भाग - ३
घर में हम परिवार की चर्चा करते हैं, बाहर निकलते हैं, तो संसार की चर्चा करते हैं, लेकिन हरि चर्चा नहीं होती। राम जी से जुडऩा चाहिए। हमारा विकास होना चाहिए, राम जी से हमें प्रीत होनी चाहिए। वह आजकल नहीं हो रहा है, हमारा जीवन केवल भौतिक बनकर रह जाता है, जीवन का परम उद्देश्य प्राप्त नहीं हो पाता है, हम साधना से दूर रह जाते हैं। सभी मनुष्यों को चाहे वे किसी भी भाषा, चिंतन के हों, संसार के सभी लोगों को ईश्वर के प्रति जुडऩा चाहिए। ईश्वर से जुड़ेंगे, तो हम बोलेंगे, तो दूसरा सुनेगा और दूसरा बोलेगा, तो हम सुनेंगे। जो मर्मज्ञ लोग हैं, जिन्होंने अपना जीवन धन्य कर लिया है या वे जो सामान्य रूप से अभी जान रहे हैं, हमें ईश्वर चर्चा से निरंतरता के साथ जुडऩा चाहिए। सत्संग से ही हमारा जीवन सफल होगा। जो परम ऊंचाई को प्राप्त लोग हैं, जैसे महर्षि याज्ञवल्क्य, उनकी बातों को सुनना ही चाहिए, परम कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।
मानव जीवन की सफलता के लिए राम चर्चा होनी ही चाहिए। भगवान की दया से भारद्वाज जी की प्रेरणा से याज्ञवल्क्य जी ने रामकथा को पूरी गहराई के साथ सुनाना शुरू किया। उनमें व्याख्यान की अद्भुत क्षमता थी, श्रोता अच्छे होते हैं, तो वक्ता का मन अति उत्साहित हो जाता है। तो भारद्वाज जी के माध्यम से प्रेरणा प्राप्त करके भगवान की महिमा को उन्होंने सुनाया। उन्हें परमानंद की अनुभूति हुई, जीवन का हर क्षण हर काल हर प्रबंध सभी सार्थक हो गए। अनभिज्ञता की बात कहीं नहीं रह गई।
आज के आश्रमों के सभी लोगों को इससे प्रेरणा लेने की जरूरत है। भौतिक चर्चा के साथ-साथ ईश्वर चर्चा भी होनी चाहिए। इससे ही हमारा जीवन सुधरेगा, हमारे जीवन में क्रांति आएगी, इससे हमारा जीवन प्रभावित होगा। अयोध्या से निकलने के बाद वनवास के लिए भगवान राम जब प्रयाग पहुंचते हैं, तब भारद्वाज जी के आश्रम में रुकते हैं। विशाल आत्मीय भाव और दिव्य तप और जप से भगवान श्रीराम अत्यंत प्रभावित हुए। महर्षि जी को मालूम हुआ कि राम जी को वनवास हुआ है, वे १४ वर्ष के लिए वन में रहेंगे और उनके छोटे भाई भरत राज्य संभालेंगे।
राम जी ने भारद्वाज जी को दंडवत किया, राम जी तपस्वी वेश में हैं। लीला का क्रम चल रहा है, महर्षि को सम्मान देना चाहिए। भारद्वाज जी ने भी उनका बड़ा सम्मान किया। ज्ञान, विज्ञान की चर्चाएं हुईं। राम जी के मन को टटोल करके उन्होंने पूछा, ‘आपके वनवास से रामराज्य की स्थापना में बहुत बल मिलेगा, जहां का राजा ही त्यागी हो, वहां प्रजा का तो विश्वास बनेगा, संबल मिलेगा ही।’
आपकी आज्ञा का पालन होना ही चाहिए। यहां रहूंगा, तो लोगों का आना-जाना लगा रहेगा, यहां एकांत में साधना का अवसर नहीं बनेगा। मैं लोगों की सेवा के लिए आया हूं, मैं यहां रहकर अयोध्या में ही रहने लगूंगा, इसलिए आप मुझे बताइए कि मैं कहां जाऊं।’
भगवान की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए महर्षि भारद्वाज जी ने राम जी को आगे का मार्ग बताया। राम जी वहां चले गए, वहां निवास किया। जीवन में हर तरह के मार्गदर्शकों की जरूरत होती है, शुभचिंतकों की जरूरत होती है। जिन लोगों को ज्ञान, विज्ञान प्राप्त हो, ऐसे लोगों का जीवन की सार्थकता के लिए निर्देशन लेना जरूरी है, इसलिए भगवान श्रीराम ने भारद्वाज जी से निर्देशन लिया। राम जी जब चित्रकूट चले गए, तब भरत जी प्रयाग पहुंचे। भरत जी पूरे दल-बल के साल राम जी को अयोध्या लौटाने के लिए चले थे। वे भारद्वाज जी के आश्रम पहुंचे। जैसे भारद्वाज जी ने राम जी का सम्मान किया था, वैसा ही सम्मान उन्होंने भरत जी का भी किया। भरत जी के साथ गए सभी परिजनों प्रजाजनों का भारद्वाज जी ने सम्मान किया। सत्कार का पूरा प्रबंध किया। जो किसी लौकिक व्यक्ति द्वारा संभव नहीं था, ऐसा सत्कार किया। भरत जी ने भव्यता का अनुभव किया।
क्रमश:
घर में हम परिवार की चर्चा करते हैं, बाहर निकलते हैं, तो संसार की चर्चा करते हैं, लेकिन हरि चर्चा नहीं होती। राम जी से जुडऩा चाहिए। हमारा विकास होना चाहिए, राम जी से हमें प्रीत होनी चाहिए। वह आजकल नहीं हो रहा है, हमारा जीवन केवल भौतिक बनकर रह जाता है, जीवन का परम उद्देश्य प्राप्त नहीं हो पाता है, हम साधना से दूर रह जाते हैं। सभी मनुष्यों को चाहे वे किसी भी भाषा, चिंतन के हों, संसार के सभी लोगों को ईश्वर के प्रति जुडऩा चाहिए। ईश्वर से जुड़ेंगे, तो हम बोलेंगे, तो दूसरा सुनेगा और दूसरा बोलेगा, तो हम सुनेंगे। जो मर्मज्ञ लोग हैं, जिन्होंने अपना जीवन धन्य कर लिया है या वे जो सामान्य रूप से अभी जान रहे हैं, हमें ईश्वर चर्चा से निरंतरता के साथ जुडऩा चाहिए। सत्संग से ही हमारा जीवन सफल होगा। जो परम ऊंचाई को प्राप्त लोग हैं, जैसे महर्षि याज्ञवल्क्य, उनकी बातों को सुनना ही चाहिए, परम कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।
मानव जीवन की सफलता के लिए राम चर्चा होनी ही चाहिए। भगवान की दया से भारद्वाज जी की प्रेरणा से याज्ञवल्क्य जी ने रामकथा को पूरी गहराई के साथ सुनाना शुरू किया। उनमें व्याख्यान की अद्भुत क्षमता थी, श्रोता अच्छे होते हैं, तो वक्ता का मन अति उत्साहित हो जाता है। तो भारद्वाज जी के माध्यम से प्रेरणा प्राप्त करके भगवान की महिमा को उन्होंने सुनाया। उन्हें परमानंद की अनुभूति हुई, जीवन का हर क्षण हर काल हर प्रबंध सभी सार्थक हो गए। अनभिज्ञता की बात कहीं नहीं रह गई।
आज के आश्रमों के सभी लोगों को इससे प्रेरणा लेने की जरूरत है। भौतिक चर्चा के साथ-साथ ईश्वर चर्चा भी होनी चाहिए। इससे ही हमारा जीवन सुधरेगा, हमारे जीवन में क्रांति आएगी, इससे हमारा जीवन प्रभावित होगा। अयोध्या से निकलने के बाद वनवास के लिए भगवान राम जब प्रयाग पहुंचते हैं, तब भारद्वाज जी के आश्रम में रुकते हैं। विशाल आत्मीय भाव और दिव्य तप और जप से भगवान श्रीराम अत्यंत प्रभावित हुए। महर्षि जी को मालूम हुआ कि राम जी को वनवास हुआ है, वे १४ वर्ष के लिए वन में रहेंगे और उनके छोटे भाई भरत राज्य संभालेंगे।
राम जी ने भारद्वाज जी को दंडवत किया, राम जी तपस्वी वेश में हैं। लीला का क्रम चल रहा है, महर्षि को सम्मान देना चाहिए। भारद्वाज जी ने भी उनका बड़ा सम्मान किया। ज्ञान, विज्ञान की चर्चाएं हुईं। राम जी के मन को टटोल करके उन्होंने पूछा, ‘आपके वनवास से रामराज्य की स्थापना में बहुत बल मिलेगा, जहां का राजा ही त्यागी हो, वहां प्रजा का तो विश्वास बनेगा, संबल मिलेगा ही।’
आपकी आज्ञा का पालन होना ही चाहिए। यहां रहूंगा, तो लोगों का आना-जाना लगा रहेगा, यहां एकांत में साधना का अवसर नहीं बनेगा। मैं लोगों की सेवा के लिए आया हूं, मैं यहां रहकर अयोध्या में ही रहने लगूंगा, इसलिए आप मुझे बताइए कि मैं कहां जाऊं।’
भगवान की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए महर्षि भारद्वाज जी ने राम जी को आगे का मार्ग बताया। राम जी वहां चले गए, वहां निवास किया। जीवन में हर तरह के मार्गदर्शकों की जरूरत होती है, शुभचिंतकों की जरूरत होती है। जिन लोगों को ज्ञान, विज्ञान प्राप्त हो, ऐसे लोगों का जीवन की सार्थकता के लिए निर्देशन लेना जरूरी है, इसलिए भगवान श्रीराम ने भारद्वाज जी से निर्देशन लिया। राम जी जब चित्रकूट चले गए, तब भरत जी प्रयाग पहुंचे। भरत जी पूरे दल-बल के साल राम जी को अयोध्या लौटाने के लिए चले थे। वे भारद्वाज जी के आश्रम पहुंचे। जैसे भारद्वाज जी ने राम जी का सम्मान किया था, वैसा ही सम्मान उन्होंने भरत जी का भी किया। भरत जी के साथ गए सभी परिजनों प्रजाजनों का भारद्वाज जी ने सम्मान किया। सत्कार का पूरा प्रबंध किया। जो किसी लौकिक व्यक्ति द्वारा संभव नहीं था, ऐसा सत्कार किया। भरत जी ने भव्यता का अनुभव किया।
क्रमश:
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