है, इतनी मुझमें शक्ति है, इसमें आप संदेह नहीं करें, निराश न हों, यह न सोचें कि मैं कैसे आपको लेकर जाऊंगा। आज ही भगवान तक आपको ले चलूंगा। आप आज ही राघव का दर्शन कर लेंगी, इसमें कोई बाधा नहीं आएगी। आपका  दर्शन प्राप्त करके राम जी का भी उत्साह बढ़ेगा, लक्ष्मण जी का भी उत्साह बढ़ेगा, ये सब अब बड़े निरुत्साही दिखते हैं, यह दुखद अवस्था भी उनकी समाप्त होगी। आपको देखकर वे पुन: उत्साह से भर जाएंगे।
ऐसा जानकी जी को हनुमान जी ने कहा, किन्तु जानकी जी उत्साह नहीं दिखा रही थीं, तो हनुमान जी ने कहा, 'आप मेरी उपेक्षा न करें, मैं जो कह रहा हूं, उससे पूर्ण रूप से सहमत होकर मेरी पीठ पर विराजमान हो जाएं। मेरे निवेदन की उपेक्षा न करें. 
भगवान की दया से जानकी जी सुन रही थीं। उनके मन में था, जब असुर पीछा करेंगे, तो क्या होगा?
हनुमान जी ने उत्तर दिया कि मैं आपको लेकर जब चलूंगा, तो सभी लंका निवासी भी मेरा पीछा नहीं कर सकते, उनमें सामर्थ्य नहीं है कि मुझे पीछे से पकड़ लें, जैसे मैं आया हूं उधर से, कहीं अवरोध नहीं हुआ और जो अवरोध हुआ, तो उसका समाधान मैंने किया। जैसे मैं आया था, वैसे ही चला जाऊंगा, आप इसके लिए कोई संदेह न करें। मैं आपको लेकर वापस चला जाऊंगा।
हनुमान जी की इन बातों को सुनकर जगदंबा जानकी विस्मित होती हैं, अंग-अंग हर्षित भी हैं और विस्मित भी हैं कि ये जोरदार बात कह रहे हैं। जानकी जी ने कहा, 'बहुत दूरी है, लंबा मार्ग है, आप कैसे मुझे लेकर जाने की इच्छा कर रहे हो, मुझे लगता है कि  आप वानर वाला स्वभाव प्रकट कर रहे हो, वानर इसी तरह से अभिव्यक्ति करता है, यह वानर स्वभाव लग रहा है, आपका छोटा शरीर है, बहुत छोटा, आप मुझे कैसे लेकर जाओगे भगवान श्रीराम के पास?'
हनुमान जी के शरीर को देखकर जानकी जी को विश्वास नहीं हो रहा है कि हनुमान उन्हें लेकर जा सकते हैं। विशाल कार्य के लिए अनुरूप शरीर भी तो होना चाहिए। क्रमशः

सर्वथा अनिन्दिता सीता

( जगदगुरु महाराज के प्रवचन से )

वाल्मीकि  रामायण में जानकी  जी के साथ जो संवाद है हनुमान जी का, उसमें लिखा है कि  जानकी जी की खोज के लिए हनुमान जी लंका गए, अशोक  वाटिका में पहुंचे, वहां पहुंचकर जानकी जी का दर्शन किया। रावण भी उस समय जानकी जी के पास आया था, उसने भी अनेक प्रकार का प्रलोभन दिया था, जानकी  जी को पीडि़त करने वाले व्यवहार को संपादित किया, उसको भी हनुमान जी ने देखा, उसके बाद जानकी जी के समक्ष प्रकट हुए, राम कथा को सुनाया, निशानी के रूप में जो अंगूठी लाए थे, वह दिया। तो एक लंबा संवाद जानकी जी के साथ हनुमान जी का है। जानकी जी ने खुशी भी प्रकट की और कष्ट भी जताया, आशंका भी जताई, ऐसा लग रहा था कि जीवन से निराश हो गई थीं, इतना विलंब कैसे हो गया राम जी को मेरे पास आने में, मेरी समस्या का समाधान करने में। कहीं भूल तो नहीं गए, कहीं और कोई अवरोध तो नहीं आ गया। मुझे दो महीने ही रहना है, रावण ने एक साल का समय दिया था, यदि एक साल में स्वीकार नहीं किया, तो राक्षस खा जाएंगे, दस महीने बीत चुके थे, केवल दो महीने बाकी थे। तो अनेक दृष्टि से जानकी जी सशंकित हैं, भयभीत हैं, एक तरह के ऊहापोह से जुड़ी हुई हैं, उनको लग रहा है कि किसी भी तरह से रावण मान नहीं रहा है, विभीषण ने समझाया, विभीषण की कन्या कला ने समझाया रावण को, किन्तु वह मान नहीं रहा है। बहुत निवेदन हुए, जानकी जी को छोड़ दीजिए, राम जी जैसे शक्ति संपन्न की पत्नी को आप ले आए हैं, छोड़ दीजिए, दूसरे लोगों ने भी जो रावण के  हितचिंतक थे, उन्होंने भी जानकी जी को लौटाने के लिए कहा, किन्तु रावण किसी की बात को सुनने के लिए तैयार नहीं था, तो जानकी  जी की बातों से ऐसा लग रहा था कि जानकी जी उत्साहहीन हो गई हैं, कहीं से जीने का इनको सहारा नहीं दिख रहा है।
ऐसी स्थिति में बहुत मार्मिक विचार हनुमान जी ने भी प्रस्तुत किये। कहा, 'यदि आपको लगता है कि राम जी को आने में विलंब हो रहा है, आपको यदि लग रहा हो कि वह समुद्र पार कर पाएंगे या नहीं, कहीं समय व्यतीत नहीं हो जाए, तो मैं आज ही आपको लेकर रामजी के पास चलता हूं।  क्रमशः