Saturday, 24 September 2016

रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी


रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी

रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी

रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी
A Photo By Shri Himanshu Vyas

महाराज की ४ प्रवचन पुस्तिकाओं का लोकार्पण

प्रयाग में लोकार्पण : दुख क्यों होता है? 
2012


हरिद्वार में लोकार्पण : अच्छा कैसे सोचा जाए?
2013


जोधपुर में लोकार्पण : साधु कौन?
2015

पटना में लोकार्पण : अबलौ नसानी, अब न नसैहौं
2016

मरा मरा से राम राम तक

समापन भाग 
भारत कोई विश्व गुरु ऐसे ही नहीं हो गया था। विश्व गुरुत्व का परम पद हम केवल डॉक्टर, इंजीनियर पैदा करके नहीं पा सकेंगे, जब तक ऋषियों से सम्बंधित भावनाएं जीवन में नहीं अवतरित होंगी, तब तक जीवन कमाऊ और खाऊ ही बना रहेगा।  
राम जी और जानकी जी ने अपने बच्चों को जैसे पाला, वह आदर्श है। महर्षि वाल्मीकि मेरुदंड के समान उपयोगी और प्रामाणिक स्तंभ हैं। सारा जीवन उन्होंने राम जी के साथ मिलकर उनके भावों को उनके विचारों को मूर्त रूप देने में उनकी स्थापनाओं को मजबूती और संबल देने में लगाया। ऐसे ऋषियों की जरूरत है। 
वैसे आजकल कई गुरुकुल खुल रहे हैं, लेकिन उनमें प्रतिष्ठा की इच्छा ज्यादा है। धन अर्जन की इच्छा ज्यादा है। अभी ऐसे ही एक गुरुकुल में मुझे जाने का अवसर मिला, मैंने देखा, गुरुकुल गौण हो गया है और ऐश्वर्य महत्वपूर्ण हो गया है। मैं कुरुक्षेत्र में गया था एक आश्रम में, सर्दी काल में बच्चों के शरीर पर पूरे वस्त्र नहीं थे, दरिद्रों के बच्चों की तरह, जब वस्त्र ही नहीं मिल रहा था, तो खाने को क्या मिल रहा होगा, जब भोजन ही नहीं मिलेगा, तो संस्कार क्या मिलेगा और विद्या क्या मिलेगी? गुरुकुल का लक्षण ऊपर से दिखता है, लेकिन गहराई में जाइए, तो पता चलता है कि गुरुकुल आज सही नहीं हैं। आज ज्यादातर गुरुकुल पैसा कमाने के लिए ही बनते हैं। सैंकड़ों गुरुकुल चल रहे हैं, लेकिन एक भी बड़ा विद्वान और संत पैदा नहीं कर रहे हैं, यह तो डकैती वाला काम हो रहा है। आज के गुरुकुल अच्छे संस्कार कहां दे रहे हैं। वाल्मीकि के गुरुकुल से अगर तुलना करें, तो पता चलेगा कि हम कितना पीछे हैं। पूरी मानव जाति के लिए वे समर्पित हैं, उनका रोम-रोम पुकार रहा है कि तुम ज्ञान पाओ और जीवन को धन्य बनाओ। ऐसे गुरुकुलों का प्रचलन करना चाहिए, उनसे लाभ उठाने की प्रेरणा भी बढऩी चाहिए। घर से बाहर रहकर बच्चा ऋषि भी बनेगा और साथ-साथ में एमबीएस डॉक्टर, इंजीनियर इत्यादि भी बनेगा। उसकी मनुष्यता पूर्णता को प्राप्त करेगी। ऐसे प्रयत्न सरकार के माध्यम से भी होने चाहिए। सरकार बहुत पैसे खर्च करती है विश्वविद्यालयों, स्कूलों में, लेकिन ऐसे बच्चे तैयार हो रहे हैं, जो केवल कमाएंगे और खाएंगे। जो आंतरिक विकास है अध्याम का, वह नहीं हो रहा है, इसके बिना भारत कभी विश्व गुरु नहीं बनेगा, कभी पूर्ण मानव जीवन नहीं बनेगा। 
वाल्मीकि जी बड़े ज्ञाता ऋषि थे, वे राम जी को जानते थे। रामचरितमानस में लिखा है कि राम जी को चित्रकूट में रहने की सलाह वाल्मीकि जी ने ही दी थी। राम जी ने उनसे बहुत श्रद्धा पूर्वक पूछा था, तुलसीदास जी ने लिखा है - 
अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठाऊँ। सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ।।
ऐसा हृदय में समझकर, वह स्थान बतलाइए, जहां मैं सीता और लक्ष्मण सहित जाऊं।
वाल्मीकि जी भी भगवान राम को जान रहे थे, उन्होंने आगे उत्तर दिया - 
पँूछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाऊँ।
जहँ न होहु तहँ कहि तुम्हहि देखावौं ठाऊँ।।
अर्थात आप मुझसे पूछ रहे हैं कि मैं कहा रहूं। यहां मैं आपसे यह पूछते हुए सकुचा रहा हूं कि जहां आप न हों, वह जगह मुझे बता दीजिए, ताकि मैं आपके रहने के लिए जगह दिखा दूं। 
उसके बाद राम जी के विराजने के लिए जो-जो स्थान भक्ति भाव से वाल्मीकि जी ने गिनाए, वो उनकी राम भक्ति का अनुपम प्रमाण हैं और अंत में व्यावहारिक रूप से उन्होंने राम जी को चित्रकूट में विराजने की सलाह दी।
मैं भगवान से प्रार्थना करता हूं कि हम लोग भी राम भाव में योगदान करें, इस वातावरण में हमारी भी आहूति हो। 
जय श्री राम। 

मरा मरा से राम राम तक

भाग - ६
महर्षि वाल्मीकि ने संपूर्ण आत्मीय भाव से जानकी जी और उनके पुत्रों को अपने आश्रम में रखा। राम जी के बच्चों को सशक्त रूप से विकसित किया। उन्होंने राम जी के बच्चों को वीर ही नहीं, विद्वान भी बनाया। 
उनके आश्रम का वातावरण अत्यंत सुंदर था। ऐसे दिव्य वातावरण जहां सबकुछ पवित्र है, शुद्ध है, अच्छे जीवन को देने वाला है। ऐसे वातावरण में निर्वासन के प्रताप से जानकी जी पहुंच गईं। उनके बच्चे भी वहीं पल रहे हैं, बहुत ही शुभ हो। विधि विधान से उनका पालन-पोषण संस्कार हुआ। संसार के लिए यह बहुत ही अच्छी घटना हुई। जो लोग सत्य नहीं जानते, वही कहेंगे कि राम जी ने गलत किया। कहते हैं कि जानकी जी को जंगल में छोड़ दिया गया धोबी के कहने पर, लेकिन वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण में धोबी की चर्चा कहीं नहीं है। तुलसीदास जी ने उस प्रकरण को ही छोड़ दिया, क्योंकि उनसे वियोग सहन नहीं हुआ। 
राम जी को भी गुरुकुल में रहने का ज्यादा अवसर नहीं मिल पाया था, शिक्षा तो उन्हें मिली थी, वन में रहकर शिक्षा लेने का काम अधूरा रह गया था, जिसे जानकी जी ने अपने बच्चों के माध्यम से पूरा किया। महर्षि वाल्मीकि ने अपने आदि काव्य को सबसे पहले राम जी के बच्चों लव-कुश को पढ़ाया। इस संसार की अद्भुत घटना है कि दुनिया का सबसे पहला आदि काव्य ग्रंथ जो लौकिक भाषा का पहला महाकाव्य है, जो बच्चों की मां के लिए लिखा गया है, पिता के लिए लिखा गया है, उसे बच्चों को ही सबसे पहले पढ़ाया। 
लव, कुश रामायण गाते हैं। जहां वे रामायण गाते हैं, वहां लोग एकत्र हो जाते हैं। लोग राम जी के सद्गुण सुनना चाहते हैं, लोग जानकी जी के बारे में जानना चाहते हैं। राम जी के मन में है कि जिस उद्देश्य से सीता आश्रम गई थीं, वह पूरा हुआ, मेरे बेटों को अच्छी शिक्षा प्राप्त हुई। 
महर्षि वाल्मीकि ने केवल कुछ लोगों को ही सुरक्षित नहीं किया, वाल्मीकि रामायण की रचना की, लव, कुश को शिक्षित करके रघुवंश को सिंचित किया और रघुवंश को सिंचित करके विश्व व सृष्टि को सिंचित किया। रघुवंश आदर्श है पूरे संसार के लिए, उसका जयघोष पूरे संसार में हो। यह सभी लोगों के लिए प्रेरणादायक है कि बच्चों को जो शिक्षा देनी है, जरूर दी जाए, बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर बनाया जाए, आधुनिक शिक्षा दी जाए, इसके बिना जीवन का निर्वाह नहीं होगा, लेकिन बच्चों में ऋषि जीवन का भी प्रभाव होना चाहिए, बच्चों को पता होना चाहिए कि ऋषित्व क्या है, तप-त्याग-संयम नियम का क्या सुख है। घर में रहकर बच्चे यह नहीं प्राप्त कर सकते। संसार के लोगों को, विशेषकर भारत के लोगों को ऐसी योजना बनानी चाहिए कि गर्भावस्था में महिलाओं को ऐसे वातावरण में भेजा जाए, जहां सबकुछ अध्यात्ममय है, जहां एक-एक शब्द विशिष्ट है, खाना-पीना, दिनचर्या शुद्ध है, अनुशासित है, दिव्य है, तो इससे होने वाली संतति में महान संस्कार का प्राकट्य होगा, जो उसके संपूर्ण जीवन को प्रेरित करता रहेगा, गुरुत्व देता रहेगा, संबल देता रहेगा, और उसके साथ-साथ में दूसरी जरूरी आधुनिक शिक्षा भी दी जाए। प्रारंभिक काल किसी के लिए भी अच्छा होना चाहिए। बचपन अगर श्रेष्ठ वातावरण में बीत जाए, तो संपूर्ण जीवन आलोकित हो जाता है।
क्रमश:

मरा मरा से राम राम तक

भाग - ५
राम पूर्णत: आश्वस्त हैं कि सीता कहीं से लांछित नहीं हैं। लंका में पूर्ण विजय की प्राप्ति के बाद जो अग्निपरीक्षा हुई, तो संपूर्ण संसार के लोगों ने सुना-देखा कि सीता पूर्णत: पवित्र हैं। लेकिन जिनके पास अच्छी या शुद्ध दृष्टि नहीं थी, उन लोगों के मन में यह भावना रही होगी कि सीता जी रावण के यहां रही थीं। राम जी के मन में था कि मेरे सम्बंध में कोई अपवाद नहीं होना चाहिए। महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में सीता को छोडऩे के पीछे ठोस कारण हैं।
जब कोई गर्भवती होती है, तो इस अवस्था में अभिभावक पूछते हैं कि आपके मन में कोई इच्छा हो, तो बताना। गर्भावस्था में जो इच्छाएं होती हैं, उनका संतति पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। 
राम जी ने भी सीता जी से पूछा, ‘आप मां बनने वाली हैं कोई भी मन में भावना हो, तो बतलाएं, मैं कोशिश करूंगा पूरी करने की।’ 
सीता जी ने कहा, ‘मुझे वन की याद बहुत आती है, कितना शांत वातावरण था, प्रकृति की सुंदरता आंखों से निकलती ही नहीं है, कहीं से वेद ध्वनि आ रही है, ऋषियों का आवागमन हो रहा है। लोग जप-तप में लगे हैं। उससे मन को बहुत प्रेरणा मिलती है। ऋषि जीवन स्वीकार करने के लिए प्रेरणा मिलती है। मैं चाहती हूं कि इस जीवन का लाभ लूं। जब बच्चों को आपके जैसा बनाना है, तो आप बहुत मदद नहीं कर पाएंगे। आप व्यस्त रहने वाले राजा हैं, तो बच्चों की जो देखभाल होनी चाहिए, वह नहीं हो पाएगी। आपने तो १४ वर्षों का संन्यासी जीवन बिताया, अयोध्या जी में बच्चे रहेंगे, तो उस जीवन से वंचित रह जाएंगे। उनमें राजसी भाव आ जाएगा, रघुवंशी भाव आ जाएगा, लेकिन ऋषित्व कैसे आएगा? मैं चाहती हूं कि ऋषियों के साथ उनकी छाया में अपने बच्चे बड़े हों। तपस्वी की तरह वे जिएं। ऐसे जीवन का प्रबंध आप कर सकें, तो करें।’
राम जी ने चर्चा की अपने मित्रों, भाइयों से, सभी लोग हिचक रहे थे। कितनी सुन्दर इच्छा है, बच्चे पहले ऋषि बनें, फिर राजा बनें। राम जी ने तपस्वी रहते हुए ही अनेक असुरों व रावण को मारा। कितना सम्मान दिया ऋषियों-महर्षियों को, अभी भी आपकी संपूर्ण जय-जयकार हो रही है। 
राम जी ने लक्ष्मण जी से कहा, ‘भाभी को जंगल में छोडक़र आओ।’ इसके लिए जानकी जी ने ही प्रेरित किया था। संदेह को बहाना बनाकर। राम जी भी चाहते थे कि उनके बच्चे केवल महाराजा ही नहीं बनें, ऋषित्व को भी प्राप्त करें। उनमें दोनों साथ-साथ रहे, इसके फलस्वरूप जानकी जी सहर्ष वाल्मीकि जी के आश्रम आ गईं। 
कहा गया है, जितना चिंतन बच्चों के लिए मां करती है, उतना कोई नहीं करता। माता की जिम्मेदारियां बड़ी होती हैं। लक्ष्मण जी ने वाल्मीकि जी के आश्रम के आसपास जानकी जी को छोड़ा था। वाल्मीकि जी रघुवंशियों से बहुत प्रभावित थे, उनका आत्मीय भाव था जानकी जी के लिए। उल्लेख मिलता है, सीता जी वनवास काल में राम जी के साथ पहले भी एक बार वाल्मीकि आश्रम जा चुकी थीं। उन्हें वहां बहुत अच्छा लगा था। 
जो लोग इस बात को नहीं समझते हैं, वे आक्रोश प्रकट करते हैं कि राम जी ने जानकी जी को जंगल में छोड़ दिया। यह जानना चाहिए, वन जाने का जो क्रम हुआ, उसमें मूल प्रेरक, मूल भावना जानकी जी की रही और उन्होंने अपनी संतति के भले के लिए ऐसा किया था। 
क्रमश:

मरा मरा से राम राम तक

भाग - ४
कहा जाता है, सौ करोड़ रामायणों की रचना हुई है। हर बार त्रेता में राम को प्रगट होना है। निरंतर उनके लिए लेखन होता रहता है। जितना राम जी पर लेखन हुआ है, उतना किसी भी अवतार के सम्बंध में लेखन नहीं हुआ। चाहे कोई भी अवतार हो, राम का अवतार सर्वाधिक चर्चित है। भगवान राम के सम्बंध में लेखन अद्भुत है। 
हां, वाल्मीकि जी ने यह अवश्य कहा, ‘मैं राम जी के चरित्र का गायन नहीं कर रहा हूं, मैं सीता के चरित्र का गायन कर रहा हूं।’ 
ग्रंथ की चेतना को महानायक से न जोडक़र उनकी जो प्राण वंदना हैं, उनकी जो अद्र्धांग्नि हैं, उनके नाम से जोड़ा। यह अनोखी बात है, ऐसा दुनिया में कहीं नहीं हुआ कि महानायक को छोडक़र उनकी सहभागिनी के नाम पर ग्रंथ रचा जाए। जहां राम जी की तूती बोल रही हो, जिन्होंने हजारों-हजारों वर्षों तक कण-कण को प्रभावित किया हो, अपना बनाया हो, वहां किसी दूसरे के चरित्र का गायन हो और सभी लोग उसको स्वीकार करें, विरोध न हो, यहां तक कि राम जी भी उसे स्वीकार करते हैं, यह तो अद्भुत बात हो जाएगी। राम जी के साथ महर्षि वाल्मीकि का जीवन पूर्ण रूप से जुड़ा हुआ जीवन है।
बहुत से लोगों का मानना है कि राम जी का जब अवतार हुआ, तो उसके पहले ही रामायण की रचना हो गई थी, अपनी दिव्य दृष्टि से वाल्मीकि ने देख लिया था। जो कुछ राम जी ने अपने अवतार काल में किया, उससे पहले ही उसका लेखन हो गया, ऐसा सनातन धर्म का पूर्ण विश्वास है। यह ऋषित्व के द्वारा ही संभव है, वह दिव्य प्रज्ञा से भूत, भविष्य को जान लेता है। वह वर्तमान को तो जानता ही जानता है। वाल्मीकि ने समाज के लिए, संसार के लिए बहुत बड़ा काम किया, क्रांति हुई। निश्चित रूप से सीता जी के साथ जो हुआ, उससे लोग आहत रहे होंगे, किन्तु वाल्मीकि रामायण का अध्ययन करने से उन्हें बड़ी शीतलता की प्राप्ति होगी।
लोकरंजन के लिए, लोगों को संतुष्ट करने के लिए, लोगों की भावनाओं को सम्मान देने के लिए गर्भावस्था में ही सीता जी को वनवास पर जाना पड़ा। सीता जी को वाल्मीकि जी की रचना से बहुत बल मिला होगा कि सीता चरित्र के लिए रामायण की रचना हुई। वाल्मीकि के रामायण में सीता चरित्र है, राम चरित्र नहीं है। राम जी महत्वपूर्ण चरित्र हैं, तो उसमें उनकी लीला आनी ही है, किन्तु वाल्मीकि जी स्पष्ट कहते हैं कि मैं सीता चरित्र लिख रहा हूं। 
मैं यह नहीं कहने जा रहा कि राम जी ने जो किया, उससे सीता के साथ अन्याय हुआ। मेरे पास ऐसे विचार हैं, जिनसे यह सिद्ध हो सकता है कि भगवान श्रीराम ने सीता जी को अपनी दुर्भावना या संदेह के कारण या सम्मान लेने के लिए गर्भावस्था में वाल्मीकि जी के आश्रम नहीं पहुंचाया था। 
क्रमश:

मरा मरा से राम राम तक

भाग - ३
जीवन के किसी क्षेत्र में कोई नया बड़ा आदमी आता है, तो वह बहुत दमखम के साथ लगता है अपने जीवन को सुधारने में। अपने जीवन को परिवर्तित करने में अपने जीवन को सुंदर बनाने में पूरे दमखम के साथ प्रयास करता है। रत्नाकर ने जपना शुरू किया और हजारों वर्षों तक जपा, उन पर दीमक लग गए, जप करते-करते एक जगह, दीमकों ने उन पर घर बना लिया। दीमक के घरों को ही वल्मीक बोलते हैं, इसलिए इनका नाम वाल्मीकि हो गया। संपूर्ण जीवन विशुद्ध हो गया, भगवान का नाम जपते हुए। रोम-रोम से जहां पाप प्रवाहित हो रहा था, वहां रोम-रोम से राम-राम प्रवाहित होने लगा। अध्यात्म और अहिंसा प्रवाहित होने लगी, रोम-रोम में संयम-नियम स्थापित हो गए। पाप की गुंजाइश ही खत्म हो गई, संपूर्ण जीवन विशुद्ध हो गया। इसी क्रम से रत्नाकर डाकू ने पूर्ण महर्षित्व को प्राप्त कर लिया। वाल्मीकि के नाम से तीनों लोक में ख्याति हुई। एक बहुत बड़ी क्रांति आई कि समाज के लिए जो अभिशाप बना हुआ था, जो मानवता के लिए कलंक था, ब्राह्मण जाति के लिए जो कलंक था, आज राम-राम की महिमा से वह मानवता के लिए वरदान बन गया। देवर्षि नारद के गुरुत्व की महिमा से कल्याण हो गया। उन्होंने ऋषित्व को उत्पन्न कर दिया। पूरे समाज के लिए एक आदर्श बना। मानवता का चरम प्राप्त हुआ। शास्त्र विरुद्ध आचरण के सबसे बड़े कर्ता का जीवन पूर्ण शास्त्रीय जीवन हो गया। शास्त्रों के संकेतों को दूर-दूर तक प्रसारित करने वाली जीह्वा से संपन्न जीवन प्राप्त हो गया। 
चारों ओर यही चर्चा थी, जो जहां सुनता था, उसे लगता था कि कितना भी तुच्छ जीवन हो, नीच जीवन हो, मर्यादा के विरुद्ध जीवन हो, लेकिन संतत्व की प्राप्ति संभव है। यदि ईश्वर में जीवन को लगाया जाए, तो परिवर्तन होगा। शास्त्रों की आज्ञा की जरूरत है। देवर्षि नारद के बताए मंत्र का सम्मान किया और पूर्ण विश्वास अर्जित किया। उन्होंने तपस्या से वह सब प्राप्त किया, जो वह लूटपाट से कभी प्राप्त नहीं कर सकते थे। राम नाम से सामान्य मनुष्य ही नहीं, मनुष्यता की पराकाष्ठा वाला जीवन भी संभव है। देवर्षि नारद की विद्या काम कर गई। हमारा जीवन कितना भी लांछित हो, निंदनीय हो, अभिशापित हो, कितना भी हमारा जीवन हेय हो, समाज के लिए अत्यंत नाकारा हो, किन्तु सही मार्गों से चलकर भी हम अपने जीवन को सुधार सकते हैं। सुधार ही नहीं सकते, उसे परम सौन्दर्य दे सकते हैं, उसको संसार के लिए मानवता के लिए परम उपयोगी बना सकते हैं, प्रेरणादायक बना सकते हैं। सभी लोगों को एक मार्ग की प्राप्ति हुई। 
आम धारणा है, जीवन में, समाज में धन कमाने के लिए भोग के लिए, सम्मान कमाने के लिए व्यक्ति न जाने कितना परिश्रम करता है, लेकिन उतना परिश्रम वह ईश्वर के लिए नहीं करता। लौकिक विद्या को कमाना भी साधारण काम नहीं है, कला के क्षेत्र में बड़े स्वरूप को कमाना भी कोई साधारण काम नहीं है, लेकिन जब आध्यात्मिक कमाई की बात होती है, तो लोग पीछे हट जाते हैं। आध्यात्मिक जीवन को भी उतना ही महत्व देना चाहिए। 
वे पूरे संसार के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। महर्षि वाल्मीकि आदिकाव्य के रचयिता हैं, जैसे वेदों के स्तर का दुनिया में कोई ग्रंथ नहीं है। वेद अनादि माने जाते हैं। ब्रह्मा जी भी केवल ग्रहण करते हैं, ऐसा कहा जाता है, वेदों में भी यह वाक्य आया है। 
वेदों की तुलना में कोई ग्रंथ किसी जाति, किसी राज्य, किसी संप्रदाय के पास नहीं है। कोई भी वेदों को नहीं काट सकता, उनकी ऊंचाई को प्राप्त नहीं कर सकता। वेदों को छोड़ दें, तो लौकिक भाषा में, लौकिक संस्कृति में सबसे पहला ग्रंथ महर्षि वाल्मीकि के ग्रंथ को माना गया। यह ध्यान देने योग्य बात है। संपूर्ण संसार में जितनी भाषाएं हैं, उन भाषाओं में किसी भी भाषा के पास महर्षि वाल्मीकि का महाकाव्य वाल्मीकि रामायण जैसा कोई ग्रंथ नहीं है। कितनी बड़ी बात है कि जब वेदों के बाद लौकिक संस्कृति के अनुरूप लौकिक रचना बनी, तो पहली रचना वाल्मीकि जी ने ही रची - वाल्मीकीय रामायण। 
वेदों को प्रमाण माना जाता है, महाभारत को, वाल्मीकि रामायण को इतिहास की कोटि में रखा जाता है। इतिहास का प्रतिपादन हुआ। तमाम तरह के विषय वाल्मीकि रामायण में ज्ञान, शरणागति, वेदों का वर्णन, यह अद्भुत महाकाव्य है। सबसे पहले भगवान के चरित्र का वर्णन लौकिक भाषा में हुआ। यह पूर्ण ग्रंथ माना जाता है। वाल्मीकि रामायण में प्रमुखता से राम का वर्णन हुआ। कहा जाता है, वेदों में राम जी का वर्णन नहीं हुआ, किन्तु वाल्मीकि रामायण जैसा बड़ा ग्रंथ बिना आधार के ही लिखा गया था क्या? यदि बिना आधार के लिखा गया होता, तो उसे कोई महत्व नहीं देता, कोई सम्मान नहीं देता। भगवान राम का चरित्र वेदों में भी था, लेकिन वो शाखाएं लुप्त हो गईं। वाल्मीकि रामायण की विशिष्टता और सत्यता पूर्ण प्रमाणित है। राम जी पूर्णावतार हैं, अद्भुत व्यक्तित्व हैं। 
११ हजार वर्षों का काल राम जी का रहा। कुछ विद्वानों ने व्याख्या करके यह भी अर्थ निकाला है कि राम जी का शासनकाल ३३ हजार वर्ष का था। राम जी पूर्ण ब्रह्म हैं, अवतारी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, गुणों की खान हैं, कोई भी हेय गुण उनमें नहीं है। संपूर्ण जीवन उनका उदार है। परम प्रेरणास्पद है, संतों को सुख पहुंचाने वाला है। 
क्रमश: 

मरा मरा से राम राम तक

भाग - २
कथा है, देवर्षि नारद को देखकर रत्नाकर टूट पड़े। देवर्षि नारद का जीवन दिव्य जीवन है, रोम-रोम से अद्भुत आभा प्रस्फुटित हो रही है। पूर्णत: निर्लिप्त जीवन है। डाकू रत्नाकर ने सोचा कि आज काफी कमाई होगी, ‘रुको जो भी है, दे दो, नहीं तो मार दूंगा।’
नारद जी ने कहा, ‘मेरे पास कुछ नहीं है, वीणा है और तन पर वस्त्र है, मेरे पास और क्या संपत्ति है?’ 
वाल्मीकि ने पूछा, ‘वीणा का क्या करते हो?’ 
देवर्षि ने उत्तर दिया, ‘वीणा बजाता हूं, ब्रह्मा जी ने प्रदान किया है, इस पर हरि कीर्तन करता हूं।’
‘हमें भी बजाकर सुनाओ।’
देवर्षि नारद से अच्छा वीणा कौन बजाएगा? वे तो ईश्वर को सुनाते हैं, सच्चे हृदय से बजाते हैं। संगीत भक्ति की ऊंचाइयों को प्राप्त होता है। वीणा की ध्वनि अनेक हृदयों को प्रभावित करती है। रत्नाकर को भी वीणा की ध्वनि ने प्रभावित किया, नरमी आई, रौद्र रूप में धीमापन आया। अच्छा लगा। उन्हें लगा कि विचित्र परिवर्तन आ रहा है। यही तो सत्संग है। फिर भी लंबे समय का पापी जीवन था, सहज परिवर्तन संभव नहीं था। 
उन्होंने कहा, ‘आपकी वीणा अच्छी है, मुझे भी अच्छी लगी। अब आपके साथ क्या व्यवहार किया जाए?’ 
देवर्षि ने कहा, ‘जो मेरे पास है, मैं दे दूंगा, लेकिन मेरा कुछ प्रश्न है, जिसका आप समाधान करें, तो बहुत ही अच्छा होगा।’ 
संत मिलते हैं, तो सत्संग होता है। संत मिलता है, तो ईश्वर की चर्चा करता है, परमार्थ की चर्चा, गुणों की चर्चा। जिनका जीवन ऊंचाई को प्राप्त होता है, उनकी चर्चा करता है। जीवन को सुंदर बनाने वाले तत्वों की चर्चा करता है। 
देवर्षि ने कहा, ‘आप जो काम करते हैं, यह तो बहुत बुरा है, यह तो महान पाप का जनक है। गलत कर्म जीवन, शरीर, मन को लांछित कर देता है, क्रूर बना देता है। आप जो दूसरों के लिए या दूसरों के साथ कर रहे हैं, उससे उत्पन्न होने वाले पापों के कारण आपकी उतने ही वर्षों तक दुर्गति होगी।’ 
रत्नाकर ने कहा, ‘मेरा बड़ा परिवार है, उसके पास दूसरा कोई साधन नहीं है जीवन जीने का, खेती नहीं है, नौकरी नहीं है, दूसरा कोई स्रोत नहीं है। जहां से दो रुपए आएं, पोषण हो। परिवार का विकास हो। स्वास्थ बने। ऐसा कोई भी संसाधन नहीं है। मेरी चेष्टा से ही हुई कमाई से ही मेरा परिवार चलता है।’ 
देवर्षि ने कहा, ‘ अपने परिजनों से पूछो कि तुम्हारे साथ में वे पाप के भागी बनेंगे या नहीं? तुम्हारी पाप की कमाई खाते हैं, तुम्हारा पाप अपने माथे लेंगे या नहीं।’
वाल्मीकि जी को लगा कि ये साधु भागना चाहता है, मुझे घर भेजकर, चालाकी कर रहा है। 
यह जानकर देवर्षि ने कहा, ‘यदि मुझ पर विश्वास नहीं है, तो मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि जब तक आप आओगेे नहीं, मैं जाऊंगा नहीं, विश्वास नहीं है, तो मेरे हाथ-पैर बांध दो।’ 
जैसे पाप से वे भोग कर रहे हैं, उससे होने वाले अधर्म में वे भागीदार बनेंगे या नहीं? यह बात रत्नाकर डाकू को भी ठीक प्रतीत हुई। उसने कहा, ‘ठीक है, मैं आपको बांध देता हूं।’
हाथ-पैर को बांध दिया और तब घर गया। घर जाकर पूछा, ‘मैं जो कमा करके लाता हूं, गलत काम करके, उसके कारण जो पाप उत्पन्न होते हैं, उस पाप में आपकी भागीदारी होगी या नहीं? पाप की कमाई से जो भोजन आता है, उसमें आप सब भागीदारी बनेंगे या नहीं?’
परिजनों ने कहा, ‘पाप में हमारी भागीदारी नहीं है। आप परिवार के मुखिया हैं, आप कहीं से भी संपत्ति लाएं और हमारा पालन-पोषण करें, आपके पाप में हमारी कोई भागीदारी नहीं है, यह बात आप समझ लीजिए।’ 
यह बात सुनकर रत्नाकर को बड़ा आघात लगा कि अरे, हत्या, लूटपाट से अर्जित धन में ये लोग भोगी हैं, लेकिन जो पाप उत्पन्न हो रहा है, उसमें भागीदार नहीं हैं, तो ये तो बहुत स्वार्थी लोग हो गए। ऐसे लोगों के साथ जीवन नहीं जीना चाहिए। कितना बड़ा पाप हो रहा है और ये लोग बंटवारा करना नहीं चाहते हैं, केवल लाभ लेना चाहते हैं। ये परिवार के लोग नहीं हैं, मेरे सगे नहीं हैं, ये तो दूसरे लोग हैं, मेरे अपने नहीं हैं। 
जो दुर्भावना थी, वह उनकी समझ में आ गई। यहां ऐसे ही लोग रहते हैं। हर आदमी को अपनी चिंता है, स्वार्थ की चिंता है। यह बात सर्वत्र व्याप्त है। 
वह आकर देवर्षि नारद के चरणों में गिर पड़े। बार-बार आग्रह किया, ‘हमें पाप कर्मों से बाहर निकालें। कैसे हम किए गए पापों की सजा पाएंगे? कैसे हम नवजीवन को प्राप्त करेंगे? कैसे हम सत्कर्म के जीवन का प्राप्त करेंगे, ऐसे जीवन को प्राप्त करेंगे, जो ईश्वर भक्ति से जुड़ा होगा। कैसे हमारा जीवन सुधरेगा। आप ही मार्ग बताइए।’ 
देवर्षि नारद ने कहा, ‘अपने सनातन धर्म में एक से एक संत महंत हैं, जिनके द्वारा कैसा भी जीव संत जीवन को प्राप्त कर लेता है, आप केवल मन बनाओ कि आपको अच्छा बनना है, आपको बुरे कर्मों से जुड़े नहीं रहना है। यह सबकुछ छोडऩा होगा, न लूट होगी, न हत्या होगी, न झूठ होगा, न फरेब होगा, न ऐसे लोगों की जिम्मेदारी होगी, जिनको केवल फल चाहिए। पूर्ण समर्पित होकर भगवान राम का जो नाम है उसे जपिए, उससे आपका उद्धार होगा। नाम में अद्भुत शक्ति है, यह नाम सबकुछ कर सकता है। आप नाम जपिए। राम, राम, राम, राम, राम करिए आप। यही मंत्र आपको मैं दे रहा हूं, इससे आपके जीवन में पूर्ण परिवर्तन आएगा, पूर्ण सुंदरता आएगी। संपूर्ण जीवन आपका जो अभी लांछित हो गया है, अनेक तरह से अवगुणों से दूषित हो गया है, सब ठीक हो जाएगा। 
रत्नाकर ने प्रयास किया, फिर कहा, ‘मेरे मुंह में यह शब्द आ ही नहीं रहा है। राम, राम कह ही नहीं सकता। मेरा शरीर दूषित है, दिव्य शब्द राम मेरे मुंह से उच्चरित नहीं हो सकता। श्रवण और कथन के लिए जो वातावरण चाहिए, जैसी शक्ति चाहिए, वह मेरे पास नहीं है, मैं राम, राम नहीं जप सकता।’ 
देवर्षि ने कोशिश की, लेकिन रत्नाकर के मुंह से राम शब्द नहीं निकल पाया।  
देवर्षि ने कहा, ‘ठीक है, आप राम राम नहीं जप सकते हैं, तो आप मरा, मरा ही जपिए।’ 
यह रत्नाकर को ठीक लगा, वे जिस गलत व्यवसाय में थे, उसमें मारो, मारो बोलते ही रहते थे, मारो, पीटो, लूटो, काटो। राम, राम तो नहीं जप पाए, पाप की अधिकता के कारण, लेकिन मरा मरा उन्होंने जपना शुरू किया। 
क्रमश:

आदिकवि महर्षि वाल्मीकि : मरा मरा से राम राम तक



 महर्षि वाल्मीकि जी अनूखे जीवन के ऋषि हैं। मानव जीवन पराकाष्ठा का जीवन है। हर आदमी अपने विकास के लिए प्रयास करता है और विकास होता ही है। सभी क्षेत्रों में हम अपना विकास चाहते हैं। धीरे-धीरे विकास होता है, लेकिन इस विकास का जो अंतिम क्रम है, वह ऋषित्व ही है। जहां विद्या की पराकाष्ठा है, तप की भी पराकाष्ठा है। मानवीय गुणों की पराकाष्ठा है। उनका जीवन संपूर्ण संसार के लिए है। इस स्थिति में महर्षि वाल्मीकि अनुपम हैं। 
महर्षि वाल्मीकि का जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ। पिछले कर्मों के आधार पर पारिवारिक सामाजिक आधार पर उनके जीवन में एक मोड़ आता है और जीविका का जो साधन है, जीवन निर्वाह के जो सही रास्ते हैं, उन्हें छोडक़र अत्यंत गिरे हुए रास्ते को वे पकड़ लेते हैं। मारकाट का जीवन, लूटपाट का जीवन, कदाचार, पापाचार का जीवन, उनकी सभी तरह की भावना विकृत थी, जो भी मिला, उसे लूटना, जो नहीं देता है, उसकी हत्या कर देना। ऐसे वे अपने जीवन का संचालन कर रहे थे, इस आधार पर जो आई हुई संपत्ति, संसाधन हैं, उससे परिवार का पोषण करते थे। परिवार का पोषण तो अनादि कर्म है, परिवार में जो बड़ा है, वो अपने से जुड़े हुए लोगों का पोषण करता है, लेकिन शक्ति और धन अर्जन का तरीका सही होना चाहिए। शास्त्रों के अनुरूप होना चाहिए, समाज की मर्यादा से भी सही हो, शासन की जो नियमावली है, कानून-कायदे हैं, उसके अनुरूप भी सही हो, तो ही सही रूप से सही जीवन, सही भावनाएं रहती हैं। महर्षि वाल्मीकि यानी तत्कालीन जीवन में रत्नाकर का जीवन अनेक पापों के साथ चल रहा है। उनका जीवन भ्रष्ट है। गलत संसाधनों के आधार पर उनका जीवन चल रहा था, वे समाज के लिए अभिशाप के रूप में हो गए थे, हर आदमी उनकी निंदा करता था कि ये कैसा आदमी है, ब्राह्मण होकर इतना निंदनीय और हेय जीवन जी रहा है। 
अचानक एक घटना होती है, दुर्भाग्यपूर्ण जीवन के अंत का एक संयोग बनता है। वैदिक सनातन धर्म के शास्त्रों में यह बात बार-बार दोहराई जाती है, किसी के जीवन में संत का प्रवेश हो, तो भला होता है। जब संत जुड़ता है किसी व्यक्ति के साथ, तो उसके जीवन में प्राण आता है, परिवर्तन आता है। क्रांति आती है, वह शुभ ही होती है। जीवन के विकास का बड़ा साधन बनाती है क्रांति। धीरे-धीरे जीवन ऊंचाई की ओर बढऩे लगता है और पराकाष्ठा को प्राप्त होता है। संतों के साथ जीवन के शुभ के लिए सशक्त साधन के रूप में सनातन धर्म मान्य है। समाज को अनादि काल से संत लोग प्रभावित करते रहे हैं, अपने ज्ञान, विज्ञान से सुधार करते रहे हैं, अपने सदाचार से ज्ञान, विज्ञान से, अपने उदार भाव, अपनी मानवीय भावना से, परमार्थ की भावना से। 
क्रमश: