Tuesday, 25 December 2018

रावण कैसे भटक गया?

(रावण होने की पृष्ठभूमि और विनाश से बचने का प्रशिक्षण)

मनुष्य जीवन को कुछ लोग फल के रूप में समझते हैं, साधन के रूप में समझते हैं, यह भूल होती है। इसके माध्यम से हमें बड़े फल की प्राप्ति करनी है। जीवन का हर दृष्टि से सुंदर व सशक्त होना और संपूर्ण मानवता के लिए कारगर होना। केवल अपने जीवन को ही हम सब मान लें कि इसको सजाना, संवारना है, अधिक से अधिक सशक्त बनाना है, भोग के साथ अधिक से अधिक जोडऩा है, किन्तु जीवन का यह अर्थ या उद्देश्य नहीं है। मनुष्य जीवन का जो उद्देश्य है, उसका वर्णन शास्त्रों ने किया, जिसका अवलंबन करके अपनी परंपरा में असंख्य लोग ब्रह्म जीवन के हो गए। यह तभी संभव है, जब हम किसी तरह की मनमानी नहीं करें। 
लिखा है गीता जी में कि जो लोग शास्त्र की रीति से जीवन जीते हैं, उन्हीं को जीवन की संपूर्ण अवस्था व संपूर्ण लाभ प्राप्त होते हैं। जो लोग ऐसा नहीं करते हैं, वे भले ही मनुष्य के जैसे दिखाए पड़ते हैं, लेकिन वे राक्षस हो जाते हैं। अपने लिए भी कुरूप हो जाते हैं और दूसरों के लिए भी कुरूप। उनका जीवन कहीं से प्रेरणादायक नहीं होता। न उन्हें सुख मिलता है, न सिद्धी मिलती है, उनका सबकुछ विनष्ट हो जाता है। क्या करना है और क्या नहीं करना है, यह सब शास्त्र के अनुरूप करना है। 
छोटी आयु में कहां ज्ञान था कि सत्य अलग होता है, असत्य अलग होता है। हमें कहां ज्ञान था कि माता अलग होती है, हमें क्या ज्ञान था कि क्या खाना है या क्या नहीं खाना है, भोजन कौन-सा पवित्र है। इसके लिए शास्त्रों पर पूर्ण विश्वास करके हम इसका अवलंबन करें और इसी के आधार पर हमारा व्यवहार तैयार हो, तो हमारा जीवन सही व्यावहारिक जीवन होगा। जो लोग केवल मनमानी से जीवन जीते हैं, उनका जीवन गड्ढे में चला जाता है, अत्यंत अभिशप्त जीवन हो जाता है, इसी को राक्षसी जीवन कहते हैं। 
राक्षस परलोक में विश्वास नहीं करता है कि मरने के बाद कुछ मिलने वाला है और न लोक में विश्वास करता है। ईश्वर में, दान में, न माता, न पिता, न कोई सम्बंध, सभी तरह से वह मनमानी करता है, केवल धन के लिए, केवल भोग के लिए जीवन जीता है। 
जो माता-पिता का ऋण है हमारे ऊपर, उसे जो महत्व नहीं दे, उसे जो लौटाने की कोशिश नहीं करे, वो राक्षस हो जाता है। इसीलिए लंका में रावण और उसके लोग आकृति में मनुष्य दिखते थे, किन्तु राक्षस थे। 
जो व्यक्ति शास्त्र की रीति को छोडक़र, ध्यान को छोडक़र, प्रेरणा को छोडक़र केवल काम के अनुसार केवल स्वेच्छाचारिता से अपना जीवन बिताता है, अपने विकास को संपादित करता है, उसे कभी सिद्धी नहीं मिलती। सही रीति से अगर कर्मों का संपादन हो, तो आदमी का मन निर्मल हो जाता है। मन में अत्यंत पवित्रता रहती है। मन की निर्मलता आदमी को हर तरह की सुविधा प्रदान करती है। खेत साफ होगा, जब उसमें बीज डाला जाएगा, तो वह अंकुरित होगा। पेड़ बनेगा, उस पर फूल होंंगे, फल होंगे। कोई मनमानी करेगा, तो उसे सच्चा सुख नहीं मिलेगा। गीता में लिखा है -
न स सिद्धिमवान्पोति न सुखं न परां गतिम्।  
जब हम राक्षसों के जीवन पर ध्यान देते हैं, जिनका जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ, ऋषि कुल में हुआ। पुलस्त्य ऋषि के वंश में रावण का जन्म हुआ। पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा का पुत्र रावण। ये ऐसे ऋषि थे, जिन्होंने वेदों को देखा था, शास्त्रार्थ किया था, जो मंत्र हैं, उसमें प्रयोग में आने वाले जो पदार्थ हैं, उनका जो स्मरण कराते हैं - मंत्र द्रष्टा होते हैं ऋषि। मंत्र के अभिप्राय को उन्होंने जाना था, साक्षात्कार किया था। ज्ञान की सर्वश्रेष्ठ अवस्था से जीवन जुड़ा था। रावण के पिता भी अच्छे ऋषि थे, उनमें भी कहीं से कमी नहीं थी।  
मन्त्रा: प्रयोगसमवेतार्थस्मारका: 
कुछ पुण्य था पिछले जन्म का तो अच्छे कुल में जन्म हो गया, किन्तु जन्म के बाद भी ज्ञान का अर्जन किया। पहले बताया जा चुका है, ज्ञान का जो प्राथमिक चरण है, जो पहली सीढ़ी है, वह परोक्ष ज्ञान की सीढ़ी है। परोक्ष ज्ञान मिलने के बाद भी व्यक्ति जीवन को धन्य नहीं बना पाता है। जानता है कि असत्य बोलना गलत है, किन्तु असत्य ही बोलता है। मालूम है, जो आदमी शुद्ध आहार नहीं लेगा, कभी भी उसमें ज्ञान-भक्ति-श्रद्धा भाव उत्पन्न नहीं होंगे। रावण को परोक्ष ज्ञान तो था, ब्राह्मण था, ज्ञानी था, किन्तु उसे अपरोक्ष ज्ञान नहीं था, वह ज्ञान को चरित्र में नहीं उतार सका। क्रमश:

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