श्री विधान जी, अर्थात श्रीमठ के हनुमंत, सीधे सज्जन मृदुभाषी संत, जब
जगदगुरु श्रीमठ में नहीं होते हैं तो विधान जी ही पूरी देख रेख करते हैं,
संतों की सेवा में कोई कमी नहीं, श्रीमठ में रहकर पढ़ रहे छोटे छोटे बच्चों
से घिरे रहने वाले, विधान जी सबके बाबा हैं, कोई बालक नेपाल से आया है तो
कोई बिहार से तो कोई पूर्वोत्तर भारत से, तो कोई राजस्थान से, विधान जी
कहते हैं, हमारा क्या त्याग है, त्याग तो इन बच्चों का है, घर बार से दूर,
माता पिता से दूर, बस दो बार खाना मिलता है, सन्यासी का जीवन है, त्याग तो
इन बच्चों का है. हम तो इनकी उम्र में चार पांच बार खाते थे, जेब में भूजा
रखते थे, जब भूख लगी खा लिया, बच्चे हैं, पढ़ लिख लेंगे तो कोई घर सांसारिक
जीवन में लौट जाएगा तो कोई सन्यासी बन जाएगा, कोई कहीं पढ़ाने लगेगा.
एक बालक बहुत विद्वान भी है, उसे संस्कृत में काफी कुछ याद है, मैं उससे
पूछता हूँ, क्या घर लौटना चाहते हो? वह बालक जवाब देता है, नहीं घर नहीं
लौटूंगा, यहीं रहूँगा पढूंगा.
विधान जी की छत्र छाया में बच्चे खुश हैं, और विधान जी तो तब खुश होते हैं
जब जगदगुरु श्रीमठ में विराजते हैं, विधान जी बहुत भाव बिभोर होकर कहते
हैं, हमारे लिए तो वही राम हैं. |
No comments:
Post a Comment