भाग - ८
सभी लोगों को भगवान उज्ज्वल अनुपम प्रेरणा दे रहे हैं। कहीं कोई पिता है, यदि वह गलत बोलता है, तो वो नहीं है पिता। अगर गलत बोलता है, तो वह नहीं है पुत्र। पिता डकैती करने के लिए कहेगा, तो करेंगे क्या? गलत भावना का समर्थन भी नहीं करना चाहिए। भयभीत नहीं होना चाहिए। ईश्वर रक्षक हैं।
मेरे जीवन में भी व्यवधान आए। मेरे पिता गुरुजी बड़े विद्वान थे। बड़े गुरु के शिष्य थे, लेकिन आश्रम की सेवा को चंदा लाना, कमरा बनाना, यही सबको बहुत महत्व देते थे। मांग-मांग कर लाना। व्यसनी नहीं थे, चरित्रवान थे, वंश बड़ा था, पढ़े भी थे, किन्तु वे हमें भी बोलते थे, आपको ऐसे ही करना है। उसका हमने थोड़ा भी पालन नहीं किया। मैं कहता हूं- भक्त हमें जो धन देते हैं, उसका हम पूर्ण सदुपयोग करते हैं राम भाव के प्रचार-प्रसार में।
सभी लोगों को अपनी शक्ति का उपयोग प्रह्लाद जी की रीति से करना चाहिए। वो चंद्रमा हैं, जिसका सबको लाभ उठाना चाहिए। वे कभी मरने वाले नहीं हैं, उनका महापथ कभी मरने वाला नहीं है। यह पथ प्रह्लाद जी का ही नहीं है, यह पथ वेदों का है, स्मृतियों, पुराणों का है। परमार्थ का जीवन केवल कीर्तन करने के लिए नहीं है। केवल मंच पर कहे और फिर लग गए मांगने कि आप कितनी दक्षिणा देंगे। आज के संत जब किसी मंच पर कथा करने आते हैं, तो पहले ही अनुबंध कर लेते हैं।
सुदामा जी जब गए भगवान के यहां, कई कथाकार कहते हैं कि सुदामा जी से बड़ा कोई दरिद्र ही नहीं हुआ। ऐसे कथाकारों से बड़ा दरिद्र कोई नहीं है। बोलते हैं कि लाइए चावल जैसे सुदामा जी लाए थे और मेरा बोरा भर दीजिए। दक्षिणा के लिए रूठ जाते हैं।
एक बार एक जगह भागवत सप्ताह का उद्घाटन करने मैं गया था। वहां एक कथाकार ने कहा कि साढ़े तीन सौ कथाएं मैंने की, किन्तु इतना फिसड्डी पंडाल कहीं नहीं लगा, सूर्य की रोशनी तक नहीं रुक रही है। मंच विमान जैसा बनवाया था। मैंने कहा, वाह, जिस भगवान ने नंगे पांव गायों के पीछे चलकर अपने मित्रों के साथ सेवा का परम आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया, उसी भगवान की कथा कहने वाला कथाकार पंडाल में आती धूप पर ही प्रवचन करने लग गया। यह भी बतला दिया कि अब तक कितनी कथाएं कर चुका हूं।
मैंने मैल छुड़ा दिया उद्घाटन भाषण में। यह कोई बात नहीं, मुझे २९ साल हो गए रामानंदाचार्य हुए, कभी भी किसी को नहीं कहा कि आपका मंच कैसा है, पंडाल कैसा है, दक्षिणा कैसी है, आपका भोजन कैसा है।
प्रह्लाद जी का अनुकरण करना है। सारी यातनाओं को झेलकर प्रह्लाद जी वैसे ही हो गए जैसे चंद्रमा और सूर्य हैं, जैसे वायु हैं। जिनका कोई जोड़ नहीं है। एक से एक लोग हुए सनातन धर्म में जिन्होंने परम पुरुषार्थ की प्राप्ति के व्यवहार को बतलाया। केवल रोटी और भोग के लिए हमें व्यवहार नहीं करना है, हमें केवल धर्म के लिए व्यवहार नहीं करना है।
सबसे उत्तम मोक्षीय व्यवहार ही होता है, इसी के लिए मानव जीवन है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो व्यवहार है, उसका सभी को लाभ लेना चाहिए। हमें सुधार करना होगा। एक ही बार में कोई चाहे कि मैं चौथे पायदान पर पहुंच जाऊं, तो उसके पैर ही टूटेंगे। ऊंचाई पर पहुंचने के लिए आवश्यक है कि पहला पायदान, दूसरा पायदान, तीसरा पायदान आवश्यक है। धीरे-धीरे बढ़ें।
पहला पायदान - हम अर्थ को शुद्ध करें, अर्थीय व्यवहार सुधारें, अर्थ पाने के व्यवहार को शास्त्रीय बनाएं। उसके आधार पर धन अर्जित करें।
दूसरा पायदान - हम भोग की प्राप्ति के अनुरूप व्यवहार को शुद्ध करें।
तीसरा पायदान - हम अपने धर्म के संपादन की जो क्रियाएं हैं, जिन्हें हम व्यवहार कहेंगे, उनको भी शुद्ध करें। दान भी व्यवहार का बड़ा स्वरूप है। आज दान ही देने नहीं आ रहा है लोगों को। आयकर चुराकर दान दे रहे हैं। लूटपाट करके दान दे रहे हैं। दान के पात्र, स्थान, काल का ध्यान नहीं है। आज लोग दान दे रहे हैं कि इससे हमारा उपकार होगा, इससे हमारा धन लौटेगा। जैसे उद्योगपति लोग नेताओं को देते हैं कि नेता जी सत्ता में आएंगे, तो लाभ देंगे। यहां केवल लोगों में लेने की भावना है कि क्या लौटेगा, हमारा कैसे उपकार होगा। दान में बिल्कुल दिखावा नहीं, वर्णन नहीं करते हुए दान करना है। अभी जो राष्ट्राध्यक्ष लोग हैं, जो राजनीति से, समाजसेवा से जुड़े हैं लोग, जो नकली संत, सब यह बताने में जुटे हैं कि मैंने यह किया, मैंने वह किया। भक्त ऐसा नहीं करते। भक्त कहता है ठाकुर जी ने किया, हमने क्या किया। हममें कहां क्षमता है कि हम समुद्र पार कर जाएं, लंका जला दें। हनुमान जी ने कहा कि ये सब तो हमारे राम जी ने किया। सैनिक कभी नहीं बोलता कि मैं विजयी हो गया, वह देश प्रेम और लोगों को श्रेय देता है।
क्रमश:
सभी लोगों को भगवान उज्ज्वल अनुपम प्रेरणा दे रहे हैं। कहीं कोई पिता है, यदि वह गलत बोलता है, तो वो नहीं है पिता। अगर गलत बोलता है, तो वह नहीं है पुत्र। पिता डकैती करने के लिए कहेगा, तो करेंगे क्या? गलत भावना का समर्थन भी नहीं करना चाहिए। भयभीत नहीं होना चाहिए। ईश्वर रक्षक हैं।
मेरे जीवन में भी व्यवधान आए। मेरे पिता गुरुजी बड़े विद्वान थे। बड़े गुरु के शिष्य थे, लेकिन आश्रम की सेवा को चंदा लाना, कमरा बनाना, यही सबको बहुत महत्व देते थे। मांग-मांग कर लाना। व्यसनी नहीं थे, चरित्रवान थे, वंश बड़ा था, पढ़े भी थे, किन्तु वे हमें भी बोलते थे, आपको ऐसे ही करना है। उसका हमने थोड़ा भी पालन नहीं किया। मैं कहता हूं- भक्त हमें जो धन देते हैं, उसका हम पूर्ण सदुपयोग करते हैं राम भाव के प्रचार-प्रसार में।
सभी लोगों को अपनी शक्ति का उपयोग प्रह्लाद जी की रीति से करना चाहिए। वो चंद्रमा हैं, जिसका सबको लाभ उठाना चाहिए। वे कभी मरने वाले नहीं हैं, उनका महापथ कभी मरने वाला नहीं है। यह पथ प्रह्लाद जी का ही नहीं है, यह पथ वेदों का है, स्मृतियों, पुराणों का है। परमार्थ का जीवन केवल कीर्तन करने के लिए नहीं है। केवल मंच पर कहे और फिर लग गए मांगने कि आप कितनी दक्षिणा देंगे। आज के संत जब किसी मंच पर कथा करने आते हैं, तो पहले ही अनुबंध कर लेते हैं।
सुदामा जी जब गए भगवान के यहां, कई कथाकार कहते हैं कि सुदामा जी से बड़ा कोई दरिद्र ही नहीं हुआ। ऐसे कथाकारों से बड़ा दरिद्र कोई नहीं है। बोलते हैं कि लाइए चावल जैसे सुदामा जी लाए थे और मेरा बोरा भर दीजिए। दक्षिणा के लिए रूठ जाते हैं।
एक बार एक जगह भागवत सप्ताह का उद्घाटन करने मैं गया था। वहां एक कथाकार ने कहा कि साढ़े तीन सौ कथाएं मैंने की, किन्तु इतना फिसड्डी पंडाल कहीं नहीं लगा, सूर्य की रोशनी तक नहीं रुक रही है। मंच विमान जैसा बनवाया था। मैंने कहा, वाह, जिस भगवान ने नंगे पांव गायों के पीछे चलकर अपने मित्रों के साथ सेवा का परम आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया, उसी भगवान की कथा कहने वाला कथाकार पंडाल में आती धूप पर ही प्रवचन करने लग गया। यह भी बतला दिया कि अब तक कितनी कथाएं कर चुका हूं।
मैंने मैल छुड़ा दिया उद्घाटन भाषण में। यह कोई बात नहीं, मुझे २९ साल हो गए रामानंदाचार्य हुए, कभी भी किसी को नहीं कहा कि आपका मंच कैसा है, पंडाल कैसा है, दक्षिणा कैसी है, आपका भोजन कैसा है।
प्रह्लाद जी का अनुकरण करना है। सारी यातनाओं को झेलकर प्रह्लाद जी वैसे ही हो गए जैसे चंद्रमा और सूर्य हैं, जैसे वायु हैं। जिनका कोई जोड़ नहीं है। एक से एक लोग हुए सनातन धर्म में जिन्होंने परम पुरुषार्थ की प्राप्ति के व्यवहार को बतलाया। केवल रोटी और भोग के लिए हमें व्यवहार नहीं करना है, हमें केवल धर्म के लिए व्यवहार नहीं करना है।
सबसे उत्तम मोक्षीय व्यवहार ही होता है, इसी के लिए मानव जीवन है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो व्यवहार है, उसका सभी को लाभ लेना चाहिए। हमें सुधार करना होगा। एक ही बार में कोई चाहे कि मैं चौथे पायदान पर पहुंच जाऊं, तो उसके पैर ही टूटेंगे। ऊंचाई पर पहुंचने के लिए आवश्यक है कि पहला पायदान, दूसरा पायदान, तीसरा पायदान आवश्यक है। धीरे-धीरे बढ़ें।
पहला पायदान - हम अर्थ को शुद्ध करें, अर्थीय व्यवहार सुधारें, अर्थ पाने के व्यवहार को शास्त्रीय बनाएं। उसके आधार पर धन अर्जित करें।
दूसरा पायदान - हम भोग की प्राप्ति के अनुरूप व्यवहार को शुद्ध करें।
तीसरा पायदान - हम अपने धर्म के संपादन की जो क्रियाएं हैं, जिन्हें हम व्यवहार कहेंगे, उनको भी शुद्ध करें। दान भी व्यवहार का बड़ा स्वरूप है। आज दान ही देने नहीं आ रहा है लोगों को। आयकर चुराकर दान दे रहे हैं। लूटपाट करके दान दे रहे हैं। दान के पात्र, स्थान, काल का ध्यान नहीं है। आज लोग दान दे रहे हैं कि इससे हमारा उपकार होगा, इससे हमारा धन लौटेगा। जैसे उद्योगपति लोग नेताओं को देते हैं कि नेता जी सत्ता में आएंगे, तो लाभ देंगे। यहां केवल लोगों में लेने की भावना है कि क्या लौटेगा, हमारा कैसे उपकार होगा। दान में बिल्कुल दिखावा नहीं, वर्णन नहीं करते हुए दान करना है। अभी जो राष्ट्राध्यक्ष लोग हैं, जो राजनीति से, समाजसेवा से जुड़े हैं लोग, जो नकली संत, सब यह बताने में जुटे हैं कि मैंने यह किया, मैंने वह किया। भक्त ऐसा नहीं करते। भक्त कहता है ठाकुर जी ने किया, हमने क्या किया। हममें कहां क्षमता है कि हम समुद्र पार कर जाएं, लंका जला दें। हनुमान जी ने कहा कि ये सब तो हमारे राम जी ने किया। सैनिक कभी नहीं बोलता कि मैं विजयी हो गया, वह देश प्रेम और लोगों को श्रेय देता है।
क्रमश:
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