प्रश्न : हमारे राष्ट्रीय समाज में राम जन्मभूमि का प्रश्न पहले से ही विद्यमान है, उसका अभी तक कोई हल नहीं निकला। क्या उसके समाधान की कोई दिशा आप देखते हैं? और यह एक नया मुद्दा?
स्वामी रामनरेशाचार्य जी : जब मैं नया-नया यहां पर रामानन्दाचार्य बनकर आया था, तो पत्रकारवार्ता में एक पत्रकार ने कहा था कि इस गड़े हुए भूत को उखाडऩे की क्या जरूरत है? आपके प्रश्न की ध्वनि भी वैसी ही है। बहुत दिनों से जो चल रहा है, यदि उसका समाधान नहीं हुआ है, तो उसको क्या वैसे ही छोड़ दिया जाए? देश में बहुत दिनों से गरीबी चल रही है, तो उसकी चिन्ता हमें नहीं करनी चाहिए क्या? छोड़ दें उस मुद्दे को? मैंने कभी कहा था, मान लीजिए कोई वामपंथी सरकार आ जाए और कल्पना कीजिए कि गांधी की समाधि को उखाड़ फेंके? जैसे रूस में लेनिन के साथ हुआ और फिर कांग्रेसी सरकार आवे और कहे कि हम महात्मा गांधी की समाधि को फिर बनाएंगे, तो क्या उनको यह उत्तर दिया जा सकता है कि यह गड़े हुए भूत को उखाडऩा है और जो हो गया, सो हो गया। तो यह गड़ा हुआ भूत नहीं है, यह हमारी आस्था का, गौरव का, उल्लास का, हमारे श्रेष्ठ धर्म पर जो चोट हुई है, उसका प्रश्न है। हम उसको पुन: प्रतिष्ठा देंगे, तो हमारी जो पीड़ाएं हैं, हीन भावनाएं हैं, उससे उबरेंगे। हमारे तमाम उत्कर्ष जो दबे हुए हैं, वह खुलेंगे। वहां मंदिर बनाना चाहिए। अब वो मामला न्यायपालिका में है, जो सर्वोच्च है। इस मामले को जानबूझकर लटकाया गया है। हमारे राष्ट्राध्यक्षों और राजनयिकों को यह आभास नहीं है कि यह देश के लिए कैन्सर होगा। मैंने एक बार राजीव गांधी जी से कहा था कि यदि इस मामले को आप लोग लम्बाएंगे, तो अनिष्ट होगा। आप जाएंगे, आपकी पार्टी भी जाएगी और आप ये हश्र देख रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी कैसे सडक़ पर आ गई थी और जब दस वर्ष बाद सत्ता में आई भी तो दूसरों के सहारे सरकार चलानी पड़ रही है। ये कैसा मामला है, जिसका निर्णय ही नहीं हो पा रहा। फैजाबाद की फाइलों में राम जी का मामला सड़ रहा है, जबकि तमाम फाइलें रोज निकलती हैं, निर्णय होते हैं, अरे! न्याय, न्याय है, वो किसी को भी मिलना चाहिए। अभी तमाम विधायक, मंत्री सब फांसी को जा रहे हैं। वो होगा। किसी से आपको क्या लग रहा है- सच बात बोलने में।
दूसरी बात, लोगों को समझाया जाए। मेरा माना है कि बुद्धितत्व पक्षपाती होती है। वाचस्पति एक दार्शनिक हुए उन्होंने लिखा है - तत्व पक्षपातो ही गोपाय स्वभाव:। किन्तु आज तक कोई संगोष्ठी हुई क्या? इसके लिए एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित हो। दोनों पक्ष के चुनिन्दा लोग इक_े हों और बात हो कि आप क्या चाहते हैं? आपस में कटकर मरना चाहते हैं? व्यापार नहीं चाहते हैं? भाईचारा नष्ट हो जाए? मानवीय भावना, धार्मिक भावना नष्ट हो जाए? यह सब हो या सद्भावना का विकास हो। रामजन्मभूमि में बाबरी मस्जिद का क्या औचित्य है? उनका तीर्थ है क्या वहां? सरजू के लिए उनके मन में क्या महत्व है? अरे! बाबर ने गलती की, उसको मानो कि गलती हुई और कहो कि आप मन्दिर बनाइए, नहीं तो सारा देश गुजरात बन जाएगा और ऐसे गुजरात में न मैं जाऊंगा, न कोई मौलवी जाएगा, न कांग्रेसी जाएगा न भाजपाई जाएगा। निरीह लोग मारे जाएंगे जो संसार का सबसे गर्हित कर्म है। यदि यह बात राष्ट्रीय स्तर पर समझा दी जाए, तो लोग मानेंगे, यह वैचारिक तरीका है।
प्रश्न : अच्छा तो धर्म बाहर का उपादान है या भीतर का विश्वास?
स्वामी रामनरेशाचार्य जी : दोनों, दोनों है। उदाहरण लीजिए - हम सत्य में निष्ठावान हैं, सत्य की निष्ठा भीतरी चीज है, लेकिन जब हम सत्य में निष्ठावान होंगे, तो वाणी का प्रयोग करेंगे। उसके अनुसार आचरण करेंगे, तो वो बाहर आ गया। ये ऊर्जा है आप उसे दूसरे शब्दों में समझें कि आप भोजन करते हैं, तो ऊर्जा बनती है, वो दिखती नहीं है, लेकिन जब हम उसका उपयोग करते हैं, तो उसका उत्पादन दिखता है। ऊर्जा जो भोजन से, वायु से तमाम चीजों से बनी है, लेकिन जब उससे कुछ किया तो दिखा, ये देखिए (तौलिए को एक जगह से दूसरी जगह उठाकर रखते हुए)। इस तरह धर्म ऊर्जा है। व्यवस्थित कर्मों के द्वारा शास्त्रों, पुराणों द्वारा निर्धारित जो अत्यंत परिष्कृत कर्म है, वह धर्म है। मैं लोगों को कहता हूं कि कर्म करने से कोई बच नहीं सकता, लेकिन कर्म करने की जो अत्यंत परिष्कृत विधा है, उसी को धर्म कहते हैं। कोई आदमी भूखा है, चिल्ला रहा है, दरिद्र है, परिस्थितियों से टूटा हुआ है, जब आप उसे दो रुपए देते हैं, तो उससे जो आपकी ऊर्जा बनती है, तुरंत जैसे ग्लूकोज पीने से बनती है। वो ऐसा भीतरी उत्पादान नहीं है, जिसे छुपा ही रहना है, अंत:करण में। वह बाहर प्रकट होता है और वही सही समाज का निर्माण करता है। धर्म जिसकी अपेक्षा सारे संसार को है। ऊर्जा तो जब किसी को मारते हैं, तब भी लगती है, सहलाते हैं तब भी। वह नकारात्मक है ये पुण्यात्मक।
क्रमश:
स्वामी रामनरेशाचार्य जी : जब मैं नया-नया यहां पर रामानन्दाचार्य बनकर आया था, तो पत्रकारवार्ता में एक पत्रकार ने कहा था कि इस गड़े हुए भूत को उखाडऩे की क्या जरूरत है? आपके प्रश्न की ध्वनि भी वैसी ही है। बहुत दिनों से जो चल रहा है, यदि उसका समाधान नहीं हुआ है, तो उसको क्या वैसे ही छोड़ दिया जाए? देश में बहुत दिनों से गरीबी चल रही है, तो उसकी चिन्ता हमें नहीं करनी चाहिए क्या? छोड़ दें उस मुद्दे को? मैंने कभी कहा था, मान लीजिए कोई वामपंथी सरकार आ जाए और कल्पना कीजिए कि गांधी की समाधि को उखाड़ फेंके? जैसे रूस में लेनिन के साथ हुआ और फिर कांग्रेसी सरकार आवे और कहे कि हम महात्मा गांधी की समाधि को फिर बनाएंगे, तो क्या उनको यह उत्तर दिया जा सकता है कि यह गड़े हुए भूत को उखाडऩा है और जो हो गया, सो हो गया। तो यह गड़ा हुआ भूत नहीं है, यह हमारी आस्था का, गौरव का, उल्लास का, हमारे श्रेष्ठ धर्म पर जो चोट हुई है, उसका प्रश्न है। हम उसको पुन: प्रतिष्ठा देंगे, तो हमारी जो पीड़ाएं हैं, हीन भावनाएं हैं, उससे उबरेंगे। हमारे तमाम उत्कर्ष जो दबे हुए हैं, वह खुलेंगे। वहां मंदिर बनाना चाहिए। अब वो मामला न्यायपालिका में है, जो सर्वोच्च है। इस मामले को जानबूझकर लटकाया गया है। हमारे राष्ट्राध्यक्षों और राजनयिकों को यह आभास नहीं है कि यह देश के लिए कैन्सर होगा। मैंने एक बार राजीव गांधी जी से कहा था कि यदि इस मामले को आप लोग लम्बाएंगे, तो अनिष्ट होगा। आप जाएंगे, आपकी पार्टी भी जाएगी और आप ये हश्र देख रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी कैसे सडक़ पर आ गई थी और जब दस वर्ष बाद सत्ता में आई भी तो दूसरों के सहारे सरकार चलानी पड़ रही है। ये कैसा मामला है, जिसका निर्णय ही नहीं हो पा रहा। फैजाबाद की फाइलों में राम जी का मामला सड़ रहा है, जबकि तमाम फाइलें रोज निकलती हैं, निर्णय होते हैं, अरे! न्याय, न्याय है, वो किसी को भी मिलना चाहिए। अभी तमाम विधायक, मंत्री सब फांसी को जा रहे हैं। वो होगा। किसी से आपको क्या लग रहा है- सच बात बोलने में।
दूसरी बात, लोगों को समझाया जाए। मेरा माना है कि बुद्धितत्व पक्षपाती होती है। वाचस्पति एक दार्शनिक हुए उन्होंने लिखा है - तत्व पक्षपातो ही गोपाय स्वभाव:। किन्तु आज तक कोई संगोष्ठी हुई क्या? इसके लिए एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित हो। दोनों पक्ष के चुनिन्दा लोग इक_े हों और बात हो कि आप क्या चाहते हैं? आपस में कटकर मरना चाहते हैं? व्यापार नहीं चाहते हैं? भाईचारा नष्ट हो जाए? मानवीय भावना, धार्मिक भावना नष्ट हो जाए? यह सब हो या सद्भावना का विकास हो। रामजन्मभूमि में बाबरी मस्जिद का क्या औचित्य है? उनका तीर्थ है क्या वहां? सरजू के लिए उनके मन में क्या महत्व है? अरे! बाबर ने गलती की, उसको मानो कि गलती हुई और कहो कि आप मन्दिर बनाइए, नहीं तो सारा देश गुजरात बन जाएगा और ऐसे गुजरात में न मैं जाऊंगा, न कोई मौलवी जाएगा, न कांग्रेसी जाएगा न भाजपाई जाएगा। निरीह लोग मारे जाएंगे जो संसार का सबसे गर्हित कर्म है। यदि यह बात राष्ट्रीय स्तर पर समझा दी जाए, तो लोग मानेंगे, यह वैचारिक तरीका है।
प्रश्न : अच्छा तो धर्म बाहर का उपादान है या भीतर का विश्वास?
स्वामी रामनरेशाचार्य जी : दोनों, दोनों है। उदाहरण लीजिए - हम सत्य में निष्ठावान हैं, सत्य की निष्ठा भीतरी चीज है, लेकिन जब हम सत्य में निष्ठावान होंगे, तो वाणी का प्रयोग करेंगे। उसके अनुसार आचरण करेंगे, तो वो बाहर आ गया। ये ऊर्जा है आप उसे दूसरे शब्दों में समझें कि आप भोजन करते हैं, तो ऊर्जा बनती है, वो दिखती नहीं है, लेकिन जब हम उसका उपयोग करते हैं, तो उसका उत्पादन दिखता है। ऊर्जा जो भोजन से, वायु से तमाम चीजों से बनी है, लेकिन जब उससे कुछ किया तो दिखा, ये देखिए (तौलिए को एक जगह से दूसरी जगह उठाकर रखते हुए)। इस तरह धर्म ऊर्जा है। व्यवस्थित कर्मों के द्वारा शास्त्रों, पुराणों द्वारा निर्धारित जो अत्यंत परिष्कृत कर्म है, वह धर्म है। मैं लोगों को कहता हूं कि कर्म करने से कोई बच नहीं सकता, लेकिन कर्म करने की जो अत्यंत परिष्कृत विधा है, उसी को धर्म कहते हैं। कोई आदमी भूखा है, चिल्ला रहा है, दरिद्र है, परिस्थितियों से टूटा हुआ है, जब आप उसे दो रुपए देते हैं, तो उससे जो आपकी ऊर्जा बनती है, तुरंत जैसे ग्लूकोज पीने से बनती है। वो ऐसा भीतरी उत्पादान नहीं है, जिसे छुपा ही रहना है, अंत:करण में। वह बाहर प्रकट होता है और वही सही समाज का निर्माण करता है। धर्म जिसकी अपेक्षा सारे संसार को है। ऊर्जा तो जब किसी को मारते हैं, तब भी लगती है, सहलाते हैं तब भी। वह नकारात्मक है ये पुण्यात्मक।
क्रमश:
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