जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी का यह साक्षात्कार जो कला समय के संपादक श्री सत्येन्द्र शर्मा जी ने २९ अक्टूबर २००७ को श्रीमठ, पंचगंगा घाट, वाराणसी में लिया था। वह साक्षात्कार आज भी बहुत प्रासंगिक हैं - हम उस साक्षात्कार को साभार यहां प्रस्तुत कर रहे हैं :-
प्रश्न : रामसेतु इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रमुख मुद्दा बनकर उभरा है, जिसकी गूँज बाहर तक सुनाई दे रही है। आप क्या सोचते हैंï?
स्वामी रामनरेशाचार्य जी : रामसेतु की चर्चा अपने यहां इतिहास, पुराणों में पर्याप्त मात्रा में हुई है। उसके माध्यम से भगवान श्रीराम के द्वारा नियोजित, संरक्षित, प्रेरित सेना जाकर के लंका में आसुरी शक्ति के विनाश के लिए कारगर हुई, तो उसका वह स्वरूप अब नहीं है, लेकिन अवशिष्ट भाग तो उससे जुड़ा ही हुआ है। मेरा मानना है कि उसका मूल्यांकन प्राचीन और आधुनिक, दोनों दृष्टियों से होना चाहिए। पुरातात्विक दृष्टि से प्राचीन धरोहरों को संरक्षित रखा जाना चाहिए, क्योंकि शास्त्रों में वर्णित है कि कलयुग में स्थान की पूजा होती है - कलौ स्थानानि पूज्यन्ते। हो सकता है कालक्रम से गंगा भूमि में समा जाए और उसका यह प्रवाह न रहे, लेकिन उस क्षेत्र को प्रणाम कर शक्ति अर्जित करेंगे। पुराणों में कहा गया है कि धार्मिक, आध्यात्मिक शक्ति के केन्द्र यदि उस रूप में नहीं हैं, तो भी उस स्थान को महत्व मिलना चाहिए, क्योंकि उसके पूजन व दर्शन से शक्ति मिलती है। इसी तरह रामसेतु की महिमा का वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि जो उस स्थान का दर्शन या पूजन करेगा, उसे दिव्यधाम की प्राप्ति होगी। हालांकि देश पुरातत्व के लिए जाने कहां-कहां क्या-क्या कर रहा है, परन्तु रामसेतु के महत्व को ओझल करके, व्यापारिक महत्व को प्रमुखता देना यह कहीं से भी अच्छा नहीं है। मैं समझता हूँ कि इस धन का गौरव भारत भूमि को ही नहीं, संसार की भूमि को करना चाहिए। आखिर जिस आतंकवाद की समस्या से पूरी दुनिया विह्वल हो रही है, उस आतंकवाद के निराकरण में रामसेतु की जितनी भूमिका है, उतनी इतिहास में कहीं नहीं। मेरा मानना है कि सरकार की अपनी जो लोकतांत्रिक दृष्टि है, उसमें रामसेतु को महत्व देते हुए व्यापार के लिए कोई दृूसरा रास्ता निकाला जाना चाहिए, क्योंकि हमारा कत्र्तव्य है कि उस स्थल को हम संरक्षित रखें। इतना ही नहीं, उसे प्रेरणा भी लें कि हमें भी इसी तरह की भूमिका का निर्वाह करना है - जैसा श्रीराम ने किया।
प्रश्न - रामसेतु को वैज्ञानिक या तकनीकी दृष्टि से अप्रामाणिक और भौगोलिक दृष्टि से बालू का उठान माना गया है, तो क्या आस्था के आगे तर्क या प्रमाण को तिलांजलि दे दें?
स्वामी रामनरेशाचार्य जी : यह आस्था भर की बात नहीं है, वरन प्रमाण भी है , जो आस्था कपोल कल्पित, अनुपयोगी और कसौटी में खरी नहीं उतरती, वह लुप्त होती जाती है। तमाम परम्पराएं लुप्त हो गईं, वार्ताएं और संस्कार लुप्त हो गए, लेकिन न वाल्मीकि रामायण लुप्त हुई और न उसकी बातें और न ही राम लुप्त हुए।
विज्ञान की कसौटी में जो नहीं आएगा, क्या वह सब हमारी आस्था और विश्वास को निगल जाएगा? विज्ञान की कसौटी में माता-पिता का महत्व कहां प्रमाणित है, मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, यह विज्ञान के थर्मामीटर में नहीं है और पूरी दुनिया में इसकी मान्यता है। इसलिए हमारी आस्थाओं को शक्ति देने वाली परंपराओं को, जिनसे समाज का निर्माण होता है, उसके आधार पर हम चलते हैं। वेद, इतिहास और पुराणादि से जो सन्देश हमें मिलते हैं, उनको हल्के से मत लीजिए, वह अन्ध श्रद्धा नहीं है। उसके पीछे जो जीवन दृष्टि, विकास हमसे जुड़ा हुआ है, उसे हम देखें। नकली चावल से भात नहीं बनता। भात बन रहा है, तो अपने असली होने का प्रमाण दे रहा है। विज्ञान ने ही तो उसको देखा कि वह स्थल भरा हुआ है, ऊंचा है, भिन्न है और इतिहास तो है ही - परम्परा है, आस्था भी है। गीता में भगवान ने कहा है, यो यत् श्रृद्धत सएव सा। आस्था ही मनुष्य का आखिरी स्वरूप होता है। आप कहां श्रद्धावान हैं - परिवार के लिए जाति के लिए या राष्ट्र के लिए। यदि हम राम के कृतित्व में आस्थावान हैं, राम की संस्कृति में आस्थावान हैं, तो हम अंध श्रद्धालु नहीं हैं। विज्ञान की जहां सीमाएं हैं, जहां उसकी समझ नहीं है, वहां आस्था ही उसका पोषण कर रही है और अनादि काल से कर रही है।
क्रमश:
प्रश्न : रामसेतु इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रमुख मुद्दा बनकर उभरा है, जिसकी गूँज बाहर तक सुनाई दे रही है। आप क्या सोचते हैंï?
स्वामी रामनरेशाचार्य जी : रामसेतु की चर्चा अपने यहां इतिहास, पुराणों में पर्याप्त मात्रा में हुई है। उसके माध्यम से भगवान श्रीराम के द्वारा नियोजित, संरक्षित, प्रेरित सेना जाकर के लंका में आसुरी शक्ति के विनाश के लिए कारगर हुई, तो उसका वह स्वरूप अब नहीं है, लेकिन अवशिष्ट भाग तो उससे जुड़ा ही हुआ है। मेरा मानना है कि उसका मूल्यांकन प्राचीन और आधुनिक, दोनों दृष्टियों से होना चाहिए। पुरातात्विक दृष्टि से प्राचीन धरोहरों को संरक्षित रखा जाना चाहिए, क्योंकि शास्त्रों में वर्णित है कि कलयुग में स्थान की पूजा होती है - कलौ स्थानानि पूज्यन्ते। हो सकता है कालक्रम से गंगा भूमि में समा जाए और उसका यह प्रवाह न रहे, लेकिन उस क्षेत्र को प्रणाम कर शक्ति अर्जित करेंगे। पुराणों में कहा गया है कि धार्मिक, आध्यात्मिक शक्ति के केन्द्र यदि उस रूप में नहीं हैं, तो भी उस स्थान को महत्व मिलना चाहिए, क्योंकि उसके पूजन व दर्शन से शक्ति मिलती है। इसी तरह रामसेतु की महिमा का वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि जो उस स्थान का दर्शन या पूजन करेगा, उसे दिव्यधाम की प्राप्ति होगी। हालांकि देश पुरातत्व के लिए जाने कहां-कहां क्या-क्या कर रहा है, परन्तु रामसेतु के महत्व को ओझल करके, व्यापारिक महत्व को प्रमुखता देना यह कहीं से भी अच्छा नहीं है। मैं समझता हूँ कि इस धन का गौरव भारत भूमि को ही नहीं, संसार की भूमि को करना चाहिए। आखिर जिस आतंकवाद की समस्या से पूरी दुनिया विह्वल हो रही है, उस आतंकवाद के निराकरण में रामसेतु की जितनी भूमिका है, उतनी इतिहास में कहीं नहीं। मेरा मानना है कि सरकार की अपनी जो लोकतांत्रिक दृष्टि है, उसमें रामसेतु को महत्व देते हुए व्यापार के लिए कोई दृूसरा रास्ता निकाला जाना चाहिए, क्योंकि हमारा कत्र्तव्य है कि उस स्थल को हम संरक्षित रखें। इतना ही नहीं, उसे प्रेरणा भी लें कि हमें भी इसी तरह की भूमिका का निर्वाह करना है - जैसा श्रीराम ने किया।
प्रश्न - रामसेतु को वैज्ञानिक या तकनीकी दृष्टि से अप्रामाणिक और भौगोलिक दृष्टि से बालू का उठान माना गया है, तो क्या आस्था के आगे तर्क या प्रमाण को तिलांजलि दे दें?
स्वामी रामनरेशाचार्य जी : यह आस्था भर की बात नहीं है, वरन प्रमाण भी है , जो आस्था कपोल कल्पित, अनुपयोगी और कसौटी में खरी नहीं उतरती, वह लुप्त होती जाती है। तमाम परम्पराएं लुप्त हो गईं, वार्ताएं और संस्कार लुप्त हो गए, लेकिन न वाल्मीकि रामायण लुप्त हुई और न उसकी बातें और न ही राम लुप्त हुए।
विज्ञान की कसौटी में जो नहीं आएगा, क्या वह सब हमारी आस्था और विश्वास को निगल जाएगा? विज्ञान की कसौटी में माता-पिता का महत्व कहां प्रमाणित है, मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, यह विज्ञान के थर्मामीटर में नहीं है और पूरी दुनिया में इसकी मान्यता है। इसलिए हमारी आस्थाओं को शक्ति देने वाली परंपराओं को, जिनसे समाज का निर्माण होता है, उसके आधार पर हम चलते हैं। वेद, इतिहास और पुराणादि से जो सन्देश हमें मिलते हैं, उनको हल्के से मत लीजिए, वह अन्ध श्रद्धा नहीं है। उसके पीछे जो जीवन दृष्टि, विकास हमसे जुड़ा हुआ है, उसे हम देखें। नकली चावल से भात नहीं बनता। भात बन रहा है, तो अपने असली होने का प्रमाण दे रहा है। विज्ञान ने ही तो उसको देखा कि वह स्थल भरा हुआ है, ऊंचा है, भिन्न है और इतिहास तो है ही - परम्परा है, आस्था भी है। गीता में भगवान ने कहा है, यो यत् श्रृद्धत सएव सा। आस्था ही मनुष्य का आखिरी स्वरूप होता है। आप कहां श्रद्धावान हैं - परिवार के लिए जाति के लिए या राष्ट्र के लिए। यदि हम राम के कृतित्व में आस्थावान हैं, राम की संस्कृति में आस्थावान हैं, तो हम अंध श्रद्धालु नहीं हैं। विज्ञान की जहां सीमाएं हैं, जहां उसकी समझ नहीं है, वहां आस्था ही उसका पोषण कर रही है और अनादि काल से कर रही है।
क्रमश:
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