Tuesday, 31 January 2012

इस ब्लॉग का लोकार्पण

सोमवार ३० जनवरी २०१२ को जयपुर के अनेक अखबारों में यह खबर प्रकाशित हुई।
यह क्लिपिंग डेली न्यूज़ जयपुर की है।
जिसमे इस ब्लॉग के लोकार्पण की खबर है.
यह खबर राजस्थान पत्रिका,
दैनिक भास्कर सहित अनेक अखबारों में प्रकाशित हुई है।
इस ब्लॉग के बारे में आप अपने विचार से हमें अवगत करा सकते हैं या अगर आपको कोई सन्देश महाराज तक पहुँचाना हो या महाराज के सन्दर्भ में कोई टिप्पणी करनी हो, तो आप अपनी टिप्पणी भेज सकते हैं। आप अपने विचार मेल भी कर सकते हैं - उत्तम विचारों को इस ब्लॉग में भी स्थान दिया जायेगा.

जगदगुरु के विचार

रविवार २९ जनवरी को राजस्थान पत्रिका
में सन्डे जैकेट पेज पर
जगदगुरु के विचारों का प्रकाशन हुआ
विषय था क्या धर्म अफीम है,
धर्म क्या है?
महाराज की टिप्पणी को
बड़े पैमाने पर देश भर में पढ़ा गया
यह राजस्थान पत्रिका की भी एक उपलब्धि है
वरना आजकल अखबार धर्माचार्यों को जगह देने से बचते हैं.
सबका आभार
जय जय सीताराम

Monday, 30 January 2012

क्या धर्म अफीम है? धर्म क्या है?

भाग दो
हमारे विरोधी भी अच्छी बात कहें, तो हमें कहना चाहिए कि वाह। नकारात्मकता से बचना चाहिए। धर्म का जो असली स्वरूप है, वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। उससे कहीं कोई बच नहीं सकता। अच्छा यह बतलाइए कि प्रत्येक आदमी के जीवन जीने का जो तरीका है, जो परिवार का, जाति का, राष्ट्र का, समुदाय का, लेकिन समर्थ लोग सबके लिए नियमावली बनाते हैं। वे कौन लोग हैं,
जिन्होंने यह नियमावली बनाई थी कि अपनी बेटी की शादी अपने बेटे से नहीं करनी है, अपने गोत्र में नहीं करनी है, क्योंकि हमारा मूल एक है। कुंडली मिलाकर शादी करनी है। समर्थ व सदाचारी लडक़े से शादी करनी है। खान-पान का तालमेल हो, संपत्ति की समानता हो। नियम से ही सबकुछ चलता है। वैसे ही यदि भारतीय संविधान नहीं होता, तो इतने दिनों में जो विकास हुआ है, वह कोई हमारे विकास या आपके घर के संविधान से हुआ है क्या? यही राष्ट्र धर्म है। संविधान में त्रुटियां हो सकती हैं, उसमें संशोधन हुए हैं और भी होने चाहिए। न्यूटन के बनाए हुए अनुसंधान में संशोधन हो रहा है, आइंस्टीन की खोज में संशोधन हो रहा है। जो टेप रिकॉर्डर बहुत बड़ा होता था, वह छोटा हो गया, जो मोबाइल का स्वरूप बहुत भारी होता था, आज छोटा हो गया, इंजन बड़ा होता था, अब छोटा होने लगा है। धीरे-धीरे बुद्धि का विकास होता गया, तो विकास हुआ। उस संविधान का प्रतिपादन यह धर्म है। राष्ट्रधर्म है कि हम भारतीय संविधान का पालन करें। कौन कहता है कि बाईं तरफ से नहीं चलना चाहिए, दाईं तरफ से चलना चाहिए। एक चले बायें से दूसरा चले दायें से, दोनों ही चलें। यही नियम है। जिसे हम सनातन धर्म कहते हैं, वह पूरी दुनिया के लोगों ने अपने जीवन में सकारात्मक विकास के लिए बनाया था। जब कोई नियम नहीं था, तब वेद ने बताया। वेद जो करने के लिए कहता है, वह धर्म है, वेद जो कहता है नहीं करो, वह अधर्म है। वेद कहता है सत्यम् वद्। जब कोई संविधान नहीं था, तब दुनिया का एक ही संविधान था, वेद, जिसने कहा - सत्यम् वद्। आज भी यही कहा जाता है। माना जाता है। अमरीका के लोगों में तमाम तरह की उन्मुक्तियां हैं, लेकिन वे समृद्ध हुए, लेकिन जब अमरीका का एक राष्ट्रपति झूठ में पकड़ा गया, तो पूरे देश ने कहा कि इस राष्ट्रपति को बाहर करो, झूठा आदमी राष्ट्रपति नहीं होगा। सत्यम् वद्। व्याभिचार की भावना सभी के जीवन में होती है। हमारे यहां ब्रम्हचर्य के तमाम भेद बताए गए। अगर कोई व्यक्ति कामुक भावना से किसी औरत को देखता है, तो यह भी व्याभिचार ही है। यदि किसी का स्पर्श करता है, तो यह भी व्याभिचार है। किसी से बहुत मधुर बातें कर रहा है, अगर उसकी भावनाओं में वासनात्मक विचार हैं, तो यह भी व्याभिचार है। सबको कहा गया कि व्याभिचार से बचो। निश्चत रूप से हमारे देश की तुलना में अमरीका में वर्जनाएं कम हैं, हमारे यहां से वहां खुलापन भी ज्यादा है। जब लेविंस्की कांड हुआ, तो लोगों ने कहा क्लिंटन नहीं चाहिए। एक छोटी-सी कर्मचारी राष्ट्रपति की चहेती हो जाए, तो राष्ट्र तो चहेता नहीं हुआ उसका। बड़ा आदमी जिसका उद्देश्य बड़ा है, जिसे पूरा देश ऊँगली पकड़ा चुका है, अगर वह आदमी अगर अपनी छोटी कर्मचारी को उंगली पकड़ा दे, तो वह अक्षम हो जाएगा। व्याभिचार नहीं चलेगा। अमरीका में भी हल्ला मच गया, बहुत मुश्किल से क्लिंटन की गद्दी बची। धर्म का सीधा-सा स्वरूप है, जो हमारे जीवन का विकास करे, जिससे दूसरे को कोई कष्ट नहीं हो, दूसरे को कोई कुरूपता नहीं हो, दूसरे की कोई हानि नहीं हो, दूसरे को कोई पीड़ा नहीं हो, यह जो विकास की पद्धति है, यह जो कर्म का स्वरूप है, वही धर्म है। क्रमशः

क्या धर्म अफीम है? धर्म क्या है?

जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी के प्रवचन
भाग एक
जिन देशों में धर्म को अफीम माना गया, अब तो वहां भी परिवर्तन हुए हैं। गिरिजाघर भी बनने लगे, धीरे-धीरे दुनिया में धर्म के सम्बंध में एक नई लहर उन देशों में चल पड़ी है, जो कभी धर्म को अफीम कहते थे। हालांकि जिस अर्थ में आज के संदर्भ में जिन्होंने धर्म को अफीम कहा, वह एकदम सही अर्थ है, बल्कि उससे दो कदम ज्यादा है। क्योंकि जब धर्म जीवन को सही अर्थों में नहीं दे रहा है, जब देने वाले लोगों की ही स्वयं धर्म में आस्था नहीं है, जब वे भी भोग और अर्थ प्रधान हैं, तब तो धर्म अफीम का बाप है। शराब का धंधा करने वाले नब्बे प्रतिशत नहीं, बल्कि निनानबे प्रतिशत लोग धनवान हैं, लेकिन पीने वाले ९० प्रतिशत तक मर रहे हैं। यही धर्म की भी स्थिति हो गई है। जब धर्म का सही रूप नहीं मिलेगा, तो यही होगा।
लेकिन जो कम्युनिस्टों ने धर्म को अफीम कहा था, तो उन्होंने बिल्कुल भी नहीं समझा था, उन्होंने उल्टा समझ लिया था। जैसे मान लीजिए, दाढ़ी वाला कोई स्मगलर पकड़ा जाए, तो जितने भी दाढ़ी वाले हों, सबको कदापि स्मगलर नहीं माना जा सकता। जो खुफिया विभाग में सक्रिय होगा, वह तो तरह-तरह के वेष बदलेगा, दाढ़ी रखेगा, हटाएगा। कम्युनिस्टों ने धर्म को गलत समझा था, लेकिन अब वे भी सुधार कर रहे हैं।
समय कोई भी रहा हो, धर्म के दोनों ही पक्ष हैं। जब बौद्ध धर्म आया, तो उस समय धर्म में जो नकारात्मकता आ गई थी, उसके नाश के लिए आया, लेकिन सकारात्मक होने के बावजूद अंत में वह भी नकारात्मकता में फंस गया। भोग वाला धर्म हो गया।
आज भी सनातन धर्म में महिलाओं की संख्या नहीं के बराबर है, हमारे संप्रदाय में एक प्रतिशत भी साध्वियां नहीं हैं। मनु ने लिखा है, नर घी के समान हैं, नारी अग्नि के समान, जब दोनों पास आएंगे, तो पिघलना शुरू होगा, तो इसको तो बचाया जाएगा, बताया जाएगा कि यह तो बुरी बात है। यदि मर्यादा नहीं हो, नियम न हो, अंकुश नहीं हो, निगरानी नहीं हो, तो आप सगे भाई-बहन को भी नहीं रोक सकते। मैं कोई आज की बात नहीं कर रहा हूं, पहले से ऐसा ही चल रहा है।
मेरे सामने की बात है, एक दिन एक औरत अपनी बेटी को डांट रही थी, ‘तुम ऐसे लेटी हो,’ मैं तब अपने कमरे से निकल रहा था, मैं झट से कमरे में वापस लौट गया, मां-बेटी के बीच में क्यों पड़ा जाए? बाद में मैंने बेटी से पूछा कि मां क्यों डांट रही थी, तो बेटी ने बताया कि मैं गलत ढंग से पेट के बल लेटी हुई थी। लेटने से भी वृत्ति का अंतर होता है। हम जब पैर पर पैर रखकर सो जाते थे, तो मेरे गुरुजी बोलते थे, ‘तू साधु बनेगा, ऐसे लेटता है? ऐसे साधु को लेटना चाहिए?’ तब जो आदत पड़ी, अब बड़ी आयु हो गई, अब सीधे ही लेटते हैं। पैर पर पैर चढ़ाकर सोना भी अपनी संस्कृति में वर्जित है। अच्छे जीवन के लिए कुछ वर्जनाएं बहुत महत्वपूर्ण होती हैं।
बाद में बौद्ध लोग भी बिगड़े। जैसे दयानंद सरस्वती की जरूरत थी, उन्होंने सनातनियों में आ चुकी बुराइयों का खंडन किया, उन्होंने बड़ा काम किया, लेकिन वे अपने पोथा-पोथी को शिष्यों व लोगों के सामने रख देते कि जब फिर जरूरत पड़ेगी, तो इसका उपयोग करना, लेकिन उनका एक पंथ ही बन गया। कबीर ने भी मूर्ति पूजा का विरोध किया, तब समाज में जो-जो बुराइयां थीं, उनका विरोध किया, लेकिन वह भी पंथ हो गया, यह गलत हो गया।
जैसे राजनीति में विपक्ष को आदत हो गई है, आलोचना की, निंदा की। जब नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री थे, मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने, आर्थिक उदारता की नीति आई, विरोध में भाजपाइयों से जुड़ा स्वदेशी जागरण मंच खड़ा हुआ, लेकिन जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री हुए, तो वही आर्थिक नीतियां आगे चलीं। मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूं, लेकिन यह बता सकता हूं कि उदारीकरण से धन की आमद बढ़ी। बहुत विकास हुआ। मुझे यह समझ में नहीं आ रहा कि विदेशी कंपनियां आएंगी, तो राज करेंगी, हम गुलाम हो जाएंगे। भाजपा ने ऐसा कहा, लेकिन जब वह सत्ता में आई, तो चुप हो गई। विपक्ष का मतलब निंदा करना हो गया है, सत्ता पक्ष अच्छा करता है, तो ताली बजाकर कहना चाहिए कि अच्छा है। वाह वाह।
क्रमशः

Sunday, 29 January 2012

ज्योतिष पर शोध हो

ज्योतिष में शोधपरक कार्य की जरूरत : रामनरेशाचार्य

Updated on: Sat, 21 Jan 2012 09:16 PM (IST)

जागरण संवाददाता, इलाहाबाद : बिना किसी औषधि के ज्योतिष के माध्यम से जटिल रोगों का किये जा रहे उपचार से सारा विश्व आश्चर्यचकित है। आज ज्योतिष के ज्ञान को सीमित दायरे से हटाकर शोधपरक करने की जरूरत है, ताकि उससे पूरे विश्व की समस्याओं का समाधान हो सके। यह विचार रामानन्दाचार्य जगद्गुरु रामनरेशाचार्य ने शनिवार को भारतीय विद्या भवन में आई कास द्वारा संचालित ज्योतिष कक्षाओं के सत्रारम्भ एवं उत्तीर्ण छात्रों के लिए आयोजित दीक्षांत समारोह में बतौर मुख्य अतिथि व्यक्त किए।

दैनिक जागरण से साभार

जय जय सीता राम

जयपुर में महाराज की कुछ अनुपम मुद्राएँ





एक अनन्य शिष्य श्री गजानंद अग्रवाल जी के निवास रामालय, पवन पथ, हनुमान नगर में प्रवचन करते हुए जगदगुरु , २९ जनवरी २०१२