भाग-दो
बिहार में मेरे एक बड़े भक्त हैं। बात बड़ी जोरदार करते हैं। होटल के मालिक हैं। खूब धार्मिक हैं, शायद ही कोई आदमी हो, जो अपनी आमदनी का चौथा भाग धर्म पर खर्च करता हो। वे करते हैं। चौथा भाग राजनीति में, चौथा भाग परिवार में और चौथा भाग व्यापार में खर्च करते हैं। राजा आदमी हैं। उन्होंने मुझे बुलाया, मैं गया। यज्ञ मंडप में उन्होंने मुझे किसी कार्य से बुलाया, कहा, 'चलिए,' मैं दंड छोडक़र चल पड़ा, तो उन्होंने कहा, 'ओह, दंड क्यों छोड़ रहे हैं, इसी को तो हम नमस्कार करते हैं, बाकी आप रामनरेशाचार्य जी तो पहले भी थे। ये दंड स्वामी जी हैं, राम जी हैं, इनको नमस्कार है, इन्हें साथ ले चलिए।' कितनी बड़ी ज्ञान की बात उन्होंने की। मैंने दंड थाम लिया। तो ऐसा है हमारा संप्रदाय। न कोई परिवारवाद, न क्षेत्रवाद, न जातिवाद, हमने वेदों की नब्ज पकड़ ली है।
जब राम जी और भरत जी निषादराज को, कोल, भिल्लों को गले लगा सकते हैं, तो रामानंदाचार्य जी रविदास को क्यों नहीं अपना सकते?
दुःख क्यों होता है?
दुःख क्यों होता है?