जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी के प्रवचन
भाग एक
जिन देशों में धर्म को अफीम माना गया, अब तो वहां भी परिवर्तन हुए हैं। गिरिजाघर भी बनने लगे, धीरे-धीरे दुनिया में धर्म के सम्बंध में एक नई लहर उन देशों में चल पड़ी है, जो कभी धर्म को अफीम कहते थे। हालांकि जिस अर्थ में आज के संदर्भ में जिन्होंने धर्म को अफीम कहा, वह एकदम सही अर्थ है, बल्कि उससे दो कदम ज्यादा है। क्योंकि जब धर्म जीवन को सही अर्थों में नहीं दे रहा है, जब देने वाले लोगों की ही स्वयं धर्म में आस्था नहीं है, जब वे भी भोग और अर्थ प्रधान हैं, तब तो धर्म अफीम का बाप है। शराब का धंधा करने वाले नब्बे प्रतिशत नहीं, बल्कि निनानबे प्रतिशत लोग धनवान हैं, लेकिन पीने वाले ९० प्रतिशत तक मर रहे हैं। यही धर्म की भी स्थिति हो गई है। जब धर्म का सही रूप नहीं मिलेगा, तो यही होगा।
लेकिन जो कम्युनिस्टों ने धर्म को अफीम कहा था, तो उन्होंने बिल्कुल भी नहीं समझा था, उन्होंने उल्टा समझ लिया था। जैसे मान लीजिए, दाढ़ी वाला कोई स्मगलर पकड़ा जाए, तो जितने भी दाढ़ी वाले हों, सबको कदापि स्मगलर नहीं माना जा सकता। जो खुफिया विभाग में सक्रिय होगा, वह तो तरह-तरह के वेष बदलेगा, दाढ़ी रखेगा, हटाएगा। कम्युनिस्टों ने धर्म को गलत समझा था, लेकिन अब वे भी सुधार कर रहे हैं।
समय कोई भी रहा हो, धर्म के दोनों ही पक्ष हैं। जब बौद्ध धर्म आया, तो उस समय धर्म में जो नकारात्मकता आ गई थी, उसके नाश के लिए आया, लेकिन सकारात्मक होने के बावजूद अंत में वह भी नकारात्मकता में फंस गया। भोग वाला धर्म हो गया।
आज भी सनातन धर्म में महिलाओं की संख्या नहीं के बराबर है, हमारे संप्रदाय में एक प्रतिशत भी साध्वियां नहीं हैं। मनु ने लिखा है, नर घी के समान हैं, नारी अग्नि के समान, जब दोनों पास आएंगे, तो पिघलना शुरू होगा, तो इसको तो बचाया जाएगा, बताया जाएगा कि यह तो बुरी बात है। यदि मर्यादा नहीं हो, नियम न हो, अंकुश नहीं हो, निगरानी नहीं हो, तो आप सगे भाई-बहन को भी नहीं रोक सकते। मैं कोई आज की बात नहीं कर रहा हूं, पहले से ऐसा ही चल रहा है।
मेरे सामने की बात है, एक दिन एक औरत अपनी बेटी को डांट रही थी, ‘तुम ऐसे लेटी हो,’ मैं तब अपने कमरे से निकल रहा था, मैं झट से कमरे में वापस लौट गया, मां-बेटी के बीच में क्यों पड़ा जाए? बाद में मैंने बेटी से पूछा कि मां क्यों डांट रही थी, तो बेटी ने बताया कि मैं गलत ढंग से पेट के बल लेटी हुई थी। लेटने से भी वृत्ति का अंतर होता है। हम जब पैर पर पैर रखकर सो जाते थे, तो मेरे गुरुजी बोलते थे, ‘तू साधु बनेगा, ऐसे लेटता है? ऐसे साधु को लेटना चाहिए?’ तब जो आदत पड़ी, अब बड़ी आयु हो गई, अब सीधे ही लेटते हैं। पैर पर पैर चढ़ाकर सोना भी अपनी संस्कृति में वर्जित है। अच्छे जीवन के लिए कुछ वर्जनाएं बहुत महत्वपूर्ण होती हैं।
बाद में बौद्ध लोग भी बिगड़े। जैसे दयानंद सरस्वती की जरूरत थी, उन्होंने सनातनियों में आ चुकी बुराइयों का खंडन किया, उन्होंने बड़ा काम किया, लेकिन वे अपने पोथा-पोथी को शिष्यों व लोगों के सामने रख देते कि जब फिर जरूरत पड़ेगी, तो इसका उपयोग करना, लेकिन उनका एक पंथ ही बन गया। कबीर ने भी मूर्ति पूजा का विरोध किया, तब समाज में जो-जो बुराइयां थीं, उनका विरोध किया, लेकिन वह भी पंथ हो गया, यह गलत हो गया।
जैसे राजनीति में विपक्ष को आदत हो गई है, आलोचना की, निंदा की। जब नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री थे, मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने, आर्थिक उदारता की नीति आई, विरोध में भाजपाइयों से जुड़ा स्वदेशी जागरण मंच खड़ा हुआ, लेकिन जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री हुए, तो वही आर्थिक नीतियां आगे चलीं। मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूं, लेकिन यह बता सकता हूं कि उदारीकरण से धन की आमद बढ़ी। बहुत विकास हुआ। मुझे यह समझ में नहीं आ रहा कि विदेशी कंपनियां आएंगी, तो राज करेंगी, हम गुलाम हो जाएंगे। भाजपा ने ऐसा कहा, लेकिन जब वह सत्ता में आई, तो चुप हो गई। विपक्ष का मतलब निंदा करना हो गया है, सत्ता पक्ष अच्छा करता है, तो ताली बजाकर कहना चाहिए कि अच्छा है। वाह वाह।
क्रमशः
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