भाग - 4
सभी जिज्ञासाओं का हनुमान जी ने उत्तर दिया, 'मुझसे कोई भी लंका का वीर, कितने भी आयुध हों, कभी मुझसे नहीं जीत सकता, कभी मैं आपको न गिरने दूंगा, न मैं गिरूंगा, न आपको कोई ले जा पाएगा, न छिपा पाएगा, मुझे भगवान राम जी की शक्ति प्राप्त है, देवताओं की शक्ति प्राप्त है, मुझे कहीं से भी पराजय का मुंह नहीं देखना है आप निश्चिंत रहिए।'
अनेक प्रकार से हनुमान ने जी आशंकाओं का निवारण किया, 'आप निराशा में ज्यादा दिनों तक नहीं रह पाएंगी, इसलिए आप चलें, अगर आपको कुछ हो गया, तो मेरे स्वामी का क्या होगा?'
इसके उपरांत जानकी जी ने एक और बड़ा संकट खड़ा कर दिया, उन्होंने कहा, 'पति भक्ति को ध्यान में रखकर मेरा जो पति के प्रति जो समर्पण है, पति के लिए जो सम्पूर्ण त्याग है, जो मुझ पतिव्रता का धर्म है, उसको ध्यान में रखकर मैं राम जी के अतिरिक्त किसी पुरुष का स्पर्श नहीं कर सकती। मैं अपनी इच्छा से कभी किसी पर पुरुष का स्पर्श नहीं किया है, न अभी तक किया है, न आगे करना है। मैंने जबसे विवाह हुआ है, राम जी के अतिरिक्त किसी का स्पर्श नहीं किया, इसलिए मैं आपकी पीठ पर स्थित होकर नहीं जा सकती, यह हमारी पति भक्ति है। अपने स्वामी के लिए जो मेरा प्रेम है, जो समर्पण है, जो स्वामी के लिए महान संकल्प है, उसके अंतर्गत यह मर्यादा है कि मैं उसके अतिरिक्त किसी का स्पर्श न करूं, रही बात मैंने रावण का स्पर्श प्राप्त किया था, किन्तु मैं बलात परिस्थिति के कारण उससे जुड़ी, मेरे पास कोई चारा नहीं था, मैं क्या करती, मैं स्वामी के बिना थी, विवश थी, इसलिए बल पूर्वक रावण ने मुझे स्पर्श किया। लंका पहुंचाया, उस समय की बात भिन्न थी, किन्तु मैंने स्वयं किसी पुरुष का स्पर्श नहीं किया। अब राम जी ही यहां आएं, राक्षस राज रावण की हत्या करें, जो उसके लोग हैं, उनको मारें और हमें लेकर जाएं, जैसे रावण लाया था, वैसे ही राम जी मुझे यहां से ले जाएं। राम जी ही मुझे मान-मर्यादा के साथ लेकर जाएं, तब जाकर उसकी बराबरी होगी, आप ले जाएंगे, तो नहीं होगी। राम जी को यहां आने दीजिए। भगवान के ऐश्वर्य से मैं परिचित हूं, भगवान ने खरदूषण और त्रिजटा और उनकी १४,००० सेना को मारकर धूल में मिला दिया, तब उनका कोई सहायक भी नहीं था, उस समय कोई नहीं था जो राम जी का पक्ष लेता, राम जी ने सभी को अपनी तेजस्विता से उत्तर दिया। और संसार में कौन ऐसा है, जो रामजी के साथ लड़ सकता है? कोई राक्षस नहीं है, जो रामजी का युद्ध में सामना कर सके. इसलिए आप जाइए और रामजी को मेरा दुख-दर्द बतलाइए और प्रेरित करके रामजी को यहां लाइए और रामजी राक्षसों का विनाश करें, तभी मैं जाऊंगी।'
जब जानकी जी ने साफ मना कर दिया, तो हनुमान जी के लिए संकट खड़ा हो गया। वह कांपने लगे, अपने को संभालकर प्रस्तुत किया, 'मैं संतुष्ट हूं, आपने जो कहा, आप तो जो कहती हैं, वह अत्यंत ही न्याय और मर्यादा और सिद्धांत की बात होती है, आपने बिलकुल सही कहा।' क्रमशः
सेनाचार्य जी स्वामी अचलानन्द जी के साथ जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज |
सभी जिज्ञासाओं का हनुमान जी ने उत्तर दिया, 'मुझसे कोई भी लंका का वीर, कितने भी आयुध हों, कभी मुझसे नहीं जीत सकता, कभी मैं आपको न गिरने दूंगा, न मैं गिरूंगा, न आपको कोई ले जा पाएगा, न छिपा पाएगा, मुझे भगवान राम जी की शक्ति प्राप्त है, देवताओं की शक्ति प्राप्त है, मुझे कहीं से भी पराजय का मुंह नहीं देखना है आप निश्चिंत रहिए।'
अनेक प्रकार से हनुमान ने जी आशंकाओं का निवारण किया, 'आप निराशा में ज्यादा दिनों तक नहीं रह पाएंगी, इसलिए आप चलें, अगर आपको कुछ हो गया, तो मेरे स्वामी का क्या होगा?'
इसके उपरांत जानकी जी ने एक और बड़ा संकट खड़ा कर दिया, उन्होंने कहा, 'पति भक्ति को ध्यान में रखकर मेरा जो पति के प्रति जो समर्पण है, पति के लिए जो सम्पूर्ण त्याग है, जो मुझ पतिव्रता का धर्म है, उसको ध्यान में रखकर मैं राम जी के अतिरिक्त किसी पुरुष का स्पर्श नहीं कर सकती। मैं अपनी इच्छा से कभी किसी पर पुरुष का स्पर्श नहीं किया है, न अभी तक किया है, न आगे करना है। मैंने जबसे विवाह हुआ है, राम जी के अतिरिक्त किसी का स्पर्श नहीं किया, इसलिए मैं आपकी पीठ पर स्थित होकर नहीं जा सकती, यह हमारी पति भक्ति है। अपने स्वामी के लिए जो मेरा प्रेम है, जो समर्पण है, जो स्वामी के लिए महान संकल्प है, उसके अंतर्गत यह मर्यादा है कि मैं उसके अतिरिक्त किसी का स्पर्श न करूं, रही बात मैंने रावण का स्पर्श प्राप्त किया था, किन्तु मैं बलात परिस्थिति के कारण उससे जुड़ी, मेरे पास कोई चारा नहीं था, मैं क्या करती, मैं स्वामी के बिना थी, विवश थी, इसलिए बल पूर्वक रावण ने मुझे स्पर्श किया। लंका पहुंचाया, उस समय की बात भिन्न थी, किन्तु मैंने स्वयं किसी पुरुष का स्पर्श नहीं किया। अब राम जी ही यहां आएं, राक्षस राज रावण की हत्या करें, जो उसके लोग हैं, उनको मारें और हमें लेकर जाएं, जैसे रावण लाया था, वैसे ही राम जी मुझे यहां से ले जाएं। राम जी ही मुझे मान-मर्यादा के साथ लेकर जाएं, तब जाकर उसकी बराबरी होगी, आप ले जाएंगे, तो नहीं होगी। राम जी को यहां आने दीजिए। भगवान के ऐश्वर्य से मैं परिचित हूं, भगवान ने खरदूषण और त्रिजटा और उनकी १४,००० सेना को मारकर धूल में मिला दिया, तब उनका कोई सहायक भी नहीं था, उस समय कोई नहीं था जो राम जी का पक्ष लेता, राम जी ने सभी को अपनी तेजस्विता से उत्तर दिया। और संसार में कौन ऐसा है, जो रामजी के साथ लड़ सकता है? कोई राक्षस नहीं है, जो रामजी का युद्ध में सामना कर सके. इसलिए आप जाइए और रामजी को मेरा दुख-दर्द बतलाइए और प्रेरित करके रामजी को यहां लाइए और रामजी राक्षसों का विनाश करें, तभी मैं जाऊंगी।'
जब जानकी जी ने साफ मना कर दिया, तो हनुमान जी के लिए संकट खड़ा हो गया। वह कांपने लगे, अपने को संभालकर प्रस्तुत किया, 'मैं संतुष्ट हूं, आपने जो कहा, आप तो जो कहती हैं, वह अत्यंत ही न्याय और मर्यादा और सिद्धांत की बात होती है, आपने बिलकुल सही कहा।' क्रमशः
No comments:
Post a Comment