महर्षि वाल्मीकि जी अनूखे जीवन के ऋषि हैं। मानव जीवन पराकाष्ठा का जीवन है। हर आदमी अपने विकास के लिए प्रयास करता है और विकास होता ही है। सभी क्षेत्रों में हम अपना विकास चाहते हैं। धीरे-धीरे विकास होता है, लेकिन इस विकास का जो अंतिम क्रम है, वह ऋषित्व ही है। जहां विद्या की पराकाष्ठा है, तप की भी पराकाष्ठा है। मानवीय गुणों की पराकाष्ठा है। उनका जीवन संपूर्ण संसार के लिए है। इस स्थिति में महर्षि वाल्मीकि अनुपम हैं।
महर्षि वाल्मीकि का जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ। पिछले कर्मों के आधार पर पारिवारिक सामाजिक आधार पर उनके जीवन में एक मोड़ आता है और जीविका का जो साधन है, जीवन निर्वाह के जो सही रास्ते हैं, उन्हें छोडक़र अत्यंत गिरे हुए रास्ते को वे पकड़ लेते हैं। मारकाट का जीवन, लूटपाट का जीवन, कदाचार, पापाचार का जीवन, उनकी सभी तरह की भावना विकृत थी, जो भी मिला, उसे लूटना, जो नहीं देता है, उसकी हत्या कर देना। ऐसे वे अपने जीवन का संचालन कर रहे थे, इस आधार पर जो आई हुई संपत्ति, संसाधन हैं, उससे परिवार का पोषण करते थे। परिवार का पोषण तो अनादि कर्म है, परिवार में जो बड़ा है, वो अपने से जुड़े हुए लोगों का पोषण करता है, लेकिन शक्ति और धन अर्जन का तरीका सही होना चाहिए। शास्त्रों के अनुरूप होना चाहिए, समाज की मर्यादा से भी सही हो, शासन की जो नियमावली है, कानून-कायदे हैं, उसके अनुरूप भी सही हो, तो ही सही रूप से सही जीवन, सही भावनाएं रहती हैं। महर्षि वाल्मीकि यानी तत्कालीन जीवन में रत्नाकर का जीवन अनेक पापों के साथ चल रहा है। उनका जीवन भ्रष्ट है। गलत संसाधनों के आधार पर उनका जीवन चल रहा था, वे समाज के लिए अभिशाप के रूप में हो गए थे, हर आदमी उनकी निंदा करता था कि ये कैसा आदमी है, ब्राह्मण होकर इतना निंदनीय और हेय जीवन जी रहा है।
अचानक एक घटना होती है, दुर्भाग्यपूर्ण जीवन के अंत का एक संयोग बनता है। वैदिक सनातन धर्म के शास्त्रों में यह बात बार-बार दोहराई जाती है, किसी के जीवन में संत का प्रवेश हो, तो भला होता है। जब संत जुड़ता है किसी व्यक्ति के साथ, तो उसके जीवन में प्राण आता है, परिवर्तन आता है। क्रांति आती है, वह शुभ ही होती है। जीवन के विकास का बड़ा साधन बनाती है क्रांति। धीरे-धीरे जीवन ऊंचाई की ओर बढऩे लगता है और पराकाष्ठा को प्राप्त होता है। संतों के साथ जीवन के शुभ के लिए सशक्त साधन के रूप में सनातन धर्म मान्य है। समाज को अनादि काल से संत लोग प्रभावित करते रहे हैं, अपने ज्ञान, विज्ञान से सुधार करते रहे हैं, अपने सदाचार से ज्ञान, विज्ञान से, अपने उदार भाव, अपनी मानवीय भावना से, परमार्थ की भावना से।
क्रमश:
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