धर्म के ज्ञान से ही व्यक्ति को जीने की कला आती है.
Sunday, 2 October 2016
महर्षि भारद्वाज : राम कथा के अनुपम प्रेमी
जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी |
भारद्वाज जी ने भी आभार जताया। भारद्वाज जी ने कहा कि मैंने जीवन में जो भी तप किया था, उसके फलस्वरूप हमें राम जी वनवासी रूप में प्राप्त हुए। वे भले ही लीला कर रहे हैं, किन्तु वे पूर्ण ब्रह्म हैं। वही सृष्टि के पालक, संचालक, संहारक हैं। ऐसे भगवान का दर्शन हुआ, लेकिन उस दर्शन का जो फल है, उसके परिणाम स्वरूप ही आपके दर्शन हुए। हमारा जीवन धन्य हुआ।
महर्षि भारद्वाज ने कहा कि
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं।।
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा।।
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित पयाग सुभाग हमारा।।
भारद्वाज जी ने स्वयं को धन्य माना।
भगवान अपने भक्तों को अपने से भी बड़ा मानते हैं। मेरा तो जीवन धन्य हो गया। उनके दर्शन से भी आपका दर्शन श्रेष्ठ है, उस दर्शन का फल है आपका दर्शन।
राम वियोग से पीडि़त भरत जी को सांत्वना देते हुए भारद्वाज जी ने अनेक तरह की बातें सुनाईं और चाह रहे थे कि भरत के मन में कोई विद्वेष उत्पन्न नहीं हो। अयोध्या का जो ऐतिहासिक और विश्व के लिए गौरव वाला संप्रभुता संपन्न अयोध्या का रघुवंश और वहां का जो साम्राज्य है, वह कोई छोटा-मोटा साम्राज्य नहीं है, पूरी दुनिया के लोग उससे प्रेरणा लेते हैं। वे उसे सर्वस्व सम्मान अर्पित करने की जगह मानते हैं। भरत के मन में यह बात चल रही थी कि अब राम जी हमारे लिए क्या सोचते हैं। राम जी देखेंगे, तो क्या बोलेंगे, कैसा व्यवहार करेंगे और भारद्वाज जी इसका संपूर्ण निराकरण करना चाहते हैं। दूसरे रामायणों में एक संकेत है, भारद्वाज जी ने कहा, जो काम नहीं करना चाहिए ऋषि परंपरा में रहने वालों को, वह भी मैंने किया।
ऋषि को जहां पति-पत्नी शयन, विश्राम कर रहे हों, वहां से गुजरना भी नहीं चाहिए। उन्हें सुनना, देखना नहीं चाहिए। यह बात मालूम होनी चाहिए कि राम जी १४ वर्ष के लिए जा रहे हैं। पिता को दिए वचन के पालन के लिए जा रहे हैं, मैं जानना चाहता था कि राम जी क्या सोच रहे हैं।
महर्षि भारद्वाज ने कहा कि मैंने रात्रि में कान लगाकर सुना कि राम जी, जानकी जी और लक्ष्मण जी क्या बात कर रहे हैं। उनके पूरे वार्तालाप में भरत के लिए कोई कलुषित भावना या प्रतिशोध की भावना नहीं थी। राम जी ने ऐसी कोई चर्चा नहीं की।
कैकयी ने वरदान मांगा था कि राजा हो जाए मेरा बेटा और राम जी वनवासी हो जाएं। भारद्वाज ऋषि के आश्रम में रात्रि भर राम जी सोए नहीं, केवल भरत की चर्चा करते रहे।
सुनहू भरत रघुवर मन माहीं। प्रेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं।।
लखन राम सीतहि अति प्रीति। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती।।
लखन जी, राम जी, जानकी जी के मन में तुम्हारे लिए बहुत प्रेम है। जितना अपने लिए प्रेम है, दूसरों के लिए प्रेम है, उससे भी ज्यादा तुम्हारे लिए प्रेम है। जिसके लिए प्रेम होता है, उसी के लिए चर्चा होती है।
आजकल गुरु जीवन जीने वाले लोग राष्ट्र के लिए चिंतित नहीं रहते, वे सोचते हैं कि हमें राष्ट्र से क्या लेना-देना। राष्ट्र के लिए कितने चिंतित हैं भारद्वाज जी? राम कथा वस्तुत: उनके रोम-रोम में प्रवाहित हो रही है। सही रूपों में प्रवाहित हो रही है, तभी तो उनको राम राज्य के लिए कितनी चिंता है। जब राष्ट्र ही नहीं रहेगा, तब संत कहां रहेंगे, कहां गुरु रहेंगे? ऋषियों को राज्य की बड़ी चिंता रहती है। राज्य अच्छे होंगे, तभी तो अच्छी तरह से धर्म-कर्म होंगे। ऋषि समस्याओं के लिए चिंतित होता था, निदान खोजता था, निदान के लिए समर्पित होता था, तभी समाधान होता था। किसानों का भी राष्ट्र है, कर्मचारियों का भी राष्ट्र है, सबमें राष्ट्रहित की जागरुकता होनी ही चाहिए। भरत जी को बहुत आनंद हुआ। अत्यंत विश्वास की प्राप्ति हुई। ऋषियों को हमारे लिए कितनी चिंता है। कभी भरत जी सोच भी नहीं सकते थे कि राम जी को जंगल में जाना पड़ेगा। भरत जी ने भारद्वाज ऋषि से कहा, आपने मुझे जीवन दान दिया, मैं तो डूबता जा रहा था। राम जी मुझसे कितना प्रेम करते थे, अब वे क्या सोचते होंगे। कितनी दुर्भावना उनके मन में आती होगी। मैं ऋणी हूं। रघुवंश आपका ऋणी रहेगा।
महर्षि भारद्वाज अत्यंंत जागरूक ऋषि है। ऋषि समाज, देश के लिए भी जागरूक होता था। उसे केवल अपनी भलाई की चिंता नहीं रहती थी। उसकी चिंता है कि हमें भी कोई पीड़ा नहीं हो और दूसरों को भी नहीं हो। हमारा जीवन जैसे प्रकाशित हुआ, वैसे ही दूसरों का जीवन भी प्रकाशित हो।
भारद्वाज जी की प्रेरणा से भरत जी को बड़ा संबल मिला। भरत जी भी भारद्वाज जी के आशीर्वाद से राम मिलन की यात्रा में आगे बढ़े।
राम जी को भगवान के रूप में प्रचारित करने का काम, रघुवंशियों के चरित्र को प्रचारित करने का कार्य भारद्वाज जी ने किया। राम जीवन के सबसे बड़े प्रचारक भारद्वाज जी ही है।
आजकल आश्रमों का निर्माण बहुत हो रहा है। संसाधनों के संग्रह से हो रहा है, सत्संग नहीं हो रहा है। संत खोजते हैं कि आश्रम मिल जाएं, संसाधन मिल जाएं, मठ बन जाएं। आश्रम जैसे-तैसे मिल जाता है, लेकिन उनका संतत्व, गुरुत्व अधूरा रह जाता है। वे संपूर्ण संतत्व से बहुत दूर रह जाते हैं। संतत्व को परिपक्व बनाने में आज के लोग पिछड़े जा रहे हैं। महर्षि वाल्मीकि ने कहा था कि वह क्या राष्ट्र है, जहां राम के लिए गौरव न हो। वह आश्रम क्या है, जहां राम चर्चा न हो। आज समाज को कौन-सा ऐसा आदर्श दिया जा सकता है, जिससे परिवर्तन आए, क्रांति आए। राम का संपूर्ण जीवन, उन सभी तत्वों से भरपूर है, अप्लावित है। राम जी मनुष्य जीवन को पूर्ण जीवन बना सकते हैं। कितना बड़ा स्वरूप है भगवान श्रीराम का। महर्षि भारद्वाज के आश्रम में निरंतर राम चर्चा का आयोजन होता रहता था। हमारे आश्रमों में भी जो बड़े संत आज भी हैं, सभी को राम चर्चा से जुडक़र अपने जीवन को दिव्य बनाने का प्रयास करना चाहिए। रामकथा का अर्जन कहीं-कहीं, कभी-कभी देखने को मिलता है। राम कथा रूपी गंगा निरंतर बहती रहनी चाहिए। सबको राम भक्ति की शक्ति मिलनी चाहिए, रामकथा-गंगा कभी बाधित नहीं होनी चाहिए।
जय श्री राम।
महर्षि भारद्वाज : राम कथा के अनुपम प्रेमी
भाग - ३
घर में हम परिवार की चर्चा करते हैं, बाहर निकलते हैं, तो संसार की चर्चा करते हैं, लेकिन हरि चर्चा नहीं होती। राम जी से जुडऩा चाहिए। हमारा विकास होना चाहिए, राम जी से हमें प्रीत होनी चाहिए। वह आजकल नहीं हो रहा है, हमारा जीवन केवल भौतिक बनकर रह जाता है, जीवन का परम उद्देश्य प्राप्त नहीं हो पाता है, हम साधना से दूर रह जाते हैं। सभी मनुष्यों को चाहे वे किसी भी भाषा, चिंतन के हों, संसार के सभी लोगों को ईश्वर के प्रति जुडऩा चाहिए। ईश्वर से जुड़ेंगे, तो हम बोलेंगे, तो दूसरा सुनेगा और दूसरा बोलेगा, तो हम सुनेंगे। जो मर्मज्ञ लोग हैं, जिन्होंने अपना जीवन धन्य कर लिया है या वे जो सामान्य रूप से अभी जान रहे हैं, हमें ईश्वर चर्चा से निरंतरता के साथ जुडऩा चाहिए। सत्संग से ही हमारा जीवन सफल होगा। जो परम ऊंचाई को प्राप्त लोग हैं, जैसे महर्षि याज्ञवल्क्य, उनकी बातों को सुनना ही चाहिए, परम कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।
मानव जीवन की सफलता के लिए राम चर्चा होनी ही चाहिए। भगवान की दया से भारद्वाज जी की प्रेरणा से याज्ञवल्क्य जी ने रामकथा को पूरी गहराई के साथ सुनाना शुरू किया। उनमें व्याख्यान की अद्भुत क्षमता थी, श्रोता अच्छे होते हैं, तो वक्ता का मन अति उत्साहित हो जाता है। तो भारद्वाज जी के माध्यम से प्रेरणा प्राप्त करके भगवान की महिमा को उन्होंने सुनाया। उन्हें परमानंद की अनुभूति हुई, जीवन का हर क्षण हर काल हर प्रबंध सभी सार्थक हो गए। अनभिज्ञता की बात कहीं नहीं रह गई।
आज के आश्रमों के सभी लोगों को इससे प्रेरणा लेने की जरूरत है। भौतिक चर्चा के साथ-साथ ईश्वर चर्चा भी होनी चाहिए। इससे ही हमारा जीवन सुधरेगा, हमारे जीवन में क्रांति आएगी, इससे हमारा जीवन प्रभावित होगा। अयोध्या से निकलने के बाद वनवास के लिए भगवान राम जब प्रयाग पहुंचते हैं, तब भारद्वाज जी के आश्रम में रुकते हैं। विशाल आत्मीय भाव और दिव्य तप और जप से भगवान श्रीराम अत्यंत प्रभावित हुए। महर्षि जी को मालूम हुआ कि राम जी को वनवास हुआ है, वे १४ वर्ष के लिए वन में रहेंगे और उनके छोटे भाई भरत राज्य संभालेंगे।
राम जी ने भारद्वाज जी को दंडवत किया, राम जी तपस्वी वेश में हैं। लीला का क्रम चल रहा है, महर्षि को सम्मान देना चाहिए। भारद्वाज जी ने भी उनका बड़ा सम्मान किया। ज्ञान, विज्ञान की चर्चाएं हुईं। राम जी के मन को टटोल करके उन्होंने पूछा, ‘आपके वनवास से रामराज्य की स्थापना में बहुत बल मिलेगा, जहां का राजा ही त्यागी हो, वहां प्रजा का तो विश्वास बनेगा, संबल मिलेगा ही।’
आपकी आज्ञा का पालन होना ही चाहिए। यहां रहूंगा, तो लोगों का आना-जाना लगा रहेगा, यहां एकांत में साधना का अवसर नहीं बनेगा। मैं लोगों की सेवा के लिए आया हूं, मैं यहां रहकर अयोध्या में ही रहने लगूंगा, इसलिए आप मुझे बताइए कि मैं कहां जाऊं।’
भगवान की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए महर्षि भारद्वाज जी ने राम जी को आगे का मार्ग बताया। राम जी वहां चले गए, वहां निवास किया। जीवन में हर तरह के मार्गदर्शकों की जरूरत होती है, शुभचिंतकों की जरूरत होती है। जिन लोगों को ज्ञान, विज्ञान प्राप्त हो, ऐसे लोगों का जीवन की सार्थकता के लिए निर्देशन लेना जरूरी है, इसलिए भगवान श्रीराम ने भारद्वाज जी से निर्देशन लिया। राम जी जब चित्रकूट चले गए, तब भरत जी प्रयाग पहुंचे। भरत जी पूरे दल-बल के साल राम जी को अयोध्या लौटाने के लिए चले थे। वे भारद्वाज जी के आश्रम पहुंचे। जैसे भारद्वाज जी ने राम जी का सम्मान किया था, वैसा ही सम्मान उन्होंने भरत जी का भी किया। भरत जी के साथ गए सभी परिजनों प्रजाजनों का भारद्वाज जी ने सम्मान किया। सत्कार का पूरा प्रबंध किया। जो किसी लौकिक व्यक्ति द्वारा संभव नहीं था, ऐसा सत्कार किया। भरत जी ने भव्यता का अनुभव किया।
क्रमश:
घर में हम परिवार की चर्चा करते हैं, बाहर निकलते हैं, तो संसार की चर्चा करते हैं, लेकिन हरि चर्चा नहीं होती। राम जी से जुडऩा चाहिए। हमारा विकास होना चाहिए, राम जी से हमें प्रीत होनी चाहिए। वह आजकल नहीं हो रहा है, हमारा जीवन केवल भौतिक बनकर रह जाता है, जीवन का परम उद्देश्य प्राप्त नहीं हो पाता है, हम साधना से दूर रह जाते हैं। सभी मनुष्यों को चाहे वे किसी भी भाषा, चिंतन के हों, संसार के सभी लोगों को ईश्वर के प्रति जुडऩा चाहिए। ईश्वर से जुड़ेंगे, तो हम बोलेंगे, तो दूसरा सुनेगा और दूसरा बोलेगा, तो हम सुनेंगे। जो मर्मज्ञ लोग हैं, जिन्होंने अपना जीवन धन्य कर लिया है या वे जो सामान्य रूप से अभी जान रहे हैं, हमें ईश्वर चर्चा से निरंतरता के साथ जुडऩा चाहिए। सत्संग से ही हमारा जीवन सफल होगा। जो परम ऊंचाई को प्राप्त लोग हैं, जैसे महर्षि याज्ञवल्क्य, उनकी बातों को सुनना ही चाहिए, परम कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।
मानव जीवन की सफलता के लिए राम चर्चा होनी ही चाहिए। भगवान की दया से भारद्वाज जी की प्रेरणा से याज्ञवल्क्य जी ने रामकथा को पूरी गहराई के साथ सुनाना शुरू किया। उनमें व्याख्यान की अद्भुत क्षमता थी, श्रोता अच्छे होते हैं, तो वक्ता का मन अति उत्साहित हो जाता है। तो भारद्वाज जी के माध्यम से प्रेरणा प्राप्त करके भगवान की महिमा को उन्होंने सुनाया। उन्हें परमानंद की अनुभूति हुई, जीवन का हर क्षण हर काल हर प्रबंध सभी सार्थक हो गए। अनभिज्ञता की बात कहीं नहीं रह गई।
आज के आश्रमों के सभी लोगों को इससे प्रेरणा लेने की जरूरत है। भौतिक चर्चा के साथ-साथ ईश्वर चर्चा भी होनी चाहिए। इससे ही हमारा जीवन सुधरेगा, हमारे जीवन में क्रांति आएगी, इससे हमारा जीवन प्रभावित होगा। अयोध्या से निकलने के बाद वनवास के लिए भगवान राम जब प्रयाग पहुंचते हैं, तब भारद्वाज जी के आश्रम में रुकते हैं। विशाल आत्मीय भाव और दिव्य तप और जप से भगवान श्रीराम अत्यंत प्रभावित हुए। महर्षि जी को मालूम हुआ कि राम जी को वनवास हुआ है, वे १४ वर्ष के लिए वन में रहेंगे और उनके छोटे भाई भरत राज्य संभालेंगे।
राम जी ने भारद्वाज जी को दंडवत किया, राम जी तपस्वी वेश में हैं। लीला का क्रम चल रहा है, महर्षि को सम्मान देना चाहिए। भारद्वाज जी ने भी उनका बड़ा सम्मान किया। ज्ञान, विज्ञान की चर्चाएं हुईं। राम जी के मन को टटोल करके उन्होंने पूछा, ‘आपके वनवास से रामराज्य की स्थापना में बहुत बल मिलेगा, जहां का राजा ही त्यागी हो, वहां प्रजा का तो विश्वास बनेगा, संबल मिलेगा ही।’
आपकी आज्ञा का पालन होना ही चाहिए। यहां रहूंगा, तो लोगों का आना-जाना लगा रहेगा, यहां एकांत में साधना का अवसर नहीं बनेगा। मैं लोगों की सेवा के लिए आया हूं, मैं यहां रहकर अयोध्या में ही रहने लगूंगा, इसलिए आप मुझे बताइए कि मैं कहां जाऊं।’
भगवान की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए महर्षि भारद्वाज जी ने राम जी को आगे का मार्ग बताया। राम जी वहां चले गए, वहां निवास किया। जीवन में हर तरह के मार्गदर्शकों की जरूरत होती है, शुभचिंतकों की जरूरत होती है। जिन लोगों को ज्ञान, विज्ञान प्राप्त हो, ऐसे लोगों का जीवन की सार्थकता के लिए निर्देशन लेना जरूरी है, इसलिए भगवान श्रीराम ने भारद्वाज जी से निर्देशन लिया। राम जी जब चित्रकूट चले गए, तब भरत जी प्रयाग पहुंचे। भरत जी पूरे दल-बल के साल राम जी को अयोध्या लौटाने के लिए चले थे। वे भारद्वाज जी के आश्रम पहुंचे। जैसे भारद्वाज जी ने राम जी का सम्मान किया था, वैसा ही सम्मान उन्होंने भरत जी का भी किया। भरत जी के साथ गए सभी परिजनों प्रजाजनों का भारद्वाज जी ने सम्मान किया। सत्कार का पूरा प्रबंध किया। जो किसी लौकिक व्यक्ति द्वारा संभव नहीं था, ऐसा सत्कार किया। भरत जी ने भव्यता का अनुभव किया।
क्रमश:
महर्षि भारद्वाज : राम कथा के अनुपम प्रेमी
भाग - २
दर्शन शास्त्र में बहुत महत्वपूर्ण बात बताई जाती है, विद्वता कैसे पैदा होती है, जिज्ञासा होती है, तभी विद्वता की शुरुआत होती है। जिज्ञासा वहां होती है, जहां संदेह रहता है, यह नियम है। जिसके सम्बंध में हमारा आकर्षण है, जिससे लाभ या हानि होने वाली है, ज्यों ही हम यह जानने की इच्छा करते हैं, जिज्ञासा होती है, फिर उसके बाद ही समाधान निकलता है, विद्वता उत्पन्न होती है।
भारद्वाज जी ने संदेह जताया। एक राम ने रावण के सभी करीबियों को मारा, जो अपनी पत्नी के अपहरण के बाद विलाप कर रहे थे, एक राम वह भी हैं, जिनकी महिमा गाई जा रही है, क्या वही व्यक्ति सामान्य लोगों के समान रो रहा है, बिलख रहा है, क्या यह वही राम हैं, जिनके नाम का भगवान शंकर जैसे देवता जप करते हैं। भगवान शंकर जी से पार्वती जी ने भी यही पूछा था, रामायण में लिखा है। भगवान शंकर से कहती हैं, आप दिन रात, राम, राम जपते रहते हैं, अत्यंत आदर के साथ जपते हैं। आपकी संपूर्ण शक्ति राम नाम जप रही है। आप जो चाहते हैं, वही होता है।
तो भारद्वाज जी वस्तुत: संशयग्रस्त नहीं हैं। जिज्ञासा के प्रयोजक तत्व हैं, संदेह, संशय, प्रयोजन। जिसे प्रयोजन नहीं होगा, वह संदेह नहीं करेगा, जिसे संदेह नहीं होगा, वह जिज्ञासा नहीं करेगा।
भारद्वाज जी ने जिज्ञासा की, ‘राम तत्व का अवलोकन करके बताइए, हृदय में हलचल है कि ये दो राम हैं या एक ही राम हैं?’
भारद्वाज जी संदेहग्रस्त नहीं हैं, लेकिन लिखा है शास्त्रों में कि ब्रह्म तत्व का ज्ञान होने पर ब्रह्म तत्व की चर्चा बंद नहीं होनी चाहिए, ठीक इसी तरह से राम तत्व का ज्ञान होने के बाद भी राम नाम श्रवण, चिंतन बंद नहीं होना चाहिए। ऐसे ही राम से संयुक्त कोई भी अनुष्ठान बंद नहीं होते। ईश्वर तत्व के ज्ञान के बाद छोटा व्यापार नहीं चलेगा, बड़ा व्यापार भी नहीं चलेगा, वह राम तत्व में ही लगा रहेगा। लोकनीति को ध्यान में रखकर पुरुषार्थ की परंपरा नहीं होती। ब्रह्म चर्चा हो, मर्यादित चर्चा हो। यह अनुपालन नहीं है, यह स्वभाव है। भारद्वाज जी ने महर्षि याज्ञवल्क्य जी जो मेले में आए थे, प्रयाग में आए थे, उनसे प्रश्न किया। प्रश्न के पीछे राम चर्चा के बिना एक क्षण न रहने वाली जो बात है, उसे उजागर किया। महर्षि याज्ञवल्क्य जैसा महात्मा हर किसी को प्राप्त नहीं हो सकता, तो मैं भी जिज्ञासु बनता हूं और ईश्वर को स्मरण करता हूं।
याज्ञवल्क्य जी ने कहा, ‘आप परम ज्ञानी हैं, आप सभी तत्वों से परिचित हैं, आपसे ज्यादा राम जी के सम्बंध में कौन जानता है? मैं समझ रहा हूं आपकी बात को, आप इसी बहाने राम चर्चा करवाना चाहते हैं, नहीं तो आपको कोई संदेह नहीं है, कोई अज्ञान नहीं है। चर्चा होगी, तो असंख्य लोग लाभ उठाएंगे, एक परंपरा शुरू होगी।’
समय ऐसे ही बिताना चाहिए, समय का संपूर्ण सदुपयोग होना चाहिए। भारद्वाज जी का जो प्रश्न है, राम जी के संदर्भ में वह उत्पादक संदेह है। वेदों में लिखा है, स्वाध्याय और प्रवचन से कभी विराम नहीं लेना चाहिए। मोक्ष की चर्चा होती रहनी चाहिए, मोक्ष को सुनना, समझना आवश्यक है।
शास्त्रों में जो तत्व मानव जीवन को उत्कर्ष देने वाले हैं, मानव जीवन की सफलता के जो सफल कारण हैं, उनकी चर्चा हमेशा होती रहनी चाहिए। हम सभी लोगों को इससे प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। महर्षि भारद्वाज को सबकुछ मालूम है राम तत्व के बारे में, लेकिन तब भी वे महर्षि याज्ञवल्क्य के माध्यम से सुनना चाहते हैं, ताकि लोग अधिक से अधिक लाभ उठाएं।
क्रमश:
दर्शन शास्त्र में बहुत महत्वपूर्ण बात बताई जाती है, विद्वता कैसे पैदा होती है, जिज्ञासा होती है, तभी विद्वता की शुरुआत होती है। जिज्ञासा वहां होती है, जहां संदेह रहता है, यह नियम है। जिसके सम्बंध में हमारा आकर्षण है, जिससे लाभ या हानि होने वाली है, ज्यों ही हम यह जानने की इच्छा करते हैं, जिज्ञासा होती है, फिर उसके बाद ही समाधान निकलता है, विद्वता उत्पन्न होती है।
भारद्वाज जी ने संदेह जताया। एक राम ने रावण के सभी करीबियों को मारा, जो अपनी पत्नी के अपहरण के बाद विलाप कर रहे थे, एक राम वह भी हैं, जिनकी महिमा गाई जा रही है, क्या वही व्यक्ति सामान्य लोगों के समान रो रहा है, बिलख रहा है, क्या यह वही राम हैं, जिनके नाम का भगवान शंकर जैसे देवता जप करते हैं। भगवान शंकर जी से पार्वती जी ने भी यही पूछा था, रामायण में लिखा है। भगवान शंकर से कहती हैं, आप दिन रात, राम, राम जपते रहते हैं, अत्यंत आदर के साथ जपते हैं। आपकी संपूर्ण शक्ति राम नाम जप रही है। आप जो चाहते हैं, वही होता है।
तो भारद्वाज जी वस्तुत: संशयग्रस्त नहीं हैं। जिज्ञासा के प्रयोजक तत्व हैं, संदेह, संशय, प्रयोजन। जिसे प्रयोजन नहीं होगा, वह संदेह नहीं करेगा, जिसे संदेह नहीं होगा, वह जिज्ञासा नहीं करेगा।
भारद्वाज जी ने जिज्ञासा की, ‘राम तत्व का अवलोकन करके बताइए, हृदय में हलचल है कि ये दो राम हैं या एक ही राम हैं?’
भारद्वाज जी संदेहग्रस्त नहीं हैं, लेकिन लिखा है शास्त्रों में कि ब्रह्म तत्व का ज्ञान होने पर ब्रह्म तत्व की चर्चा बंद नहीं होनी चाहिए, ठीक इसी तरह से राम तत्व का ज्ञान होने के बाद भी राम नाम श्रवण, चिंतन बंद नहीं होना चाहिए। ऐसे ही राम से संयुक्त कोई भी अनुष्ठान बंद नहीं होते। ईश्वर तत्व के ज्ञान के बाद छोटा व्यापार नहीं चलेगा, बड़ा व्यापार भी नहीं चलेगा, वह राम तत्व में ही लगा रहेगा। लोकनीति को ध्यान में रखकर पुरुषार्थ की परंपरा नहीं होती। ब्रह्म चर्चा हो, मर्यादित चर्चा हो। यह अनुपालन नहीं है, यह स्वभाव है। भारद्वाज जी ने महर्षि याज्ञवल्क्य जी जो मेले में आए थे, प्रयाग में आए थे, उनसे प्रश्न किया। प्रश्न के पीछे राम चर्चा के बिना एक क्षण न रहने वाली जो बात है, उसे उजागर किया। महर्षि याज्ञवल्क्य जैसा महात्मा हर किसी को प्राप्त नहीं हो सकता, तो मैं भी जिज्ञासु बनता हूं और ईश्वर को स्मरण करता हूं।
याज्ञवल्क्य जी ने कहा, ‘आप परम ज्ञानी हैं, आप सभी तत्वों से परिचित हैं, आपसे ज्यादा राम जी के सम्बंध में कौन जानता है? मैं समझ रहा हूं आपकी बात को, आप इसी बहाने राम चर्चा करवाना चाहते हैं, नहीं तो आपको कोई संदेह नहीं है, कोई अज्ञान नहीं है। चर्चा होगी, तो असंख्य लोग लाभ उठाएंगे, एक परंपरा शुरू होगी।’
समय ऐसे ही बिताना चाहिए, समय का संपूर्ण सदुपयोग होना चाहिए। भारद्वाज जी का जो प्रश्न है, राम जी के संदर्भ में वह उत्पादक संदेह है। वेदों में लिखा है, स्वाध्याय और प्रवचन से कभी विराम नहीं लेना चाहिए। मोक्ष की चर्चा होती रहनी चाहिए, मोक्ष को सुनना, समझना आवश्यक है।
शास्त्रों में जो तत्व मानव जीवन को उत्कर्ष देने वाले हैं, मानव जीवन की सफलता के जो सफल कारण हैं, उनकी चर्चा हमेशा होती रहनी चाहिए। हम सभी लोगों को इससे प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। महर्षि भारद्वाज को सबकुछ मालूम है राम तत्व के बारे में, लेकिन तब भी वे महर्षि याज्ञवल्क्य के माध्यम से सुनना चाहते हैं, ताकि लोग अधिक से अधिक लाभ उठाएं।
क्रमश:
महर्षि भारद्वाज : राम कथा के अनुपम प्रेमी
जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी |
ऋषियों का राम जी के साथ बड़ा प्रेम था और राम जी को ऋषियों से बड़ा पे्रेम था। ऋषियों की जो श्रेष्ठ परंपरा है, उसके अनुरूप भारद्वाज ऋषि ने मानवीय जीवन को ऋषित्व तक पहुंचाया और अनेक तरह की साधना करके, ईश्वर का साक्षात्कार संपादित करके, संपूर्ण जीवन को ईश्वर और मानवता के लिए समर्पित कर दिया। श्रेष्ठ ऋषि के रूप में भारद्वाज जी का नाम है। उनका निवास तीर्थराज प्रयाग में रहा, तीर्थों का जो राजा है। सनातन धर्म में चीजों का श्रेणीकरण है, सभी ने प्रयाग को तीर्थराज माना है। वहां मुख्य ऋषि के रूप में भारद्वाज जी का स्थान है। प्रयाग में तीन नदियों का संगम है, गंगा, यमुना, सरस्वती। इन तीन नदियों के पावन मंगलमय संगम पर भारद्वाज जी का आश्रम था, जहां वे निवास करते थे। जो भी उन्होंने ज्ञान, विज्ञान, जप, तप, संयम, नियम से अर्जित किया था, उससे वे अनेक लोगों को आलोकित करते थे। सब कुछ ईश्वर के लिए होता है, समष्टि के लिए होता है, संसार के लिए होता है। ऋषि जीवन केवल अपने को लाभान्वित करने के लिए नहीं होता। जैसे परिवार को चलाने के लिए उसका एक मुखिया बनाकर संचालन किया जाता है, ठीक उसी तरह से संत जन जप, तप, संयम, नियम से चलकर संपूर्ण ईश्वर को अर्पित रहते हैं और संपूर्ण संसार को ईश्वर का परिवार मानकर चलते हैं। ईश्वर सबके लिए समान रूप से है। संतों में भी ऋषियों में भी यही दशा या स्थिति होती है। भारद्वाज जी का प्रभाव विलक्षण था। महान चिंतकों में उनकी गणना होती थी, राम कथा को जन जन तक पहुंचाने में, राम कथा को प्रामाणिकता देने और उसे परम उपयोगी बनाने में भारद्वाज जी की बहुत बड़ी भूमिका है, ऐसा सभी लोग मानते हैं। वे निरंतर राम कथा का प्रवाह बनाए रखते थे। अपने आश्रम में राम कथा निरंतर उनकी प्रेरणा से चलती रहती थी। भारद्वाज जी रामभक्ति की परंपरा में अग्रणी ऋषि रहे हैं।
एक स्पष्ट उदाहरण है, अनादि परंपरा है, माघ मास में प्रयाग में मेला लगता है, जगह-जगह से लोग आते हैं, पूरे देश से और आकर नियम-कायदे से निवास करना, स्नान करना जप, तप करना, हवन करना, ईश्वर दर्शन करना और मेले में जहां भी सत्संग हो रहा है, वहां दर्शन-पूजन के लिए जाना, प्रवचन सुनने जाना। इतना बड़ा मेला दुनिया की किसी परंपरा नहीं है। लाखों लोग आते हैं, सत्संग का लाभ उठाते हैं, तो प्राचीन काल में जितने भी ऋषि, महर्षि आते थे, वे सभी भारद्वाज ऋषि के आश्रम में रुकते थे और सबको मान सम्मान मिलता था। वरिष्ठतम ऋषि तो वे थे ही उनसे सभी को लाभ होता था।
एक विचित्र घटना हुई। माघ मेले से महर्षि याज्ञवल्क्य जाने लगे, तो भारद्वाज ने कहा, ‘अभी आप मत जाइए, प्रेरणा हो रही है कि राम कथा सुनूं। राम अलग-अलग हैं या एक हैं? जो राजा दशरथ के यहां जन्म लिए, दशरथ कुमार हुए और सभी लोगों को ज्ञात है कौशल्या जी से उनका जन्म हुआ, वनवास भी हुआ और सीता जी का हरण हुआ, अनेक तरह से राम जी ने विलाप किया, अत्यंत रुष्ट हुए और रावण को मार दिया। एक तो यह राम हैं और दूसरे वो जिनके शंकर जी भी पुजारी हैं, जो श्रेष्ठ देवता हैं, संसार के नियामकों में से हैं। लोग राम जी का नाम लेते हैं, राम, राम, राम, निरंतर करते रहते हैं, ये दोनों राम एक ही हैं या अलग-अलग हैं?’
क्रमश:
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