वनवास के लिए जाते हुए जब इलाहाबाद में राम पहुंचे, जानकी जी और लक्ष्मण के साथ, तो रात्रि विश्राम कर कर रहे हैं, तो वहां कान लगाकर महर्षि भरद्वाज ने सुना कि क्या बात करते हैं, उन्हें पता था कि राम राजा बनते-बनते जंगल को जा रहे हैं, तो उन्हें शंका थी कि राम के मन में भरत के लिए रोष होगा, शिकायत होगी, कैकेयी के लिए गलत भावना होगी, किन्तु ऐसा कुछ नहीं था।
राम जी को मनाने के क्रम में वन के लिए निकले भरत जी महर्षि भरद्वाज जी के पास आए, तब भरत जी को बहुत पीडि़त और चिंतित देखकर, महर्षि भरद्वाज ने भरत जी को समझाने के लिए कई तरह के प्रयास किए, भरत की शंकाओं के निवारण के प्रयास किए। कई तरह के प्रश्न किए महर्षि भरद्वाज ने, कई तरह की बात की। राम जी के बारे में भरत जी के मन में बन रही भावना को दूर किया। महर्षि भरद्वाज ने समझाया, 'मैं ऋषि हूं, हम उदासीन जीवन जीते हैं, हम गलत ढंग से किसी के पक्षधर नहीं होते, हम सबको अपना मानते हैं, हम सबकी भलाई का प्रयास करते हैं। मैं आपको एक ऐसी बात बतलाने जा रहा हूं, जिसे सुनकर आपको महान आश्चर्य होगा।
भरत जी ने कहा, 'बतलाइए।
भरद्वाज जी ने उत्तर दिया, 'जो कार्य व्यक्ति को नहीं करना चाहिए, वह मैंने किया। पति-पत्नी सो रहे हैं और कोई ऋषि जीवन का व्यक्ति कान लगाकर रात्रि में उनकी बात सुने, तो इससे गिरा हुआ कर्म क्या होगा, किन्तु राज्य-राष्ट्र के चरित्र को ध्यान में रखकर मैंने यह कार्य किया। जैसे ऋषि केवल दाढ़ी नहीं बढ़ाता, केवल माला ही नहीं पहनता, वह राष्ट्रहित के लिए जागता भी है, इसलिए मैंने सोचा कि राष्ट्र प्रधान है, व्यक्ति नहीं, इसलिए मैंने कान लगाकर सुना कि राम जी जानकी जी और लक्ष्मण जी के साथ बात क्या करते हैं? लिखा है तुलसीदास जी ने कि सम्पूर्ण रात्रि में भरत ही चर्चा का विषय रहे, चर्चा में एक बार भी भरत के लिए भत्र्सना का भाव नहीं आया, एक बार भी भरत की निंदा नहीं हुई, एक बार भी कोई गलत बात नहीं हुई, भरत की प्रशंसा में ही सम्पूर्ण रात्रि व्यतीत हो गई।
इसका अभिप्राय है कि भरत के लिए राज्य विच्छेद काल में और उसके बाद और सम्पूर्ण १४ वर्षों के वनवास काल में और वहां से लौट के आने के बाद भी हजारों वर्षों तक राम जी ने राज्य किया। इतने वर्षों में न जाने कितनी वार्ताएं हुई हैं, कितने लोगों से वनवास की चर्चा हुई होगी, किन्तु राम जी ने कभी नहीं कहा कि भरत गलत हैं। सारा कुछ जो हो रहा था, भरत के लिए ही हो रहा था, लेकिन उन्होंने कभी नहीं कहा। राम मानते हैं कि पुत्र का पहला कत्र्तव्य है कि पिता की भावना के लिए अपने को समर्पित करे, इसमें कहीं से कोई विकृति नहीं है, मैं राजा बनता हूं या भरत बनते हैं, क्या अंतर है?
इस सम्बंध में मैं भाव प्रकट करना चाह रहा हूं, जैसे हम अपने लिए कोई बुराई नहीं सोचते, हम अपने लिए कभी षड्यंत्र नहीं करते, हम स्वयं को कभी धोखा नहीं देते, हम स्वयं के लिए खलनायक नहीं होते, वैसे ही भाई को अभेद की भावना से सम्भालना चाहिए। भ्राता जो मेरा है, मेरे समान है, मुझमें और उसमें अभिन्नता है, मैं और वो, दोनों एक हैं। जैसे हम अपने लिए सदा असली भाव रखते हैं, कभी नकली नहीं रखते, खाने में, पढऩे में, लिखने में, जितने भी व्यवहार दुनिया में हैं, हम अपने लिए बहुत सम्भल कर व्यवहार करते हैं, मंशा के साथ व्यवहार करते हैं, वैसे ही भाई के लिए भी व्यवहार होना चाहिए। यदि इसी भावना से भाई के साथ व्यवहार करें, अभेद की भावना से, तो भगवान की दया से भातृत्व कभी भी लांछित नहीं होगा। कभी भी वह खलनायक नहीं होगा। निकृष्ट पृष्ठभूमि का नहीं होगा।
क्रमश:
राम जी को मनाने के क्रम में वन के लिए निकले भरत जी महर्षि भरद्वाज जी के पास आए, तब भरत जी को बहुत पीडि़त और चिंतित देखकर, महर्षि भरद्वाज ने भरत जी को समझाने के लिए कई तरह के प्रयास किए, भरत की शंकाओं के निवारण के प्रयास किए। कई तरह के प्रश्न किए महर्षि भरद्वाज ने, कई तरह की बात की। राम जी के बारे में भरत जी के मन में बन रही भावना को दूर किया। महर्षि भरद्वाज ने समझाया, 'मैं ऋषि हूं, हम उदासीन जीवन जीते हैं, हम गलत ढंग से किसी के पक्षधर नहीं होते, हम सबको अपना मानते हैं, हम सबकी भलाई का प्रयास करते हैं। मैं आपको एक ऐसी बात बतलाने जा रहा हूं, जिसे सुनकर आपको महान आश्चर्य होगा।
भरत जी ने कहा, 'बतलाइए।
भरद्वाज जी ने उत्तर दिया, 'जो कार्य व्यक्ति को नहीं करना चाहिए, वह मैंने किया। पति-पत्नी सो रहे हैं और कोई ऋषि जीवन का व्यक्ति कान लगाकर रात्रि में उनकी बात सुने, तो इससे गिरा हुआ कर्म क्या होगा, किन्तु राज्य-राष्ट्र के चरित्र को ध्यान में रखकर मैंने यह कार्य किया। जैसे ऋषि केवल दाढ़ी नहीं बढ़ाता, केवल माला ही नहीं पहनता, वह राष्ट्रहित के लिए जागता भी है, इसलिए मैंने सोचा कि राष्ट्र प्रधान है, व्यक्ति नहीं, इसलिए मैंने कान लगाकर सुना कि राम जी जानकी जी और लक्ष्मण जी के साथ बात क्या करते हैं? लिखा है तुलसीदास जी ने कि सम्पूर्ण रात्रि में भरत ही चर्चा का विषय रहे, चर्चा में एक बार भी भरत के लिए भत्र्सना का भाव नहीं आया, एक बार भी भरत की निंदा नहीं हुई, एक बार भी कोई गलत बात नहीं हुई, भरत की प्रशंसा में ही सम्पूर्ण रात्रि व्यतीत हो गई।
इसका अभिप्राय है कि भरत के लिए राज्य विच्छेद काल में और उसके बाद और सम्पूर्ण १४ वर्षों के वनवास काल में और वहां से लौट के आने के बाद भी हजारों वर्षों तक राम जी ने राज्य किया। इतने वर्षों में न जाने कितनी वार्ताएं हुई हैं, कितने लोगों से वनवास की चर्चा हुई होगी, किन्तु राम जी ने कभी नहीं कहा कि भरत गलत हैं। सारा कुछ जो हो रहा था, भरत के लिए ही हो रहा था, लेकिन उन्होंने कभी नहीं कहा। राम मानते हैं कि पुत्र का पहला कत्र्तव्य है कि पिता की भावना के लिए अपने को समर्पित करे, इसमें कहीं से कोई विकृति नहीं है, मैं राजा बनता हूं या भरत बनते हैं, क्या अंतर है?
इस सम्बंध में मैं भाव प्रकट करना चाह रहा हूं, जैसे हम अपने लिए कोई बुराई नहीं सोचते, हम अपने लिए कभी षड्यंत्र नहीं करते, हम स्वयं को कभी धोखा नहीं देते, हम स्वयं के लिए खलनायक नहीं होते, वैसे ही भाई को अभेद की भावना से सम्भालना चाहिए। भ्राता जो मेरा है, मेरे समान है, मुझमें और उसमें अभिन्नता है, मैं और वो, दोनों एक हैं। जैसे हम अपने लिए सदा असली भाव रखते हैं, कभी नकली नहीं रखते, खाने में, पढऩे में, लिखने में, जितने भी व्यवहार दुनिया में हैं, हम अपने लिए बहुत सम्भल कर व्यवहार करते हैं, मंशा के साथ व्यवहार करते हैं, वैसे ही भाई के लिए भी व्यवहार होना चाहिए। यदि इसी भावना से भाई के साथ व्यवहार करें, अभेद की भावना से, तो भगवान की दया से भातृत्व कभी भी लांछित नहीं होगा। कभी भी वह खलनायक नहीं होगा। निकृष्ट पृष्ठभूमि का नहीं होगा।
क्रमश:
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