Friday, 4 October 2024

साधु को सदा याद रहे कि वह साधु है

गुरुदेव महाराज जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी के प्रवचन से ---



कैसे-कैसे लोग आज संत की गद्दी पर बैठ गए हैं। एक ऐसे ही संत ने खास पंखा लगवाया, मैंने दूर से देखा, पूछा, 'कितने का पंखा लगवाया है? उन्होंने उत्तर दिया, 'यह ज्यादा का नहीं है, बस 25 हजार का है। आप भी लगवा लीजिए। हमने देखा ही नहीं कि कैसा पंखा है, क्या पंखा है। उनका नाम नहीं बतलाऊंगा।

हम जहां पढ़े थे, वहां एक व्‍यक्‍त‍ि थे, बाद में उन्होंने विवाह कर लिया और अब फुलपैंट पहनकर वेदांत पढ़ाते हैं। जब उन्होंने मुझे पहली बार श्रीमठ में रामानंदाचार्य की वेशभूषा में देखा, तो रोने लगे, उन्होंने कहा, 'आप तो छात्रावस्था में इससे अच्छे थे। श्रीमठ में जब मैं रामानंदाचार्य जी की गद्दी पर आया, तब विरासत में मिली जिस चौकी पर मुझे बैठाया गया, उसकी तीन पटरियां ऊंची-नीची थीं। जिस पर चढ़कर मजदूर लोग दीवारों पर प्लास्टर इत्यादि करते हैं, वैसे लकड़ी के फंटे ही जोड़कर मेरी चौकी बना दी गई थी, उसमें तिलचट्टे भी बहुत थे। उन्होंने मुझसे कहा, 'इससे बेहतर स्थिति में तो आप पहले थे। वह मेरे विद्यार्थी भी रहे थे, एक साथ हम लोग पढ़े भी थे। उन्होंने कहा, 'इसी को रामानंदाचार्य कहते हैं क्या? क्या यह चौकी नहीं बदल सकती है? मैंने विनम्रता से कहा, 'जिस दिन मैं श्रीमठ गया, मैं पहले दिन ही चौकी बदलवा सकता था, इतना मेरे पास था, जेब में नहीं था, लेकिन प्रभाव था, लेकिन मैंने कभी नहीं कहा कि चौकी बदली जाए। बदलने को जरूरी काफी कुछ था, लेकिन बदलने के लिए यदि मुझे चौकी ही सबसे पहले दिखेगी, तो राम राज्य कैसे आएगा?

आजकल तो बड़े लोग हर साल अपना सोफा, कुर्सी-टेबल, सजावट बदल देते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए, सादगी का जीवन होना चाहिए। रामराज्य का जीवन होना चाहिए। जरा सोचिए कि राम जी ने जंगल में कैसे बिताया होगा समय। ईश्‍वर  की बात छोडि़ए, अयोध्या के महल में तो सब कुछ था, किन्तु जंगल में रहकर एक दिन उफ् तक नहीं किया।

वृंदावन में एक महात्मा से मैं मिला था। उन्हें देखकर बहुत अच्छा लगा, तो मैंने उनसे पूछा, 'आप इतने अच्छे साधु हो गए, इसका रहस्य क्या है?

उन्होंने कहा, 'मैं तो आपको अपना रोना कहने आया हूं, आप मेरा ही इंटरव्यू मत लीजिए। हां, मुझे एक बात का सदा ध्यान रहा कि मैं साधु बनने आया हूं, और इसी का आज यह फल है।

मैं भी बनारस साधु बनने नहीं आया था, मैं तो विद्वान बनने आया था, अविवाहित रहने आया था। मुझे साधु तो नहीं बनना था, लेकिन जब रामानंदाचार्य हो गया, तो फिर कोशिश की कि थोड़े-बहुत साधु हम भी हो जाएं, साधुओं जैसे दिखने लगें। इस कोशिश से मुझे भी लाभ हुआ।

ध्यान दीजिएगा, केवल यह याद रहे कि मैं साधु हूं, तो आदमी साधु हो जाएगा। दिखावा क्या करना, गद्दी का क्या करना? जब शरीर का मांस ही सूख जाएगा, तो बुढ़ापे में तो ये गद्दा ही गडऩे लगेगा। चेहरा सिकुड़ जाएगा, दांत टूट जाएंगे, तो ये गद्दा-पंखा काम करेगा क्या? कदापि नहीं करेगा।

उन मूल्यों को हम धर्म कहते हैं, जो शाश्वत जीवन देते हैं, जो बहुत सुख देते हैं।

ज्ञान की चार अवस्थाएं

गुरुदेव महाराज के प्रवचन से--- 

जो व्‍यक्‍त‍ि सम्पूर्ण मानवता के लिए सिद्धांत पढ़ता है, समझता है, उसको अनुभव करता है और अपने जीवन में उतारता है दूसरों को देने के लिए, इसी का नाम ज्ञान है, मैं बार बार दोहराता रहता हूं आचार्य पतंजलि ने लिखा है, ज्ञान की चार अवस्थाएं होती हैं। पहली अवस्था ज्ञान पढऩा, इसे परोक्ष ज्ञान बोलते हैं - यह ज्ञान की कच्ची अवस्था है। दूसरी अवस्था, परिपक्व ज्ञान, यानी अपरोक्ष ज्ञान - इसमें ज्ञान पक जाता है। तीसरी अवस्था, उस ज्ञान को जीवन में उतारना। फिर चौथी अवस्था, ज्ञान दूसरों को पेश करना। यदि मैं संन्यासी ज्ञान की सम्पूर्ण अवस्था में जीवन जी रहा हूं, तो मेरा सम्मान होना चाहिए। अध्यापक का सम्मान तो अमरीका में भी किया जाता है, क्या आप नहीं करेंगे? अध्यापक या गुरु का सम्मान होना ही चाहिए, यह भी धर्म ही है।

जय सियाराम

जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज







 

जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज





 

जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज





 

Monday, 16 September 2024

गुरुदेव महाराज ने किया गंगा-संगम पूजन


गंगा-संगम पूजन करते गुरुदेव महाराज, प्रयागराज

समाचार

प्रयागराज . तीर्थराज प्रयागराज में सोमवार संध्या दिनांक 16 सितंबर को गंगाजी पूजन का भव्य आयोजन जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज के नेतृत्व में भक्तिभाव से संपन्न हुआ। इस धार्मिक अनुष्ठान में वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ गंगा मइया की वैदिक विधि से पूजा की गई। प्रयागराज में ही गंगा जी, यमुना जी और सरस्वती जी का मिलन होता है। यहां गंगा जी के पूजन का अर्थ त्रिवेणी या संगम पूजन भी है।
गंगा पूजन में जल, दूध, अन्न, फूल, फल, गुलाल, दही, बूरा, माला, वस्त्र, सिंदूर, रोली और चंदन जैसे पवित्र सामग्री का उपयोग किया गया। पूजन के बाद गुरुदेव महाराज ने अपने शिष्यों और श्रद्धालुओं के साथ मिलकर गंगा मइया की महाआरती की। यह दुर्लभ अवसर है, जब रामानंदाचार्य प्राकट्यस्थल, हरित माधव मंदिर के प्रांगण तक गंगा जी पहुंच गई हैं। ऐसा लग रहा है, मानो गंगा जी हरित माधव मंदिर में विराजमान भगवान कृष्ण और राधा जी के साथ ही रामानंदाचार्य जी और उनकी माता जी का स्पर्श करना चाहती हों।
आजकल प्रयागराज के दारागंज क्षेत्र की निचली सड़कें पूरी तरह से जलमग्न हो चुकी हैं। नदी किनारे स्थित कई मंदिरों में भी गंगा जी का पानी प्रवेश कर चुका है। इस अद्वितीय समय में गंगा जी का जलस्तर इतना बढ़ गया है कि रामानंद जी की जन्मभूमि स्थित भवन तक गंगा जी बह रही हैं। रामानंद संप्रदाय के संतों का कहना है कि ऐसा अवसर बहुत कम आता है, जब गंगा जी का पवित्र जल जन्मभूमि भवन का स्पर्श करता है।
इस अवसर पर वहां चातुर्मास कर रहे जगद्गुरु रामानंदाचार्य श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज ने गंगा मइया का विशेष पूजन और अर्चन करके उन्हें सम्मानित किया है, उनका आभार जताया है। गंगा जी के प्रति श्रद्धा और भक्ति का यह अनोखा उत्सव न केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण था, बल्कि यह उन सभी श्रद्धालुओं के लिए भी अत्यंत पवित्र और प्रेरणादायक था, जो इस चातुर्मास महोत्सव का हिस्सा बने हुए हैं।
गुरुदेव महाराज के नेतृत्व में हुए इस धार्मिक आयोजन में जबलपुर, अयोध्या इत्यादि अनेक धार्मिक नगिरयों से पधारे अनेक विशेष संतों और श्रद्धालुओं ने भाग लिया और गंगा मइया की कृपा प्राप्त की। गंगा जी की महिमा और उनके प्रति भारतीय संस्कृति में गहरी श्रद्धा का यह उत्सव अद्वितीय था, जिसमें प्रकृति और आध्यात्म का संगम देखने को मिला।
ध्यान रहे कि माता गंगा जी का पूजन भारतीय संस्कृति में सदियों से अद्वितीय महत्व रखता आया है। गंगा मइया को जीवनदायिनी और पापमोचिनी माना जाता है और इसी श्रद्धा के साथ गुरुदेव महाराज ने गंगा पूजन करके इस परंपरा को आगे बढ़ाया है। इस आयोजन के माध्यम से गंगा मइया के प्रति प्रेम और आस्था का संदेश दिया गया, जो हर भारतीय के हृदय में गंगा के प्रति अनन्य भक्ति और श्रद्धा को पुनः जागृत करता है। यह भी ध्यान देने की बात है कि रामानंद संप्रदाय का मुख्यालय श्रीमठ भी वाराणसी में गंगाजी के तट पर पंचगंगा घाट पर स्थित है। गुरुदेव महाराज स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी ज्यादा समय श्रीमठ में ही दर्शन देते हैं। वाराणसी स्थित श्रीमठ में वैदिक रीति से गंगापूजन दैनिक परंपरा में शामिल है।










     


गंगाजी के निकट रामानंदाचार्य प्राकट्यधाम - हरित माधव  मंदिर, दारागंज, प्रयागराज

Saturday, 17 August 2024

निर्मल मन कैसे होगा




 

राम जी से प्रेम



 

वैराग्य जरूरी है



 

श्रीराम जी महाराज की जय

विवेक ईश्वर तक पहुंचने की पहली सीढ़ी है


(गुरुदेव महाराज के प्रवचन से)

यदि आपके पास विवेक नहीं, तो आप जीवन में किसी भी ऊंचाई पर नहीं पहुंच सकते। विवेक ईश्वर तक पहुंचने की पहली सीढ़ी है। आप कोई छोटा काम कीजिए या बड़ा काम, सफलतापूर्वक काम के लिए आप में विवेक का होना सबसे आवश्यक है। यदि हम में विवेक हो, तभी हम भले-बुरे का भेद कर पाते हैं और किसी संबंध को अच्छे से चला पाते हैं। विवेक एक छोटा सा शब्द है, किंतु जब हमारे व्यवहार में आ जाए, तो हमें बहुत बड़ा बना देता है। विवेक की आवश्यकता लौकिक जीवन में भी है और भगवान के धाम जाने के लिए भी यह पहली सीढ़ी या सोपान है। 

यदि मैं व्यावहारिक नहीं रहूं, तो हमारा संबंध एक दिन नहीं चले। संबंध चलाने के लिए बहुत सोचना-समझना पड़ता है। क्या ठीक है, क्या गलत है? क्या करना है? क्या नहीं करना है? कैसे बोलना है, कैसे नहीं बोलना है? हमारे प्रत्येक निर्णय में विवेक की आवश्यकता है, तभी हम किसी संबंध को ठीक से निभा पाते हैं, संबंध लंबा चला पाते हैं। विवेक से ही हम अपने लौकिक जीवन में भी उत्कर्ष प्राप्त कर पाते हैं।

जीवन में उत्सव का मतलब केवल समय बिताना नहीं होता है, उत्सव वह है, जिससे हमारा रोम-रोम खिल जाए, रोम-रोम प्रसन्न हो, एक दूसरे से मिलकर, खाकर-खिलाकर, गाकर और सुनकर हमारा प्रेम बढ़े। उत्सव मनाने के लिए भी विवेक चाहिए।

गाय पालने में भी विवेक की आवश्यकता है कि कैसे उससे दूध लेना है, कैसे कोमल भाव से, प्यार से व्यवहार करना है। अगर कोमलता से काम न किया जाए, तो गाय भी लात मारने लगती है। ठीक इसी तरह से पढ़ाई में विवेक चाहिए, नौकरी लेने और देने में विवेक चाहिए। किसी की बेटी लाने में या किसी को बेटी देने में भी विवेक की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। मनुष्य जीवन में एक कदम ऐसा नहीं है, जिसमें विवेक की जरूरत न हो। यदि हमें भगवान के धाम में पहुंचने है, परम पद तक पहुंचना है, तो हमें विवेक का सहारा लेना पड़ेगा। विवेक न हो, तो सारा जीवन यों ही निकल जाता है। विवेक न हो, तो समझ में नहीं आता कि हम क्या बोलें, कैसे बोलें, कितना बोलें। बिना विवेक के व्यक्ति न पूरा धन कमा पाता है और न ज्ञान अर्जित कर पाता है, तो बिना विवेक के ईश्वर को कैसे पा सकता है? विवेक से ही हमें किसी को मान-सम्मान देना आता है। अत: भगवान के धाम में जाने के लिए जो सबसे पहला पायदान है, जो सबसे पहली सीढ़ी या सोपान है, उसका नाम विवेक है। हम में विवेक होना ही चाहिए। 



गुरुदेव महाराज की जय


भगवान के धाम जाने की दूसरी सीढ़ी निर्वेद है। निर्वेद का अर्थ है ऊबना। जब इह लोक से आप ऊबेंगे, तभी परलोक में पहुंचने की इच्छा जागेगी।
अभी हम जहां रह रहे हैं, वहां से जब ऊबने लगेंगे, तभी हमारी आगे की यात्रा शुरू होगी। इस घर से ऊबेंगे, तभी तो भगवान के घर जाने का मन होगा।
भगवान के धाम जाने के लिए विरक्ति या वैराग्य भी जरूरी है, वरना मनुष्य का जीवन नाना प्रकार के लोभ-मोह में ही बीत जाएगा। 
जब व्यक्ति को विवेक होता है, तब वह निरर्थक कर्मों से ऊबने लगता है और उसके बाद ही उसके मन में वैराग्य का जागता है।



 

गुरुदेव महाराज








 

झूलन महोत्सव, प्रयागराज