जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी |
भारद्वाज जी ने भी आभार जताया। भारद्वाज जी ने कहा कि मैंने जीवन में जो भी तप किया था, उसके फलस्वरूप हमें राम जी वनवासी रूप में प्राप्त हुए। वे भले ही लीला कर रहे हैं, किन्तु वे पूर्ण ब्रह्म हैं। वही सृष्टि के पालक, संचालक, संहारक हैं। ऐसे भगवान का दर्शन हुआ, लेकिन उस दर्शन का जो फल है, उसके परिणाम स्वरूप ही आपके दर्शन हुए। हमारा जीवन धन्य हुआ।
महर्षि भारद्वाज ने कहा कि
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं।।
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा।।
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित पयाग सुभाग हमारा।।
भारद्वाज जी ने स्वयं को धन्य माना।
भगवान अपने भक्तों को अपने से भी बड़ा मानते हैं। मेरा तो जीवन धन्य हो गया। उनके दर्शन से भी आपका दर्शन श्रेष्ठ है, उस दर्शन का फल है आपका दर्शन।
राम वियोग से पीडि़त भरत जी को सांत्वना देते हुए भारद्वाज जी ने अनेक तरह की बातें सुनाईं और चाह रहे थे कि भरत के मन में कोई विद्वेष उत्पन्न नहीं हो। अयोध्या का जो ऐतिहासिक और विश्व के लिए गौरव वाला संप्रभुता संपन्न अयोध्या का रघुवंश और वहां का जो साम्राज्य है, वह कोई छोटा-मोटा साम्राज्य नहीं है, पूरी दुनिया के लोग उससे प्रेरणा लेते हैं। वे उसे सर्वस्व सम्मान अर्पित करने की जगह मानते हैं। भरत के मन में यह बात चल रही थी कि अब राम जी हमारे लिए क्या सोचते हैं। राम जी देखेंगे, तो क्या बोलेंगे, कैसा व्यवहार करेंगे और भारद्वाज जी इसका संपूर्ण निराकरण करना चाहते हैं। दूसरे रामायणों में एक संकेत है, भारद्वाज जी ने कहा, जो काम नहीं करना चाहिए ऋषि परंपरा में रहने वालों को, वह भी मैंने किया।
ऋषि को जहां पति-पत्नी शयन, विश्राम कर रहे हों, वहां से गुजरना भी नहीं चाहिए। उन्हें सुनना, देखना नहीं चाहिए। यह बात मालूम होनी चाहिए कि राम जी १४ वर्ष के लिए जा रहे हैं। पिता को दिए वचन के पालन के लिए जा रहे हैं, मैं जानना चाहता था कि राम जी क्या सोच रहे हैं।
महर्षि भारद्वाज ने कहा कि मैंने रात्रि में कान लगाकर सुना कि राम जी, जानकी जी और लक्ष्मण जी क्या बात कर रहे हैं। उनके पूरे वार्तालाप में भरत के लिए कोई कलुषित भावना या प्रतिशोध की भावना नहीं थी। राम जी ने ऐसी कोई चर्चा नहीं की।
कैकयी ने वरदान मांगा था कि राजा हो जाए मेरा बेटा और राम जी वनवासी हो जाएं। भारद्वाज ऋषि के आश्रम में रात्रि भर राम जी सोए नहीं, केवल भरत की चर्चा करते रहे।
सुनहू भरत रघुवर मन माहीं। प्रेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं।।
लखन राम सीतहि अति प्रीति। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती।।
लखन जी, राम जी, जानकी जी के मन में तुम्हारे लिए बहुत प्रेम है। जितना अपने लिए प्रेम है, दूसरों के लिए प्रेम है, उससे भी ज्यादा तुम्हारे लिए प्रेम है। जिसके लिए प्रेम होता है, उसी के लिए चर्चा होती है।
आजकल गुरु जीवन जीने वाले लोग राष्ट्र के लिए चिंतित नहीं रहते, वे सोचते हैं कि हमें राष्ट्र से क्या लेना-देना। राष्ट्र के लिए कितने चिंतित हैं भारद्वाज जी? राम कथा वस्तुत: उनके रोम-रोम में प्रवाहित हो रही है। सही रूपों में प्रवाहित हो रही है, तभी तो उनको राम राज्य के लिए कितनी चिंता है। जब राष्ट्र ही नहीं रहेगा, तब संत कहां रहेंगे, कहां गुरु रहेंगे? ऋषियों को राज्य की बड़ी चिंता रहती है। राज्य अच्छे होंगे, तभी तो अच्छी तरह से धर्म-कर्म होंगे। ऋषि समस्याओं के लिए चिंतित होता था, निदान खोजता था, निदान के लिए समर्पित होता था, तभी समाधान होता था। किसानों का भी राष्ट्र है, कर्मचारियों का भी राष्ट्र है, सबमें राष्ट्रहित की जागरुकता होनी ही चाहिए। भरत जी को बहुत आनंद हुआ। अत्यंत विश्वास की प्राप्ति हुई। ऋषियों को हमारे लिए कितनी चिंता है। कभी भरत जी सोच भी नहीं सकते थे कि राम जी को जंगल में जाना पड़ेगा। भरत जी ने भारद्वाज ऋषि से कहा, आपने मुझे जीवन दान दिया, मैं तो डूबता जा रहा था। राम जी मुझसे कितना प्रेम करते थे, अब वे क्या सोचते होंगे। कितनी दुर्भावना उनके मन में आती होगी। मैं ऋणी हूं। रघुवंश आपका ऋणी रहेगा।
महर्षि भारद्वाज अत्यंंत जागरूक ऋषि है। ऋषि समाज, देश के लिए भी जागरूक होता था। उसे केवल अपनी भलाई की चिंता नहीं रहती थी। उसकी चिंता है कि हमें भी कोई पीड़ा नहीं हो और दूसरों को भी नहीं हो। हमारा जीवन जैसे प्रकाशित हुआ, वैसे ही दूसरों का जीवन भी प्रकाशित हो।
भारद्वाज जी की प्रेरणा से भरत जी को बड़ा संबल मिला। भरत जी भी भारद्वाज जी के आशीर्वाद से राम मिलन की यात्रा में आगे बढ़े।
राम जी को भगवान के रूप में प्रचारित करने का काम, रघुवंशियों के चरित्र को प्रचारित करने का कार्य भारद्वाज जी ने किया। राम जीवन के सबसे बड़े प्रचारक भारद्वाज जी ही है।
आजकल आश्रमों का निर्माण बहुत हो रहा है। संसाधनों के संग्रह से हो रहा है, सत्संग नहीं हो रहा है। संत खोजते हैं कि आश्रम मिल जाएं, संसाधन मिल जाएं, मठ बन जाएं। आश्रम जैसे-तैसे मिल जाता है, लेकिन उनका संतत्व, गुरुत्व अधूरा रह जाता है। वे संपूर्ण संतत्व से बहुत दूर रह जाते हैं। संतत्व को परिपक्व बनाने में आज के लोग पिछड़े जा रहे हैं। महर्षि वाल्मीकि ने कहा था कि वह क्या राष्ट्र है, जहां राम के लिए गौरव न हो। वह आश्रम क्या है, जहां राम चर्चा न हो। आज समाज को कौन-सा ऐसा आदर्श दिया जा सकता है, जिससे परिवर्तन आए, क्रांति आए। राम का संपूर्ण जीवन, उन सभी तत्वों से भरपूर है, अप्लावित है। राम जी मनुष्य जीवन को पूर्ण जीवन बना सकते हैं। कितना बड़ा स्वरूप है भगवान श्रीराम का। महर्षि भारद्वाज के आश्रम में निरंतर राम चर्चा का आयोजन होता रहता था। हमारे आश्रमों में भी जो बड़े संत आज भी हैं, सभी को राम चर्चा से जुडक़र अपने जीवन को दिव्य बनाने का प्रयास करना चाहिए। रामकथा का अर्जन कहीं-कहीं, कभी-कभी देखने को मिलता है। राम कथा रूपी गंगा निरंतर बहती रहनी चाहिए। सबको राम भक्ति की शक्ति मिलनी चाहिए, रामकथा-गंगा कभी बाधित नहीं होनी चाहिए।
जय श्री राम।
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