भाग - ७
क्या कहा प्रह्लाद जी ने सुनिए। कहा कि प्रभु, हमें आपसे कुछ नहीं चाहिए। भगवान ने कहा कि मांगों बहुत खुश हूं। प्रह्लाद जी ने कहा, मैंने वणिक भक्ति नहीं की है। बनिया वाली भक्ति नहीं की, सामान देना और उसके बदले में पैसा लेना। एक हाथ से लो, एक हाथ से दो। हमने आपकी सेवा की, समर्पित हुआ, भजन किया, स्मरण किया, जो भी नवधा भक्ति के स्वरूप हैं, किन्तु ये सब हमारे किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए नहीं हैं। इसके लिए हमें कोई ‘रिटर्निंग गिफ्ट’ नहीं चाहिए। यह सब हमने आपकी सेवा के लिए किया। इसका कोई सकाम उद्देश्य नहीं था। जो किया, निष्काम भाव से किया। हमारे पास जो भी आपका दिया था, वो आपको दिया, कुछ लेने के लिए नहीं दिया।
भक्त अपने स्वामी के लिए सर्वस्व अर्पित करता है, उसकी खुशहाली के लिए उसके बदले में कभी नहीं कहता कि हमें भी आप कुछ दीजिए। यही भक्ति का सबसे बड़ा सिद्धांत है - तत्सुखे सुखम्
उसके सुख में सुखी रहना। अपने सुख की परवाह नहीं करना। ऐसी गोपियां हुईं, तुलसीदास जी हुए, अनेक संत हुए, जिन्होंने कभी नहीं कहा कि हमें कुछ चाहिए। हमने वणिक भक्ति नहीं की।
तो प्रह्लाद जी के बहुत मना करने बावजूद नरसिंह भगवान ने जोर देकर कहा कि मांगो, कुछ मांगो।
तब प्रह्लाद जी ने कहा, ऐसी कृपा करें भगवान कि मेरी इच्छा ही जल जाए। जिस बीज को हम दग्ध भाव कर देते हैं, मतलब सिंकाई हो गई, तो उसमें से अंकुर नहीं निकलते हैं। आशीर्वाद दीजिए कि मेरे मन में कोई इच्छा ही नहीं हो। सारी इच्छाएं जल जाएं। अब क्या इच्छा, जब आप मिल गए। जब मेरा मन आपका हो गया, हमारी इन्द्रियां आपकी हो गईं, अब क्या? इच्छा दुखदायक है, नहीं चाहिए कुछ भी।
यहां तक कह दिया प्रह्लाद जी ने, कोई जब संपूर्ण इच्छाओं को छोड़ता है, तो देवता हो जाता है। प्रयास करना चाहिए कि कम से कम इच्छाएं हों। जैसे गृहिणी कम इच्छा करे, सास-ससुर की सेवा करे, परिवार की सेवा करे, कोई इच्छा न करे कि यहां ले चलो, वहां ले चलो, ये चाहिए, वो चाहिए। इच्छाएं सब खत्म होंगी, तो वह देवी बन जाएगी।
प्रह्लाद जी ने कहा - ईश्वर को समर्पित होकर इच्छाओं से हीन होकर भगवान के सदृश हो जाता है जीव। आज भी प्रह्लाद जी का जोड़ नहीं है। अभावग्रस्त परिवेश वाले कोल, भील का कोई जोड़ नहीं मिल रहा है, गोपियां तो उनसे श्रेष्ठ स्थिति में हैं, आलवार संतों का कोई जोड़ नहीं मिल रहा है। अनेक महात्मा, ऋषि, संत इस देश में हुए, जिन्होंने बिना स्वार्थ संसार की सेवा की। आवश्यकता है प्रह्लाद जी से सीखने की, उनसे प्रेरणा लेने की। प्रह्लाद जी ने बहुत कहने के बाद भी कुछ भी नहीं मांगा। कह दिया, नहीं चाहिए।
मैं पहले भी कह चुका हूं, जो भगवान की सभी दृष्टि से सेवा करेगा, जो ऐसी भक्ति करेगा, उसे लोक और परलोक, दोनों मिलेंगे। उसका कोई अभाव शेष नहीं रहेगा। दुनिया का कोई ऐसा सोपान नहीं, कोई ऐसा गंतव्य नहीं, इसलिए नहीं चाहने पर भी प्रह्लाद जी को भगवान ने राजा बना दिया। किसी को बड़ा फल देना हो, तो पात्र को ही देगा, अपनों को ही देगा, प्रिय को ही देगा। जो मूर्ख है, वह अक्षम बेटे को, पापी बेटे को भी दे देता है। यहां तो ईश्वर को दिया ईश्वर ने।
ऐसे ही संसार के लोगों को धैर्य के साथ सभी कामों में लगे रहना चाहिए। मैंने भी जीवन में अभाव में ही शुरुआत की, किन्तु मुझे भगवान ने सब दिया, रोटी कपड़ा, मान, स्नेह, आत्मीयता, किन्तु मैं हमेशा ध्यान रखता हूं कि मेरा जो ईश्वरीय समर्पण है, वह कभी नीचे नहीं हो जाए। संपूर्ण वरीयता रहनी चाहिए। जो मिला हुआ प्रसाद है भक्ति, ज्ञान, उनका प्रयोग बना रहे।
क्रमश:
क्या कहा प्रह्लाद जी ने सुनिए। कहा कि प्रभु, हमें आपसे कुछ नहीं चाहिए। भगवान ने कहा कि मांगों बहुत खुश हूं। प्रह्लाद जी ने कहा, मैंने वणिक भक्ति नहीं की है। बनिया वाली भक्ति नहीं की, सामान देना और उसके बदले में पैसा लेना। एक हाथ से लो, एक हाथ से दो। हमने आपकी सेवा की, समर्पित हुआ, भजन किया, स्मरण किया, जो भी नवधा भक्ति के स्वरूप हैं, किन्तु ये सब हमारे किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए नहीं हैं। इसके लिए हमें कोई ‘रिटर्निंग गिफ्ट’ नहीं चाहिए। यह सब हमने आपकी सेवा के लिए किया। इसका कोई सकाम उद्देश्य नहीं था। जो किया, निष्काम भाव से किया। हमारे पास जो भी आपका दिया था, वो आपको दिया, कुछ लेने के लिए नहीं दिया।
भक्त अपने स्वामी के लिए सर्वस्व अर्पित करता है, उसकी खुशहाली के लिए उसके बदले में कभी नहीं कहता कि हमें भी आप कुछ दीजिए। यही भक्ति का सबसे बड़ा सिद्धांत है - तत्सुखे सुखम्
उसके सुख में सुखी रहना। अपने सुख की परवाह नहीं करना। ऐसी गोपियां हुईं, तुलसीदास जी हुए, अनेक संत हुए, जिन्होंने कभी नहीं कहा कि हमें कुछ चाहिए। हमने वणिक भक्ति नहीं की।
तो प्रह्लाद जी के बहुत मना करने बावजूद नरसिंह भगवान ने जोर देकर कहा कि मांगो, कुछ मांगो।
तब प्रह्लाद जी ने कहा, ऐसी कृपा करें भगवान कि मेरी इच्छा ही जल जाए। जिस बीज को हम दग्ध भाव कर देते हैं, मतलब सिंकाई हो गई, तो उसमें से अंकुर नहीं निकलते हैं। आशीर्वाद दीजिए कि मेरे मन में कोई इच्छा ही नहीं हो। सारी इच्छाएं जल जाएं। अब क्या इच्छा, जब आप मिल गए। जब मेरा मन आपका हो गया, हमारी इन्द्रियां आपकी हो गईं, अब क्या? इच्छा दुखदायक है, नहीं चाहिए कुछ भी।
यहां तक कह दिया प्रह्लाद जी ने, कोई जब संपूर्ण इच्छाओं को छोड़ता है, तो देवता हो जाता है। प्रयास करना चाहिए कि कम से कम इच्छाएं हों। जैसे गृहिणी कम इच्छा करे, सास-ससुर की सेवा करे, परिवार की सेवा करे, कोई इच्छा न करे कि यहां ले चलो, वहां ले चलो, ये चाहिए, वो चाहिए। इच्छाएं सब खत्म होंगी, तो वह देवी बन जाएगी।
प्रह्लाद जी ने कहा - ईश्वर को समर्पित होकर इच्छाओं से हीन होकर भगवान के सदृश हो जाता है जीव। आज भी प्रह्लाद जी का जोड़ नहीं है। अभावग्रस्त परिवेश वाले कोल, भील का कोई जोड़ नहीं मिल रहा है, गोपियां तो उनसे श्रेष्ठ स्थिति में हैं, आलवार संतों का कोई जोड़ नहीं मिल रहा है। अनेक महात्मा, ऋषि, संत इस देश में हुए, जिन्होंने बिना स्वार्थ संसार की सेवा की। आवश्यकता है प्रह्लाद जी से सीखने की, उनसे प्रेरणा लेने की। प्रह्लाद जी ने बहुत कहने के बाद भी कुछ भी नहीं मांगा। कह दिया, नहीं चाहिए।
मैं पहले भी कह चुका हूं, जो भगवान की सभी दृष्टि से सेवा करेगा, जो ऐसी भक्ति करेगा, उसे लोक और परलोक, दोनों मिलेंगे। उसका कोई अभाव शेष नहीं रहेगा। दुनिया का कोई ऐसा सोपान नहीं, कोई ऐसा गंतव्य नहीं, इसलिए नहीं चाहने पर भी प्रह्लाद जी को भगवान ने राजा बना दिया। किसी को बड़ा फल देना हो, तो पात्र को ही देगा, अपनों को ही देगा, प्रिय को ही देगा। जो मूर्ख है, वह अक्षम बेटे को, पापी बेटे को भी दे देता है। यहां तो ईश्वर को दिया ईश्वर ने।
ऐसे ही संसार के लोगों को धैर्य के साथ सभी कामों में लगे रहना चाहिए। मैंने भी जीवन में अभाव में ही शुरुआत की, किन्तु मुझे भगवान ने सब दिया, रोटी कपड़ा, मान, स्नेह, आत्मीयता, किन्तु मैं हमेशा ध्यान रखता हूं कि मेरा जो ईश्वरीय समर्पण है, वह कभी नीचे नहीं हो जाए। संपूर्ण वरीयता रहनी चाहिए। जो मिला हुआ प्रसाद है भक्ति, ज्ञान, उनका प्रयोग बना रहे।
क्रमश:
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