भाग - तीन
जब अभियान करने वाला, ऑपरेशन करने वाला, बुराई को दूर करने वाला, नई ताजा, स्वच्छ और प्रबल धारा को स्थापित करने वाला व्यक्ति सही जीवन का नहीं होगा, तो उसके साथ कौन जुड़ेगा? इसीलिए इन दोनों समस्याओं के समाधान के लिए राम चरित्र से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। देखना होगा कि रामजी ने किन सूत्रों के आधार पर आतंकवाद या भ्रष्ट आचरण का विरोध किया। आप ध्यान दीजिए, राम जी लंका गए, लंका पर विजय प्राप्त किया, लेकिन वहां से एक किलो सोना भी लेकर नहीं आए, यदि आज के दौर के लोग गए होते, तो शायद सेना के लोग ही लूटकर ले आते, वहां इतनी नारियां थीं। रावण जब कहीं आक्रमण-अभियान के लिए चला जाता था, तो उसकी जितनी महिलाएं वहां होती थीं, मंदोदरी उन्हें कारागार में बंद करवा देती थी। रावण का क्या था, जहां गया, नारियों का हरण करके लाया, दो-तीन दिन साथ रखा, फिर कहीं गया तो फिर दूसरी-तीसरी ले आया। रावण को कहां ध्यान है? उस महिला को काम में लगाने का काम, दबाकर रखने का काम मंदोदरी देखती थीं। जब रावण मारा गया होगा और जब राम जी ने कहा होगा कि सबको स्वतंत्र कर दो, कोई भी कारागार में नहीं रहेगा, तो न जाने कितनी शोषित महिलाएं व तमाम दूसरे शोषित लोग छूटे होंगे। दूसरे सैनिक होते, तो पांच-पांच नारियों को साथ लेकर लौटते। नागों की, किन्नरों की, गंधर्वों की महिलाएं, फिर से हर ली जातीं। किन्तु रामजी की सेना थी, उसने कुछ नहीं किया। एक औरत नहीं, एक कोई आभूषण नहीं, एक सोना नहीं, कुछ भी नहीं, रामजी ने वहीं का वहीं सबकुछ उसे सौंप दिया, जो सही था। रावण का ही भाई, जो परिशुद्ध जीवन का है, जिसके विकार राम भाव में धुल चुके हैं। निस्संदेह, राम भाव आए बिना व राम भक्ति आए बिना जितने भी विकार खुराफात के कारण हैं, वे धुलते नहीं हैं। जल से सफाई धोने का श्रेष्ठ तरीका है। झाड़ऩे से भी पूरी गंदगी नहीं जाती है, पूरी गंदगी खत्म करने के लिए धोना पड़ता है। मस्तिष्क में जो मल या विकार हैं, काम, क्रोध, लोभ, भोग की भावना, ईष्र्या, इन सबकी एकमात्र सबसे बड़ी दवा है रामभाव। विभीषण को राम जी ने जब राजा घोषित किया, तो कहा कि आइए लंकेश, तो वह लजा गया कि राम जी को तो उसके मन की बात पहले से पता है। तब विभीषण ने कहा कि आपकी सेवा का मन है।
तुलसीदास जी ने विभीषण की बात को इस तरह लिखा है, उर कछु प्रथम बासना रही। पहले मेरे मन में कुछ वासना थी, भोग की, राजा बनने की, सजने की, पत्नियों की...। वैसे सात्विक व्यक्ति बहुत भोगी नहीं होता है। जो आदमी रजोगुणी है, वह बहुत भोगी होता है। दिन भर इसीमें लगा रहता है कि कुर्ता कौन-सा पहने, क्या खाए, क्या पीए, बाल कैसे झाड़े, कैसे उठे-बैठे कि अच्छा दिखे। हमारे चातुर्मास में एक लडक़ी आती थी, कभी बाल संवारे, तो इधर कर ले, तो कभी उधर कर ले। मैंने पूछा कि यह कौन लडक़ी है, उत्तर मिला, यह कथा करती है। अब बताइए, उसे यही समझ में नहीं आए कि बाल किधर कर लूं कि ठीक लगूं। यह दिशा, चिंतन ठीक नहीं है।
रावण जैसा भोगी था, लंपट था, उसमें आवश्यकता से बहुत ज्यादा संग्रह करने की प्रवृत्ति थी, किन्तु विभीषण में ऐसा नहीं था, क्योंकि वह सतोगुण प्रधान था। वातावरण, परिवेश, पिछले जन्म का कुछ पाप और जब लंका में वही-वही रोज हो रहा था, तो कुछ तो असर पड़ता ही है। फिर भी यदि उसे लगता है कि पापी क्यों राजा होगा, मैं राम-राम करने वाला क्यों राजा नहीं हो सकता, तो इसमें क्या अनुचित है। जब कोई अक्षम व्यक्ति भी बड़े पद पर बैठा रहता है, तो दूसरे व्यक्तियों को लगता है कि हम सक्षम हैं, हम ज्ञानी हैं, तो क्यों न हम उस पद पर बैठें, तो इसमें क्या अनुचित है?
तो तुलसीदास जी विभीषण की बात लिखते हैं, उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।
अर्थात पहले मेरे हृदय में कुछ वासना थी, किन्तु आपके चरणों में मेरी प्रीति ने सरिता का रूप धारण कर लिया। पहले आपका चिंतन करते-करते आपकी महिमा का ज्ञान बढ़ा। जब हनुमान जी लंका आए, आपकी महिमा का गान किया, तब मेरी प्रीति और बढ़ी और जब आपको देखा, तो मेरी प्रीति ने नदी का रूप धारण कर लिया और मेरे अंदर जो कुछ वासना थी, वह बह गई।
सही प्यार का क्या स्वरूप है? वैष्णव दर्शन में बताया गया है, जब प्रेम बढ़ता है, समाज में, जाति में, परिवार में, तो उसमें लेने का भाव कम होता है। देने-देने का ही भाव होता है। इसे वैष्णव दर्शन में तत्सुख सुखोत्तम कहते हैं। प्रिया को सुख मिले, यह प्रियतम की भावना होती है। यदि वह सुखी है, तो हम सुखी हैं और प्रिया सोचती है कि हमें अपने सुख की कोई परवाह नहीं, जो होगा देखा जाएगा, बस हमारा प्रेमी या प्रियतम खुश रहे। क्रमश:
जब अभियान करने वाला, ऑपरेशन करने वाला, बुराई को दूर करने वाला, नई ताजा, स्वच्छ और प्रबल धारा को स्थापित करने वाला व्यक्ति सही जीवन का नहीं होगा, तो उसके साथ कौन जुड़ेगा? इसीलिए इन दोनों समस्याओं के समाधान के लिए राम चरित्र से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। देखना होगा कि रामजी ने किन सूत्रों के आधार पर आतंकवाद या भ्रष्ट आचरण का विरोध किया। आप ध्यान दीजिए, राम जी लंका गए, लंका पर विजय प्राप्त किया, लेकिन वहां से एक किलो सोना भी लेकर नहीं आए, यदि आज के दौर के लोग गए होते, तो शायद सेना के लोग ही लूटकर ले आते, वहां इतनी नारियां थीं। रावण जब कहीं आक्रमण-अभियान के लिए चला जाता था, तो उसकी जितनी महिलाएं वहां होती थीं, मंदोदरी उन्हें कारागार में बंद करवा देती थी। रावण का क्या था, जहां गया, नारियों का हरण करके लाया, दो-तीन दिन साथ रखा, फिर कहीं गया तो फिर दूसरी-तीसरी ले आया। रावण को कहां ध्यान है? उस महिला को काम में लगाने का काम, दबाकर रखने का काम मंदोदरी देखती थीं। जब रावण मारा गया होगा और जब राम जी ने कहा होगा कि सबको स्वतंत्र कर दो, कोई भी कारागार में नहीं रहेगा, तो न जाने कितनी शोषित महिलाएं व तमाम दूसरे शोषित लोग छूटे होंगे। दूसरे सैनिक होते, तो पांच-पांच नारियों को साथ लेकर लौटते। नागों की, किन्नरों की, गंधर्वों की महिलाएं, फिर से हर ली जातीं। किन्तु रामजी की सेना थी, उसने कुछ नहीं किया। एक औरत नहीं, एक कोई आभूषण नहीं, एक सोना नहीं, कुछ भी नहीं, रामजी ने वहीं का वहीं सबकुछ उसे सौंप दिया, जो सही था। रावण का ही भाई, जो परिशुद्ध जीवन का है, जिसके विकार राम भाव में धुल चुके हैं। निस्संदेह, राम भाव आए बिना व राम भक्ति आए बिना जितने भी विकार खुराफात के कारण हैं, वे धुलते नहीं हैं। जल से सफाई धोने का श्रेष्ठ तरीका है। झाड़ऩे से भी पूरी गंदगी नहीं जाती है, पूरी गंदगी खत्म करने के लिए धोना पड़ता है। मस्तिष्क में जो मल या विकार हैं, काम, क्रोध, लोभ, भोग की भावना, ईष्र्या, इन सबकी एकमात्र सबसे बड़ी दवा है रामभाव। विभीषण को राम जी ने जब राजा घोषित किया, तो कहा कि आइए लंकेश, तो वह लजा गया कि राम जी को तो उसके मन की बात पहले से पता है। तब विभीषण ने कहा कि आपकी सेवा का मन है।
तुलसीदास जी ने विभीषण की बात को इस तरह लिखा है, उर कछु प्रथम बासना रही। पहले मेरे मन में कुछ वासना थी, भोग की, राजा बनने की, सजने की, पत्नियों की...। वैसे सात्विक व्यक्ति बहुत भोगी नहीं होता है। जो आदमी रजोगुणी है, वह बहुत भोगी होता है। दिन भर इसीमें लगा रहता है कि कुर्ता कौन-सा पहने, क्या खाए, क्या पीए, बाल कैसे झाड़े, कैसे उठे-बैठे कि अच्छा दिखे। हमारे चातुर्मास में एक लडक़ी आती थी, कभी बाल संवारे, तो इधर कर ले, तो कभी उधर कर ले। मैंने पूछा कि यह कौन लडक़ी है, उत्तर मिला, यह कथा करती है। अब बताइए, उसे यही समझ में नहीं आए कि बाल किधर कर लूं कि ठीक लगूं। यह दिशा, चिंतन ठीक नहीं है।
रावण जैसा भोगी था, लंपट था, उसमें आवश्यकता से बहुत ज्यादा संग्रह करने की प्रवृत्ति थी, किन्तु विभीषण में ऐसा नहीं था, क्योंकि वह सतोगुण प्रधान था। वातावरण, परिवेश, पिछले जन्म का कुछ पाप और जब लंका में वही-वही रोज हो रहा था, तो कुछ तो असर पड़ता ही है। फिर भी यदि उसे लगता है कि पापी क्यों राजा होगा, मैं राम-राम करने वाला क्यों राजा नहीं हो सकता, तो इसमें क्या अनुचित है। जब कोई अक्षम व्यक्ति भी बड़े पद पर बैठा रहता है, तो दूसरे व्यक्तियों को लगता है कि हम सक्षम हैं, हम ज्ञानी हैं, तो क्यों न हम उस पद पर बैठें, तो इसमें क्या अनुचित है?
तो तुलसीदास जी विभीषण की बात लिखते हैं, उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।
अर्थात पहले मेरे हृदय में कुछ वासना थी, किन्तु आपके चरणों में मेरी प्रीति ने सरिता का रूप धारण कर लिया। पहले आपका चिंतन करते-करते आपकी महिमा का ज्ञान बढ़ा। जब हनुमान जी लंका आए, आपकी महिमा का गान किया, तब मेरी प्रीति और बढ़ी और जब आपको देखा, तो मेरी प्रीति ने नदी का रूप धारण कर लिया और मेरे अंदर जो कुछ वासना थी, वह बह गई।
सही प्यार का क्या स्वरूप है? वैष्णव दर्शन में बताया गया है, जब प्रेम बढ़ता है, समाज में, जाति में, परिवार में, तो उसमें लेने का भाव कम होता है। देने-देने का ही भाव होता है। इसे वैष्णव दर्शन में तत्सुख सुखोत्तम कहते हैं। प्रिया को सुख मिले, यह प्रियतम की भावना होती है। यदि वह सुखी है, तो हम सुखी हैं और प्रिया सोचती है कि हमें अपने सुख की कोई परवाह नहीं, जो होगा देखा जाएगा, बस हमारा प्रेमी या प्रियतम खुश रहे। क्रमश:
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