भाग - आठ
महर्षि वेदव्यास जी का एक श्लोक सुनाता है :-
ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते।।
अर्थात ‘मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर पुकार-पुकारकर कह रहा हूं, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्म से मोक्ष तो सिद्ध होता ही है, अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं, तो भी लोग उसका सेवन क्यों नहीं करते?’
कहा लोगों ने कि ये क्या कह रहे हैं व्यास जी? धर्म में केवल मरने से मोक्ष मिलता है, ये नहीं है। धर्म तो अर्थ भी देता है और भोग भी देता है। जिसके पास धर्म नहीं होगा, उसकी किडनी या कुछ और फेल हो जाएगा, संभवत: वह समृद्ध तो रहेगा, लेकिन पत्नी का सुख या भोजन का सुख या नए कपड़े का सुख या कोई दूसरा सुख नहीं मिलेगा। दुनिया में तमाम लोग हैं, जिनके पास अर्थ तो है, लेकिन भोग नहीं है और जिनके पास भोग है, तो अर्थ नहीं है। पैसा नहीं ही नहीं है, तो क्या होगा? धर्म उसे भी कहते हैं, जो अर्थ भी देता है, भोग भी देता है, अच्छा जीवन भी देता है। पद और यश भी देता है और अंत में दिव्य जीवन भी देता है, जिसको मोक्ष कहते हैं।
महर्षि कणाद ने कहा कि धर्म वह है, जो अभ्युदय मतलब लौकिकता को देता है, सकारात्मक नैतिक उन्नति को देता है। सुन्दरता तो सुन्दरता है, लेकिन वह सुन्दरता नहीं है, जो सिनेमा में काम आए। सुन्दर होकर यदि वेश्यावृति ही कोई औरत करती है, तो यह ठीक नहीं है। जो अपने पति का साथ दे, जहां दिया माता-पिता ने, उसको मर्यादा में रहकर निभाए। मर्यादा में ही सुख है। सुन्दरता चाहिए, तो शालीनता भी चाहिए कि जहां वह जाए, सबको गदगद कर दे। कितने लोगों को कोई सुन्दरी पति बना सकती है, दुनिया की किसी सुन्दरी ने दुनिया के सभी लोगों को कभी भी वासनात्मक सुख नहीं दिया है और न दे सकती है। सुन्दरता होनी चाहिए, किन्तु वह सकारात्मक होनी चाहिए। बल भी होना चाहिए। सैनिक बलवान होना चाहिए, बल का अपना क्षेत्र है, मजदूरों को भी भगवान बल दें। बल नहीं होता, तो मैं गरज-गरज कर बोलता क्या? बल है, तभी तो बोल रहा हूं, बल नहीं होगा, तो जो बोलूंगा, वह किसी को सुनाई ही नहीं पड़ेगा। लेखनी में भी बल होना चाहिए, तभी तो संपादन, लेखन गरजेगा। बल हो, सुन्दरता हो, लेकिन उसका सकारात्मक उपयोग हो, यही धर्म है।
पैसा धर्म से भी आता है और अधर्म से भी आता है। धर्म से जो पैसा आएगा, वह सकारात्मक विकास करेगा और भोग का सही संसाधन करवाएगा और अधर्म से जो पैसा आएगा, वह आदमी को गलत बनाएगा, दूसरी पत्नी, मांस मदिरा, अमुक-गाड़ी, हों हों, शोर-शराबा। नई-नई गाड़ी खरीद रहे हैं, नया-नया बंगला बना रहे हैं। वश चले, तो रोज बंगला बने, शरीर तो बना ही नहीं रहे हो रोज। पैसा हो जाता है, तो आदमी को लगने लगता है कि यह मकान बहुत छोटा है, अरे मरो इसी में भले आदमी, बच्चों को कहो कि आप पंद्रह एकड़ में बनाना। अधर्म हुआ, तो बहुतों को देखो, जो भगवान ने मकान दिया था, वही टूट रहा है।
इसलिए धर्म जीवन के विकास का सही साधन है।
क्रमश:
धर्म के ज्ञान से ही व्यक्ति को जीने की कला आती है.
Friday, 30 March 2012
Monday, 26 March 2012
धर्म क्या है?
भाग - सात
लोगों को आज तक समझ में नहीं आया कि सुख का कारण क्या है? यदि सुख का कारण पत्नी है, तो जब से सृष्टि बनी है, ऐसी अनेक पत्नियां भी हुई हैं, जिन्होंने अपने पतियों को ही मार डाला, प्रेमियों के साथ मिलकर, धन के लिए या किसी अन्य कारण से। दूसरी बात, अगर जांच की जाए, तो सौ में से पांच लोग भी नहीं होंगे, जो पत्नी से सुख प्राप्त कर रहे होंगे। कहीं वैचारिक भिन्नता है, तो कहीं किसी और प्रकार की भिन्नताएं हैं। ऐसे में कैसे सुख कारण है पत्नी? दुनिया का कोई भी चिंतक यह निश्चित नहीं कर सकता है कि सुख का कारण पत्नी है, क्योंकि उससे दुख भी हो रहा है, उससे तमाम कठिनाइयां भी हो रही हैं, इसलिए हमारे चिंतकों ने बताया कि एक ही वस्तु तीन का काम करती है : सुख भी देती है, दुख भी देती है और मोह भी पैदा करती है।
सांख्य दर्शन का उदाहरण है, एक आदमी ने दूसरी शादी की, क्योंकि कोई पुत्र नहीं हो रहा था। दूसरी शादी से जो पत्नी आई, वह सुन्दर थी। वही सुन्दर स्त्री अपने पति को सुख देती है, अपनी सौत या पहली पत्नी को दुख देती है और जब घर से बाहर निकलती है, तो दूसरे लोगों को मोहग्रस्त करती है। एक से ही तीन भाव बने। पति को सुख, सौत को दुख और राहगीरों को मोह। हर पदार्थ के ये तीन गुण हैं। संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो केवल सुख ही देता हो।
इस कपड़े की बात करें, तो कपड़े में अटक कर ही कई लोग गिर जाते हैं, वस्त्र में उलझकर कइयों के पैर टूट गए। जो वाहन यात्रा सुख देते हैं, उन्हीं से कुचलकर हजारों लोग भी मरते हैं। भोजन से भी लोग मरते हैं, पेट खराब हो जाता है। कपड़ा हो या वाहन या भोजन या कुछ और हर चीज से सुख भी होता है, दुख भी होता है और मोह भी।
अब प्रश्न यह कि कितना सुख होता है या कितना दुख होता है। जो वस्तु जितनी मात्रा में धर्म से बनी है, उतनी मात्रा में ही वह सुख देती है, जितनी मात्रा में उसमें अधर्म लगा है, उतना ही वह दुख देती है। दुख का कारण पाप है और सुख का कारण पुण्य है। आज हमें आप सुख दे रहे हैं, तो हमारा पुण्य जितना आपके साथ लगा है, उतनी ही मात्रा में आप हमें सुख दे रहे हैं। या हमारा जितना पुण्य लगा है, उतना हमें सुख मिल रहा है।
वही पुत्र सुख का कारण बनता है, वही पुत्र बीमार पड़ जाता है, तो दुख होता है और मर जाता है, तो महान कष्ट होता है। कई पुत्र जब तक शादी नहीं करते, माता-पिता को मानते हैं और शादी के बाद माता-पिता के दुख का कारण बन जाते हैं। वही आदमी जब माला पहनाता है, तो सुख देता है और जब वही मुर्दाबाद-मुर्दाबाद करता है, तो दुख का कारण बन जाता है।
सृष्टि में ऐसे ही होता है। हर परिस्थिति में सुख को बनाए रखना वेदांत का काम है। सुख का मूल कारण भारतीय चिंतन के अनुसार धर्म है, दिखाई नहीं पड़ता है, धर्म का एक नाम अदृश्य भी है, जो दिखे नहीं। धर्म भी और अधर्म भी। जैसे बुखार किसी को दिखता नहीं है, थर्मामीटर से अनुमान होता है कि बुखार है, शरीर गरम है, तो बुखार का अनुमान होता है, बुखार प्रत्यक्ष नहीं होता है। आप को लग रहा है, लेकिन वास्तव में आकाश आपको दिख नहीं रहा है, आपकी दृष्टि लौट आ रही है। आकाश तो अनंत है। तो धर्म ही सुख का मूल कारण है।
क्रमश:
लोगों को आज तक समझ में नहीं आया कि सुख का कारण क्या है? यदि सुख का कारण पत्नी है, तो जब से सृष्टि बनी है, ऐसी अनेक पत्नियां भी हुई हैं, जिन्होंने अपने पतियों को ही मार डाला, प्रेमियों के साथ मिलकर, धन के लिए या किसी अन्य कारण से। दूसरी बात, अगर जांच की जाए, तो सौ में से पांच लोग भी नहीं होंगे, जो पत्नी से सुख प्राप्त कर रहे होंगे। कहीं वैचारिक भिन्नता है, तो कहीं किसी और प्रकार की भिन्नताएं हैं। ऐसे में कैसे सुख कारण है पत्नी? दुनिया का कोई भी चिंतक यह निश्चित नहीं कर सकता है कि सुख का कारण पत्नी है, क्योंकि उससे दुख भी हो रहा है, उससे तमाम कठिनाइयां भी हो रही हैं, इसलिए हमारे चिंतकों ने बताया कि एक ही वस्तु तीन का काम करती है : सुख भी देती है, दुख भी देती है और मोह भी पैदा करती है।
सांख्य दर्शन का उदाहरण है, एक आदमी ने दूसरी शादी की, क्योंकि कोई पुत्र नहीं हो रहा था। दूसरी शादी से जो पत्नी आई, वह सुन्दर थी। वही सुन्दर स्त्री अपने पति को सुख देती है, अपनी सौत या पहली पत्नी को दुख देती है और जब घर से बाहर निकलती है, तो दूसरे लोगों को मोहग्रस्त करती है। एक से ही तीन भाव बने। पति को सुख, सौत को दुख और राहगीरों को मोह। हर पदार्थ के ये तीन गुण हैं। संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो केवल सुख ही देता हो।
इस कपड़े की बात करें, तो कपड़े में अटक कर ही कई लोग गिर जाते हैं, वस्त्र में उलझकर कइयों के पैर टूट गए। जो वाहन यात्रा सुख देते हैं, उन्हीं से कुचलकर हजारों लोग भी मरते हैं। भोजन से भी लोग मरते हैं, पेट खराब हो जाता है। कपड़ा हो या वाहन या भोजन या कुछ और हर चीज से सुख भी होता है, दुख भी होता है और मोह भी।
अब प्रश्न यह कि कितना सुख होता है या कितना दुख होता है। जो वस्तु जितनी मात्रा में धर्म से बनी है, उतनी मात्रा में ही वह सुख देती है, जितनी मात्रा में उसमें अधर्म लगा है, उतना ही वह दुख देती है। दुख का कारण पाप है और सुख का कारण पुण्य है। आज हमें आप सुख दे रहे हैं, तो हमारा पुण्य जितना आपके साथ लगा है, उतनी ही मात्रा में आप हमें सुख दे रहे हैं। या हमारा जितना पुण्य लगा है, उतना हमें सुख मिल रहा है।
वही पुत्र सुख का कारण बनता है, वही पुत्र बीमार पड़ जाता है, तो दुख होता है और मर जाता है, तो महान कष्ट होता है। कई पुत्र जब तक शादी नहीं करते, माता-पिता को मानते हैं और शादी के बाद माता-पिता के दुख का कारण बन जाते हैं। वही आदमी जब माला पहनाता है, तो सुख देता है और जब वही मुर्दाबाद-मुर्दाबाद करता है, तो दुख का कारण बन जाता है।
सृष्टि में ऐसे ही होता है। हर परिस्थिति में सुख को बनाए रखना वेदांत का काम है। सुख का मूल कारण भारतीय चिंतन के अनुसार धर्म है, दिखाई नहीं पड़ता है, धर्म का एक नाम अदृश्य भी है, जो दिखे नहीं। धर्म भी और अधर्म भी। जैसे बुखार किसी को दिखता नहीं है, थर्मामीटर से अनुमान होता है कि बुखार है, शरीर गरम है, तो बुखार का अनुमान होता है, बुखार प्रत्यक्ष नहीं होता है। आप को लग रहा है, लेकिन वास्तव में आकाश आपको दिख नहीं रहा है, आपकी दृष्टि लौट आ रही है। आकाश तो अनंत है। तो धर्म ही सुख का मूल कारण है।
क्रमश:
धर्म क्या है?
भाग - छह
किसको पैर फैलाकर बैठने में अच्छा नहीं लगता। मैं अभी अध्यापक की मुद्रा में हूं। संवाद कर रहा हूं, किन्तु मैं भी अपने कमरे में होता, तो कम्बल में पैर लम्बा करके आराम से हाथ भी खूब फैला लेता। किन्तु उस अवस्था में प्रेरणा नहीं दी जा सकती। प्रेरक की भी एक अवस्था है, अभी जो मेरी अवस्था है, यह भी कोई बहुत अच्छी नहीं है, यह आचार्य परंपरा के अनुरूप व्यवस्था नहीं है। मुद्रा तो जमीन पर बैठकर, गद्दी पर बैठकर बात करने वाली होनी चाहिए। इसमें मैंने संशोधन किया है, लेकिन हमेशा महात्मा को चौकी पर बैठना चाहिए, जमीन पर बैठे, तभी आचार्य धर्म है। वस्तुत: जमीन पर जो आदमी होता है, वही बड़ा आदमी होता है। आप जमीन पर नहीं हैं, तो गिरेंगे, तो पैर टूट जाएंगे। जमीनी आदमी होना चाहिए। महात्मा को जमीन पर बैठना चाहिए। जब से महात्मा गद्दी धारी हो गए हैं, बड़ी गड़बड़ हो गई है। उनके बैठने के लिए अब मोटी-मोटी गद्दियां होने लगी हैं। आपको आश्चर्य होगा, दुनिया में सबसे शक्तिशाली अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की जैसी गद्दी नहीं होगी, वैसी गद्दी संतों की होने लगी है। मेरे जैसे लोगों के सिर पर तो कंघी तक नहीं लगती। किन्तु आज के गद्दीधारी महंत हमें भी बताते हैं कि एक ऐसी गद्दी आप भी बनवा लीजिए। इच्छा होती है कि इनको पकड़ कर पीटूं। बाद में रामानंदाचार्य के पद का देखा जाएगा। लफंगे हमें सलाह दे देते हैं। लफंगे भी संत की गद्दी पर बैठ गए हैं। एक ऐसे ही संत ने खास पंखा लगवाया, मैंने दूर से देखा, पूछा, ‘कितने का पंखा लगवाया है?’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘यह ज्यादा का नहीं है, बस २५ हजार का है। आप भी लगवा लीजिए।’ हमने देखा ही नहीं कि कैसा पंखा है, क्या पंखा है। उनका नाम नहीं बतलाऊंगा।
हम जहां पढ़े थे, वहां एक व्यक्ति थे, बाद में उन्होंने विवाह कर लिया और फुलपैंट पहनकर वेदांत पढ़ाते हैं। जब उन्होंने मुझे पहली बार श्रीमठ में रामानंदाचार्य की वेशभूषा में देखा, तो रोने लगे, उन्होंने कहा, ‘आप तो छात्रावस्था में इससे अच्छे थे।’ श्रीमठ में जब मैं रामानंदाचार्य जी के गद्दी पर आया, तब विरासत में मिली जिस चौकी पर मुझे बैठाया गया, उसकी तीन पटरियां ऊंची-नीची थीं। जिस पर चढक़र मजदूर लोग दीवारों पर प्लास्टर इत्यादि करते हैं, वैसे लकड़ी के फंटे ही जोडक़र मेरी चौकी बना दी गई थी, उसमें तिलचट्टे बहुत थे। उन्होंने मुझसे कहा, ‘इससे बेहतर स्थिति में तो आप पहले थे।’ वह मेरे विद्यार्थी भी रहे थे, एक साथ हम लोग पढ़े भी थे। उन्होंने कहा, ‘इसी को रामानंदाचार्य कहते हैं क्या? क्या यह चौकी नहीं बदल सकती है?’ मैंने विनम्रता से कहा, ‘जिस दिन मैं श्रीमठ गया, मैं पहले दिन ही चौकी बदलवा सकता था, इतना मेरे पास था, जेब में नहीं था, लेकिन प्रभाव था, लेकिन मैंने कभी नहीं कहा कि चौकी बदली जाए। बदलने को जरूरी काफी कुछ था, लेकिन बदलने के लिए यदि मुझे चौकी ही सबसे पहले दिखेगी, तो राम राज्य कैसे आएगा?
आजकल तो बड़े लोग हर साल अपना सोफा, कुर्सी-टेबल, सजावट बदल देते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए, सादगी का जीवन होना चाहिए। रामराज्य का जीवन होना चाहिए। जरा सोचिए तो कि राम जी ने जंगल में कैसे बिताया होगा समय। ईश्वर की बात छोडि़ए, अयोध्या के महल में तो सब कुछ था, लेकिन जंगल में रहकर एक दिन उफ् तक नहीं किया।
वृंदावन में एक महात्मा से मैं मिला था। उन्हें देखकर बहुत अच्छा लगा, तो मैंने उनसे पूछा, ‘आप इतने अच्छे साधु हो गए, इसका रहस्य क्या है?’
उन्होंने कहा, ‘मैं तो आपको अपना रोना कहने आया हूं, आप मेरा ही इंटरव्यू मत लीजिए। मुझे एक बात का सदा ध्यान रहा कि मैं साधु बनने आया हूं, और इसी का आज यह फल है।’
मैं भी बनारस साधु बनने नहीं आया था, मैं तो विद्वान बनने आया था, अविवाहित रहने आया था। मुझे साधु तो नहीं बनना था, लेकिन जब रामानंदाचार्य हो गया, तो फिर कोशिश की कि थोड़े-बहुत साधु हम भी हो जाएं, साधुओं जैसे दिखने लगें। इस कोशिश से मुझे लाभ हुआ।
ध्यान दीजिएगा, केवल यह याद रहे कि मैं साधु हूं, तो आदमी साधु हो जाएगा। दिखावा क्या करना, गद्दी का क्या करना? जब शरीर का मांस ही सूख जाएगा, तो बुढ़ापे में तो ये गद्दा ही गडऩे लगेगा। चेहरा सिकुड़ जाएगा, दांत टूट जाएंगे, तो ये गद्दा-पंखा काम करेगा क्याï? कदापि नहीं करेगा।
उन मूल्यों को हम धर्म कहते हैं, जो शाश्वत जीवन देते हैं, जो बहुत सुख देते हैं। क्रमश:
किसको पैर फैलाकर बैठने में अच्छा नहीं लगता। मैं अभी अध्यापक की मुद्रा में हूं। संवाद कर रहा हूं, किन्तु मैं भी अपने कमरे में होता, तो कम्बल में पैर लम्बा करके आराम से हाथ भी खूब फैला लेता। किन्तु उस अवस्था में प्रेरणा नहीं दी जा सकती। प्रेरक की भी एक अवस्था है, अभी जो मेरी अवस्था है, यह भी कोई बहुत अच्छी नहीं है, यह आचार्य परंपरा के अनुरूप व्यवस्था नहीं है। मुद्रा तो जमीन पर बैठकर, गद्दी पर बैठकर बात करने वाली होनी चाहिए। इसमें मैंने संशोधन किया है, लेकिन हमेशा महात्मा को चौकी पर बैठना चाहिए, जमीन पर बैठे, तभी आचार्य धर्म है। वस्तुत: जमीन पर जो आदमी होता है, वही बड़ा आदमी होता है। आप जमीन पर नहीं हैं, तो गिरेंगे, तो पैर टूट जाएंगे। जमीनी आदमी होना चाहिए। महात्मा को जमीन पर बैठना चाहिए। जब से महात्मा गद्दी धारी हो गए हैं, बड़ी गड़बड़ हो गई है। उनके बैठने के लिए अब मोटी-मोटी गद्दियां होने लगी हैं। आपको आश्चर्य होगा, दुनिया में सबसे शक्तिशाली अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की जैसी गद्दी नहीं होगी, वैसी गद्दी संतों की होने लगी है। मेरे जैसे लोगों के सिर पर तो कंघी तक नहीं लगती। किन्तु आज के गद्दीधारी महंत हमें भी बताते हैं कि एक ऐसी गद्दी आप भी बनवा लीजिए। इच्छा होती है कि इनको पकड़ कर पीटूं। बाद में रामानंदाचार्य के पद का देखा जाएगा। लफंगे हमें सलाह दे देते हैं। लफंगे भी संत की गद्दी पर बैठ गए हैं। एक ऐसे ही संत ने खास पंखा लगवाया, मैंने दूर से देखा, पूछा, ‘कितने का पंखा लगवाया है?’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘यह ज्यादा का नहीं है, बस २५ हजार का है। आप भी लगवा लीजिए।’ हमने देखा ही नहीं कि कैसा पंखा है, क्या पंखा है। उनका नाम नहीं बतलाऊंगा।
हम जहां पढ़े थे, वहां एक व्यक्ति थे, बाद में उन्होंने विवाह कर लिया और फुलपैंट पहनकर वेदांत पढ़ाते हैं। जब उन्होंने मुझे पहली बार श्रीमठ में रामानंदाचार्य की वेशभूषा में देखा, तो रोने लगे, उन्होंने कहा, ‘आप तो छात्रावस्था में इससे अच्छे थे।’ श्रीमठ में जब मैं रामानंदाचार्य जी के गद्दी पर आया, तब विरासत में मिली जिस चौकी पर मुझे बैठाया गया, उसकी तीन पटरियां ऊंची-नीची थीं। जिस पर चढक़र मजदूर लोग दीवारों पर प्लास्टर इत्यादि करते हैं, वैसे लकड़ी के फंटे ही जोडक़र मेरी चौकी बना दी गई थी, उसमें तिलचट्टे बहुत थे। उन्होंने मुझसे कहा, ‘इससे बेहतर स्थिति में तो आप पहले थे।’ वह मेरे विद्यार्थी भी रहे थे, एक साथ हम लोग पढ़े भी थे। उन्होंने कहा, ‘इसी को रामानंदाचार्य कहते हैं क्या? क्या यह चौकी नहीं बदल सकती है?’ मैंने विनम्रता से कहा, ‘जिस दिन मैं श्रीमठ गया, मैं पहले दिन ही चौकी बदलवा सकता था, इतना मेरे पास था, जेब में नहीं था, लेकिन प्रभाव था, लेकिन मैंने कभी नहीं कहा कि चौकी बदली जाए। बदलने को जरूरी काफी कुछ था, लेकिन बदलने के लिए यदि मुझे चौकी ही सबसे पहले दिखेगी, तो राम राज्य कैसे आएगा?
आजकल तो बड़े लोग हर साल अपना सोफा, कुर्सी-टेबल, सजावट बदल देते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए, सादगी का जीवन होना चाहिए। रामराज्य का जीवन होना चाहिए। जरा सोचिए तो कि राम जी ने जंगल में कैसे बिताया होगा समय। ईश्वर की बात छोडि़ए, अयोध्या के महल में तो सब कुछ था, लेकिन जंगल में रहकर एक दिन उफ् तक नहीं किया।
वृंदावन में एक महात्मा से मैं मिला था। उन्हें देखकर बहुत अच्छा लगा, तो मैंने उनसे पूछा, ‘आप इतने अच्छे साधु हो गए, इसका रहस्य क्या है?’
उन्होंने कहा, ‘मैं तो आपको अपना रोना कहने आया हूं, आप मेरा ही इंटरव्यू मत लीजिए। मुझे एक बात का सदा ध्यान रहा कि मैं साधु बनने आया हूं, और इसी का आज यह फल है।’
मैं भी बनारस साधु बनने नहीं आया था, मैं तो विद्वान बनने आया था, अविवाहित रहने आया था। मुझे साधु तो नहीं बनना था, लेकिन जब रामानंदाचार्य हो गया, तो फिर कोशिश की कि थोड़े-बहुत साधु हम भी हो जाएं, साधुओं जैसे दिखने लगें। इस कोशिश से मुझे लाभ हुआ।
ध्यान दीजिएगा, केवल यह याद रहे कि मैं साधु हूं, तो आदमी साधु हो जाएगा। दिखावा क्या करना, गद्दी का क्या करना? जब शरीर का मांस ही सूख जाएगा, तो बुढ़ापे में तो ये गद्दा ही गडऩे लगेगा। चेहरा सिकुड़ जाएगा, दांत टूट जाएंगे, तो ये गद्दा-पंखा काम करेगा क्याï? कदापि नहीं करेगा।
उन मूल्यों को हम धर्म कहते हैं, जो शाश्वत जीवन देते हैं, जो बहुत सुख देते हैं। क्रमश:
Wednesday, 21 March 2012
धर्म क्या है?
भाग - पांच
शिष्य के लिए गुरु अपना जीवन खपा देता है। एक बच्चे को जन्म देने और उसे बड़ा करने में मां का पूरा यौवन लग जाता है। एक गुरु अपने शिष्य को बड़ा बनाने में अपने यौवन जीवन को खपा देता है। पूरा का पूरा जीवन लग जाता है, तब एक शिष्य तैयार होता है, एक वैज्ञानिक बनता है या कुछ और बनता है। बहुत मेहनत करनी पड़ती है विद्वान बनने और बनाने के लिए। गुरु को अवश्य लौटाना चाहिए।
देवता जो हमें दे रहे हैं, उसी को लौटाने के लिए हम यज्ञ करते हैं। उसका मकसद ही यही है कि देवताओं को दिया जाए, जो हमने उनसे लिया है। देवताओं की प्रसन्नता और सम्मान के लिए यत्न करना। इन्द्र को कोई कमी नहीं है, लेकिन जो आप स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं, उसके बदले में उन्हें कुछ देंगे, तो धर्म होगा, वही यज्ञ कहलाएगा। जिसमें लौटाने की भावना नहीं है, वह राक्षस हो जाएगा। असामाजिक हो जाएगा। वह आतंकवादी होगा। समाज की परम अपेक्षा है कि आदमी धार्मिक हो। आप किसी को मान देंगे, तो आपको मान की अपेक्षा है या नहीं? मान देंगे, तो मान की अपेक्षा होती ही है। लिखा है कि भगवान के भक्त को अमानी नहीं होना चाहिए। मान दे, लेकिन मान की अपेक्षा नहीं करे, लेकिन ऐसा सिर्फ अपवाद स्वरूप होता, सामाजिक जीवन में देने वाला चाहता है कि हमें मिले और मिलना भी चाहिए। देने वाला अगर लेना नहीं चाहे, तब भी देना चाहिए, लौटाना चाहिए, वरना धर्म नहीं रह जाएगा।
जिन पितरों का रक्त हमारे शरीर में है। परदादा से दादा मे आया, दादा से पिता में आया, पिता से हममें आया। मैं बार बार दोहराता रहता हूं कि मेरे पिताजी बहुत आलसी स्वभाव के थे, वह रक्त मुझमें है, भगवान ने मुझे बहुत ऊर्जा दी है, लेकिन मैं उसका उपयोग नहीं कर पाता हूं, क्योंकि आलस्य है। आलस्य न होता, तो बहुत काम होता धर्म का। मैं क्या करूं, रक्त में ही है। आलस्य भी बीमारी है।
तो मैं कह रहा था, पितरों के लिए तर्पण देना धर्म है, क्योंकि हम उनके कृतज्ञ हैं, उनका रक्त हमें जीवन स्वरूप मिला है। ऋषियों का मिला है। यह बतलाइए, भागवत के आधार पर लाखों-लाख लोग जीविका प्राप्त कर रहे हैं, रोटी प्राप्त कर रहे हैं, कितना बड़ा ऋषियों का योगदान है। उनके प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन ही धर्म है।
जब आपने लिया है, तो आपको देना ही पड़ेगा। यदि आपको अपेक्षा है कि कोई आपको भी सर कहे, तो आपको भी कहना ही पड़ेगा। संसार प्रतिध्वनि है, प्रतिध्वनि में जो ध्वनि आपको सुननी है, वही ध्वनि दीजिए, यही धर्म है।
मेरे सम्मान में आप बैठे हैं, यदि मैं आपका मित्र होता, यदि आपका साला या रिश्तेदार होता, बराबरी का रिश्तेदार होता, तो कोई जरूरत नहीं थी पैर मोडक़र बैठने की, आप पैर फैलाकर बैठते, मित्रवत व्यवहार होता। आप मेरी ओर पैर कर देते, लेकिन यह धर्म का काम नहीं है।
जो व्यक्ति सम्पूर्ण मानवता के लिए सिद्धांत पढ़ता है, समझता है, उसको अनुभव करता है और अपने जीवन में उतारता है दूसरों को देने के लिए, इसी का नाम ज्ञान है, मैं बार बार दोहराता रहता हूं आचार्य पतंजलि ने लिखा है, ज्ञान की चार अवस्थाएं होती हैं। पहली अवस्था ज्ञान पढऩा, इसे परोक्ष ज्ञान बोलते हैं - यह ज्ञान की कच्ची अवस्था है। दूसरी अवस्था, परिपक्व ज्ञान, यानी अपरोक्ष ज्ञान - इसमें ज्ञान पक जाता है। तीसरी अवस्था, उस ज्ञान को जीवन में उतारना। फिर चौथी अवस्था, ज्ञान दूसरों को पेश करना। मैं संन्यासी ज्ञान की सम्पूर्ण अवस्था में जीवन जी रहा हूं, तो उसका सम्मान होना चाहिए। अध्यापक का सम्मान तो अमरीका में भी किया जाता है, क्या आप नहीं करेंगे? अध्यापक का सम्मान, गुरु का सम्मान होना ही चाहिए, यह भी धर्म ही है।
क्रमश:
शिष्य के लिए गुरु अपना जीवन खपा देता है। एक बच्चे को जन्म देने और उसे बड़ा करने में मां का पूरा यौवन लग जाता है। एक गुरु अपने शिष्य को बड़ा बनाने में अपने यौवन जीवन को खपा देता है। पूरा का पूरा जीवन लग जाता है, तब एक शिष्य तैयार होता है, एक वैज्ञानिक बनता है या कुछ और बनता है। बहुत मेहनत करनी पड़ती है विद्वान बनने और बनाने के लिए। गुरु को अवश्य लौटाना चाहिए।
देवता जो हमें दे रहे हैं, उसी को लौटाने के लिए हम यज्ञ करते हैं। उसका मकसद ही यही है कि देवताओं को दिया जाए, जो हमने उनसे लिया है। देवताओं की प्रसन्नता और सम्मान के लिए यत्न करना। इन्द्र को कोई कमी नहीं है, लेकिन जो आप स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं, उसके बदले में उन्हें कुछ देंगे, तो धर्म होगा, वही यज्ञ कहलाएगा। जिसमें लौटाने की भावना नहीं है, वह राक्षस हो जाएगा। असामाजिक हो जाएगा। वह आतंकवादी होगा। समाज की परम अपेक्षा है कि आदमी धार्मिक हो। आप किसी को मान देंगे, तो आपको मान की अपेक्षा है या नहीं? मान देंगे, तो मान की अपेक्षा होती ही है। लिखा है कि भगवान के भक्त को अमानी नहीं होना चाहिए। मान दे, लेकिन मान की अपेक्षा नहीं करे, लेकिन ऐसा सिर्फ अपवाद स्वरूप होता, सामाजिक जीवन में देने वाला चाहता है कि हमें मिले और मिलना भी चाहिए। देने वाला अगर लेना नहीं चाहे, तब भी देना चाहिए, लौटाना चाहिए, वरना धर्म नहीं रह जाएगा।
जिन पितरों का रक्त हमारे शरीर में है। परदादा से दादा मे आया, दादा से पिता में आया, पिता से हममें आया। मैं बार बार दोहराता रहता हूं कि मेरे पिताजी बहुत आलसी स्वभाव के थे, वह रक्त मुझमें है, भगवान ने मुझे बहुत ऊर्जा दी है, लेकिन मैं उसका उपयोग नहीं कर पाता हूं, क्योंकि आलस्य है। आलस्य न होता, तो बहुत काम होता धर्म का। मैं क्या करूं, रक्त में ही है। आलस्य भी बीमारी है।
तो मैं कह रहा था, पितरों के लिए तर्पण देना धर्म है, क्योंकि हम उनके कृतज्ञ हैं, उनका रक्त हमें जीवन स्वरूप मिला है। ऋषियों का मिला है। यह बतलाइए, भागवत के आधार पर लाखों-लाख लोग जीविका प्राप्त कर रहे हैं, रोटी प्राप्त कर रहे हैं, कितना बड़ा ऋषियों का योगदान है। उनके प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन ही धर्म है।
जब आपने लिया है, तो आपको देना ही पड़ेगा। यदि आपको अपेक्षा है कि कोई आपको भी सर कहे, तो आपको भी कहना ही पड़ेगा। संसार प्रतिध्वनि है, प्रतिध्वनि में जो ध्वनि आपको सुननी है, वही ध्वनि दीजिए, यही धर्म है।
मेरे सम्मान में आप बैठे हैं, यदि मैं आपका मित्र होता, यदि आपका साला या रिश्तेदार होता, बराबरी का रिश्तेदार होता, तो कोई जरूरत नहीं थी पैर मोडक़र बैठने की, आप पैर फैलाकर बैठते, मित्रवत व्यवहार होता। आप मेरी ओर पैर कर देते, लेकिन यह धर्म का काम नहीं है।
जो व्यक्ति सम्पूर्ण मानवता के लिए सिद्धांत पढ़ता है, समझता है, उसको अनुभव करता है और अपने जीवन में उतारता है दूसरों को देने के लिए, इसी का नाम ज्ञान है, मैं बार बार दोहराता रहता हूं आचार्य पतंजलि ने लिखा है, ज्ञान की चार अवस्थाएं होती हैं। पहली अवस्था ज्ञान पढऩा, इसे परोक्ष ज्ञान बोलते हैं - यह ज्ञान की कच्ची अवस्था है। दूसरी अवस्था, परिपक्व ज्ञान, यानी अपरोक्ष ज्ञान - इसमें ज्ञान पक जाता है। तीसरी अवस्था, उस ज्ञान को जीवन में उतारना। फिर चौथी अवस्था, ज्ञान दूसरों को पेश करना। मैं संन्यासी ज्ञान की सम्पूर्ण अवस्था में जीवन जी रहा हूं, तो उसका सम्मान होना चाहिए। अध्यापक का सम्मान तो अमरीका में भी किया जाता है, क्या आप नहीं करेंगे? अध्यापक का सम्मान, गुरु का सम्मान होना ही चाहिए, यह भी धर्म ही है।
क्रमश:
Tuesday, 20 March 2012
धर्म क्या है?
भाग - चार
धर्म का धीरे-धीरे समय के अनुसार परिष्कार हुआ। लोगों को विश्वास नहीं होगा, महात्मा गांधी ने अपने राजनीतिक जीवन में पांच बार झूठ बोला होगा। उस जमाने में जितने लोग थे, अनेक नेता थे, राजेन्द्र प्रसाद इत्यादि, ये लोग ७५ प्रतिशत सच बोलते थे।
मेरे एक पटेल व्यवसायी शिष्य हैं। मुझे अपने साथ ले गए, घर बना रहे हैं। उन्होंने कहा कि आप देख रहे हैं, लोगों ने रोड तक घर बना लिए है, जबकि नियम है कि सडक़ से जगह छोडक़र घर बनाना चाहिए। मैंने जगह छोडक़र घर बनाया है। यही नियम है। जब मेरे घर पर उत्सव-कार्यक्रम होंगे, तो घर के सामने छोड़ी हुई जगह पर गाड़ी खड़ी करूंगा। यहां तो किसी के दुकान इत्यादि लगाने का तो सवाल ही नहीं उठता है। मूर्ख हैं वो लोग, जो राष्ट्र के नियम को पालन नहीं करते हैं। उनका हृदय कमजोर होगा, क्योंकि राष्ट्र का धर्म और राष्ट्रीयता को उन्होंने तोड़ा है। कल कानून लागू हुआ, तो उसके घर की दीवार टूट जाएगी। लेकिन मेरी जो दीवार नियम से बनी है, वह कभी नहीं टूटेगी। मेरा आत्मबल मजबूत है, क्योंकि मैंने सारे नियमों का पालन किया है। देश के संविधान के पालन से मजबूती बनती है। संविधान ही धर्म है और उससे भी बड़ा सबसे बड़ा एक संविधान है, उसे सनातन धर्म कहा गया है। उसका पालन होना चाहिए, यही धर्म है।
बतलाइए, संसार में किसका मन नहीं होगा कि सारी दुनिया की औरतें मेरी हो जाएं, लेकिन जब पत्नी पैसे मांगती होगी, कहती होगी बाजार चलो, तब पता चलता होगा कि अच्छा हुआ, एक ही पत्नी है। पत्नी के अलावा दूसरी स्त्रियां तभी तक ठीक लगेंगी, जब तक वे कुछ मांगें नहीं। मन ललचाता है। मानव स्वभाव है। इसीलिए पथभ्रष्ट होने से बचाने के लिए नियम-संयम और धर्म है।
स्त्री के अनेक रूप हैं - पत्नी, बहन, बेटी इत्यादि, लेकिन स्त्रित्व का जो परम परिष्कार है, वह मां के रूप में है। पत्नी का भी बहुत योगदान है, बहन का भी योगदान है, बहुत-सी बहनें हैं, जिन्होंने भाइयों के लिए क्या नहीं किया है। करोड़ों बहनों ने अपने भाइयों को जीवन दिया है। कुछ ही बहनें हैं, जो अपने भाई के लिए गलत हो जाती हैं। वरना बहनों की क्या बात है। कौन होगा बहन जैसा? कोई नहीं हो सकता, लेकिन इन सभी परिष्कारों को आगे बढ़ाते जाइए, कहां रुकेगा, मातृत्व में जाकर रुक जाएगा। इसके अनेक उदाहरण हैं।
कहा गया है, मातृ देवो भव:, आप बताइए क्लिंटन की भी मां होगी, सद्दाम हुसैन की भी मां होगी। सबके लिए मां की सेवा धर्म है। जिससे आप पैसे लेंगे, उसको लौटाएंगे नहीं क्या? दुनिया कितनी परिष्कृत होगी, लेकिन एक अपेक्षा तो करेगी ही कि हमने जो दिया है, उसे लौटाइए। कोई देन-लेन नहीं होगा, तो व्यवस्था कैसे चलेगी? लेन-देन से ही संसार चलता है।
पाकिस्तान का साथ अमरीका ने दिया, भारत का साथ रूस ने दिया। भारत की प्रतिबद्धता थी रूस के साथ। जहां कुछ भी होगा, हम एक दूसरे को सहयोग करेंगे। एक भी प्लांट अमरीका का भारत में नहीं था, बोकारो से लेकर अनेक प्लांट रूस के साथ सहयोग से बने। रूस ने विमान दिया, तकनीक दिया। भारत ने भी रूस का पूरा साथ दिया। यही उचित है।
धर्म का यह स्वरूप अगर नहीं मान्य होगा, तो राष्ट्र एक कदम नहीं बढ़ सकता। राष्ट्रीय स्तर पर इस भावना का परिपालन होगा, तभी देश बच सकेगा। रूस का साथ नहीं होता, तो क्या होता? इतना दिमाग था नेहरू जी में, मानना पड़ेगा, उस आदमी को, यदि अमरीका से मित्रता हो गई होती, जो रूस से हुई, मैं पत्रकार नहीं हूं, मैं राजनीतिक शास्त्र का आदमी नहीं हूं, मैं बहुत बड़ा विद्वान नहीं हूं, लेकिन दावे के साथ कहता हूं, अमरीका के साथ मित्रता हो गई होती, तो जैसा भारत हुआ, वैसा कभी न हो पाता। अमरीका बतलाए कि उसने अपने किस साथी को भारत जैसा बनाया है। किस देश का विकास किया? अमरीका ने अपने किसी साथी को अपने जैसा नहीं बनाया।
ठीक इसी तरह, जिस माता ने मल-मूत्र से लेकर पालन-पोषण के लिए सबकुछ किया। सी ए टी कैट, एम ए टी मैट। संवारना, नहलाना, धुलाना, खिलाना, सुरक्षा के लिए रात-रात पर जागना। मां की भला क्या तुलना है, इसलिए उसकी सेवा धर्म है।
क्रमश:
धर्म का धीरे-धीरे समय के अनुसार परिष्कार हुआ। लोगों को विश्वास नहीं होगा, महात्मा गांधी ने अपने राजनीतिक जीवन में पांच बार झूठ बोला होगा। उस जमाने में जितने लोग थे, अनेक नेता थे, राजेन्द्र प्रसाद इत्यादि, ये लोग ७५ प्रतिशत सच बोलते थे।
मेरे एक पटेल व्यवसायी शिष्य हैं। मुझे अपने साथ ले गए, घर बना रहे हैं। उन्होंने कहा कि आप देख रहे हैं, लोगों ने रोड तक घर बना लिए है, जबकि नियम है कि सडक़ से जगह छोडक़र घर बनाना चाहिए। मैंने जगह छोडक़र घर बनाया है। यही नियम है। जब मेरे घर पर उत्सव-कार्यक्रम होंगे, तो घर के सामने छोड़ी हुई जगह पर गाड़ी खड़ी करूंगा। यहां तो किसी के दुकान इत्यादि लगाने का तो सवाल ही नहीं उठता है। मूर्ख हैं वो लोग, जो राष्ट्र के नियम को पालन नहीं करते हैं। उनका हृदय कमजोर होगा, क्योंकि राष्ट्र का धर्म और राष्ट्रीयता को उन्होंने तोड़ा है। कल कानून लागू हुआ, तो उसके घर की दीवार टूट जाएगी। लेकिन मेरी जो दीवार नियम से बनी है, वह कभी नहीं टूटेगी। मेरा आत्मबल मजबूत है, क्योंकि मैंने सारे नियमों का पालन किया है। देश के संविधान के पालन से मजबूती बनती है। संविधान ही धर्म है और उससे भी बड़ा सबसे बड़ा एक संविधान है, उसे सनातन धर्म कहा गया है। उसका पालन होना चाहिए, यही धर्म है।
बतलाइए, संसार में किसका मन नहीं होगा कि सारी दुनिया की औरतें मेरी हो जाएं, लेकिन जब पत्नी पैसे मांगती होगी, कहती होगी बाजार चलो, तब पता चलता होगा कि अच्छा हुआ, एक ही पत्नी है। पत्नी के अलावा दूसरी स्त्रियां तभी तक ठीक लगेंगी, जब तक वे कुछ मांगें नहीं। मन ललचाता है। मानव स्वभाव है। इसीलिए पथभ्रष्ट होने से बचाने के लिए नियम-संयम और धर्म है।
स्त्री के अनेक रूप हैं - पत्नी, बहन, बेटी इत्यादि, लेकिन स्त्रित्व का जो परम परिष्कार है, वह मां के रूप में है। पत्नी का भी बहुत योगदान है, बहन का भी योगदान है, बहुत-सी बहनें हैं, जिन्होंने भाइयों के लिए क्या नहीं किया है। करोड़ों बहनों ने अपने भाइयों को जीवन दिया है। कुछ ही बहनें हैं, जो अपने भाई के लिए गलत हो जाती हैं। वरना बहनों की क्या बात है। कौन होगा बहन जैसा? कोई नहीं हो सकता, लेकिन इन सभी परिष्कारों को आगे बढ़ाते जाइए, कहां रुकेगा, मातृत्व में जाकर रुक जाएगा। इसके अनेक उदाहरण हैं।
कहा गया है, मातृ देवो भव:, आप बताइए क्लिंटन की भी मां होगी, सद्दाम हुसैन की भी मां होगी। सबके लिए मां की सेवा धर्म है। जिससे आप पैसे लेंगे, उसको लौटाएंगे नहीं क्या? दुनिया कितनी परिष्कृत होगी, लेकिन एक अपेक्षा तो करेगी ही कि हमने जो दिया है, उसे लौटाइए। कोई देन-लेन नहीं होगा, तो व्यवस्था कैसे चलेगी? लेन-देन से ही संसार चलता है।
पाकिस्तान का साथ अमरीका ने दिया, भारत का साथ रूस ने दिया। भारत की प्रतिबद्धता थी रूस के साथ। जहां कुछ भी होगा, हम एक दूसरे को सहयोग करेंगे। एक भी प्लांट अमरीका का भारत में नहीं था, बोकारो से लेकर अनेक प्लांट रूस के साथ सहयोग से बने। रूस ने विमान दिया, तकनीक दिया। भारत ने भी रूस का पूरा साथ दिया। यही उचित है।
धर्म का यह स्वरूप अगर नहीं मान्य होगा, तो राष्ट्र एक कदम नहीं बढ़ सकता। राष्ट्रीय स्तर पर इस भावना का परिपालन होगा, तभी देश बच सकेगा। रूस का साथ नहीं होता, तो क्या होता? इतना दिमाग था नेहरू जी में, मानना पड़ेगा, उस आदमी को, यदि अमरीका से मित्रता हो गई होती, जो रूस से हुई, मैं पत्रकार नहीं हूं, मैं राजनीतिक शास्त्र का आदमी नहीं हूं, मैं बहुत बड़ा विद्वान नहीं हूं, लेकिन दावे के साथ कहता हूं, अमरीका के साथ मित्रता हो गई होती, तो जैसा भारत हुआ, वैसा कभी न हो पाता। अमरीका बतलाए कि उसने अपने किस साथी को भारत जैसा बनाया है। किस देश का विकास किया? अमरीका ने अपने किसी साथी को अपने जैसा नहीं बनाया।
ठीक इसी तरह, जिस माता ने मल-मूत्र से लेकर पालन-पोषण के लिए सबकुछ किया। सी ए टी कैट, एम ए टी मैट। संवारना, नहलाना, धुलाना, खिलाना, सुरक्षा के लिए रात-रात पर जागना। मां की भला क्या तुलना है, इसलिए उसकी सेवा धर्म है।
क्रमश:
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