Monday, 25 June 2012

प्रयाग में होगा चातुर्मास महोत्सव



जगदगुरु रामानन्दाचार्य पद पर प्रतिष्ठित स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज के सान्निध्य में प्रयाग अर्थात इलाहाबाद में दिनांक ३ जुलाई २०१२ आषाढ़ पूर्णिमा से दिव्य चातुर्मास महोत्सव का शुभारम्भ होने जा रहा है, जिसका समापन ३० सितम्बर २०१२ को भाद्र पूर्णिमा के दिन होगा।
उल्लेखनीय है कि गंगा, यमुना के संगम की पावन धर्म नगरी प्रयाग आदि जगदगुरु रामानन्दाचार्य की जन्मस्थली है, अत: यहां जगदगुरु स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज के चातुर्मास का अति विशेष महत्व है। प्रयाग के ठाकुर हरित माधव मंदिर, ४५/४२, मोरी दारागंज की पावन स्थली पर जगदगुरु अपनी साधु-संत मंडली के साथ ९० दिनों तक विराजमान रहेंगे। इन नब्बे दिनों के दौरान अनेक धार्मिक कार्यक्रम नियमित रूप से होंगे, तो कुछ विशेष व दुर्लभ धार्मिक आयोजन भी होंगे। हिन्दू संतों में चातुर्मास की परंपरा का एक तरह से लोप हो गया था, जिसे स्वामी रामनरेशाचार्य जी ने एक तरह से पुनजीर्वित किया है, जिसे वे पूरे भक्ति, भाव निरंतर मनाते आ रहे हैं। इस दौरान वे संतों के साथ-साथ आम जनों को भी सहज उपलब्ध होते हैं, सुबह से देर रात तक भक्तों की शंकाओं का समाधान करते, उन्हें सच्ची रामभक्ति का मार्ग बताते जगदगुरु एक अदभुत, व्यापक व दुर्लभ छवि प्रस्तुत करते हैं। पिछले वर्ष आपने इन्दौर में चातुर्मास किया था और उसके पहले वर्ष सूरत में, वे भारत में घूम-घूमकर भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में रामभक्ति की अलख जगाते रहे हैं। उनके चातुर्मास में देश भर से विभिन्न क्षेत्रों के विद्वान भी जुटते रहे हैं। विद्वतजन गोष्ठी और धर्माचार्य सम्मेलन की खास महत्ता रही है।



दैनिक कार्यक्रम 
परमप्रभु श्रीराम जी का पूजन    प्रात: ६ से ८
श्रीराम यज्ञ हवनात्मक            प्रात: ८ से ८-३०
देवर्षि पितृतर्पण यज्ञ                प्रात: ८-३० से ९
आचार्य पूजन                         प्रात: ९ से ९-३०
स्वाध्याय(रामतापनीयोपनिषद्)
एवं शाण्डिय भक्ति सूत्र              प्रात: १० से १२
श्रावण में प्रति सोमवार रुद्राभिषेक    मध्याह्न ११ से २
प्रवचन संतों एवं विद्वानों द्वारा    सायं ६ से ७
मंगलाशीर्वचन-आचार्यश्री द्वारा    रात्रि ७ से ८

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विशेष आयोजन
गुरु पूर्णिमा महोत्सव                   ३ जुलाई, मंगलवार
गोस्वामी तुलसीदास जयन्ती महोत्सव     २५ जुलाई, बुधवार
गणेश महोत्सव                          ५ अगस्त, रविवार
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव        १० अगस्त, शुक्रवार
नन्द महोत्सव                            ११ अगस्त, शनिवार
विद्वज्जन संगोष्ठी
धर्माचार्य सम्मेलन
समापन महोत्सव                        ३० सितम्बर

Monday, 11 June 2012

समस्याओं का समाधान

समापन भाग
कोई निराश न हो, सुधार और रामभाव की संभावना सदा बनी हुई है। ए. राजा भी जेल में गए, करुणानिधि की बेटी भी जेल में गई, एक आदर्श खड़ा हुआ कि बड़े लोग भी जेल जा सकते हैं। आने वाले दिनों में कौन आदमी जेल में पहुंच गया और वहीं सड़ गया, पता नहीं चलेगा। जो गलत हैं, उन्हें दंड मिलेगा।
लोग भूल जाते हैं, अर्जुन सिंह के पिताजी भ्रष्टाचार के मामले में जेल गए थे। बाद में कांग्रेस ने उन्हें विधानसभा चुनाव लडऩे के लिए टिकट दिया। नेहरू जी प्रचार करने के लिए गए थे, भाषण देकर मंच से नीचे उतरे, तो एक स्वतंत्रता सेनानी ने कहा कि पंडित जी आप इस चोर का प्रचार करने के लिए वोट मांग रहे हैं? तो पंडित जी फिर मंच पर चढ़े और वहां से कहा, मैं शर्मिंदगी के साथ अपनी बात को वापस लेता हूं, मैंने कहा था कि इनको वोट दीजिए, अब कहता हूं, आप इनको वोट मत दीजिए, भले कांग्रेस यहां हार जाए, मुझे खुशी होगी कि भ्रष्ट आदमी चुनाव नहीं जीता।
यह बहुत बड़ी बात है, कांग्रेस भी भूल गई है। कांग्रेसियों को कहना चाहिए कि उनकी पार्टी ऐसी पार्टी है, जो अपने नेता को जेल भेज सकती है। समझौता नहीं किया। ए. राजा को उसी सिद्धांत के आधार पर जेल ले जाया गया, लोकपाल के आधार पर वे नहीं गए। पुराने कानून व आधार पर ही न जाने कितने अपराधी जेल में सड़ रहे हैं। आपको मालूम होगा कि चारा घोटाले में दोषी कई लोग मर गए, दस-दस साल का कारावास हो गया। यह वही कानून है, जो संविधान लेखन के समय बना था। सभी समस्याओं की जड़ है आदमी का ईश्वरीय धारा से दूर होना, सभी समस्याओं का समाधान है कि आदमी शास्त्रों के निर्देश से जुड़े, श्रेष्ठ जनों की प्रेरणा से जुड़े और राम भाव के साथ जुडक़र अभियान चलावे। कहीं कोई दिक्कत नहीं होगी। हम लोगों को देखिए, बड़ाई मैं नहीं कर रहा हूं, २३-२४ साल हो गए मुझे रामानन्दाचार्य बने हुए। कहीं एक रुपया भी अपने नाम से नहीं जुड़ा। पैसा आता है, आप ही देते हो, खर्च होता है। किसी ने कहा कि कुछ जमा कर लीजिए, बुढ़ापे में काम आएगा, तो मैंने कहा, मेरे जितने चेले हैं, क्या सब हमसे पहले ही मर जाएंगे, जो मेरे साथ रहेंगे, मैं उनसे कहूंगा कि ऐ दवाई के लिए भेजना, अपनी दवाई में कितना खर्च करते हो, तो मुझे भी भेजना, दवाई की जरूरत है। आज जो हम कमा रहे हैं भावों का धन, हमारे बाद भी हमारे कुछ लोग मरेंगे। अभिप्राय यह कि इतने दिनों में एक रुपया भी जमा नहीं हो पाया, काहे का डिपोजिट, आपको तो बतला दूं, तो हैरान हो जाएंगे। मठ में जो दो ढाई लाख रुपए थे, वो भी १९९७ से ब्लॉक हैं, उसका व्याज भी आना बंद है। फिर भी श्रीमठ चल रहा है।
मैं कई बार लोगों को मजाक में कहता हूं, कुछ दिनों में हम भी पुट्टापर्थी (अमीर) होने वाले हैं, मालामाल होने वाले हैं। पहले ज्यादा साधन नहीं था, साधन अभी जो बढ़ा है, उसमें आप भी हिस्सेदार हैं, आगे जब साधन और बढ़ेगा, तो भोगने के लिए क्या बाहर से लोग आएंगे? हमारे पास जो भी साधन या धन होगा, हमें मिल-बांटकर उपभोग करना है। अभी मैंने नहीं खाया, आप ही प्रसाद लाते हैं, आप ही खाते हैं। हमारे पास जो भाव है, उसे आप प्रचारित करें। हमारे पास जो भी कुछ है, उसमें आप सबकी हिस्सेदारी है। पैसा बहुत आ जाए और सच्ची प्रतिष्ठा न हो, तो कैसे चलेगा? पिछले दिनों जबलपुर के जिस आश्रम में मैंने महायज्ञ करवाया, वह जूना अखाड़े का है। दूसरा कोई आता, तो जूना अखाड़े वाले जगह नहीं देते, धकिया देते। मैं वहां गया, तो उन्होंने सोचा होगा कि रामनरेशाचार्य तो जूना अखाड़े के ही हैं, छोड़ो इन्हें। दूसरा कोई बैठता, तो वे बैठने नहीं देते। मैं कहता हूं, कोई संन्यासी महात्मा वहां आता है, तो इनकी सेवा करो, भेदभाव नहीं करना। श्रीमठ या काशी में भी हमारे यहां कोई संन्यासी आ जाए, तो सेवा होती है। अभी एक छात्र ने निवेदन किया कि हमें सहयोग चाहिए, मैं पढ़ता हूं, मेरे पीछे कोई सहयोग देने वाला नहीं है, मैंने उसके लिए १००० रुपया महीना तय कर दिया, कहा, चिंता मत करो, जरूरत पड़ी तो और दूंगा, अलग साल सहयोग और बढ़ा दूंगा। तुम्हें कहीं जाना होगा, तो टिकट भी बनवा दूंगा, कपड़ा और अन्य आवश्यकता भी पूरी करूंगा, जीवन भर खूब पढ़ो, पूरी मदद करूंगा। मेरा कहना है, कोई आदमी श्रेष्ठ चिंतन में है, तो उसे सहयोग मिलना चाहिए, पैसे का यही उपयोग सबसे बड़ा है।
रामचन्द्र भगवान की जय।

समस्याओं का समाधान

भाग - छह
आज जातिवाद एक बड़ी समस्या बना हुआ है। लगता है, पहले से बढ़ गया है। जातिगत जनगणना भी हुई है। कई लोगों को जाति की राजनीति में बड़ा आनन्द आ रहा है। यह कहा जाता है कि अरहर की दाल को और जाति को जितना पकाया या मथा जाए, उतना ही आनंद बढ़ता है। मैं बतला दूं, बनारस में हमारे लंबे जीवन में एक भी आदमी नहीं मिला, जिसने हमारी जाति के आधार पर हमारा पक्ष लिया हो। बिहार जातिवादियों का देश है, जातिवाद की शुरुआत ही वहां से हुई है। जैसे पहाड़ों पर बर्फ गिरती है, तो तराई के इलाकों तक ठंड स्वत: आ जाती है, ठीक उसी तरह जितनी भावनाएं हैं, भली या बुरी, वे सब बिहार से चलती हैं और देश भर में फैल जाती हैं। महात्मा गांधी ने वहीं से आंदोलन शुरू किया। जब कांग्रेस के विरुद्ध पहला आंदोलन शुरू हुआ, तो बिहार से ही शुरू हुआ, जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व किया। कोई भी क्रांति होगी, तो उस क्रांति का सूत्रपात उसका, उत्स और उसे ऊर्जा देना, उसको रास्ता देना और उसको सारी बौद्धिक कौशल देना, बिहार से ही शुरुआत होती है। इतने ऊर्जावान लोग और कहीं होते ही नहीं हैं। अभी आपने सुना होगा कि वहां एक डीजीपी हैं अभयानंद जी। जब नीतीश मुख्यमंत्री हुए, तो उन्होंने अपनी बिरादरी के आदमी को ही डीजीपी बनावा दिया, लेकिन वह सफल नहीं हुआ, फिर उत्तर प्रदेश के एक ब्राह्मण को बनाया, जो किसी की बात नहीं सुनते थे, उसके बाद अभयानन्द जी आए। अभ्यानन्द जी के पास जब लालू यादव के काल में कोई काम नहीं था, तब उन्होंने गरीब बच्चों को आईआईटी कोचिंग कराना शुरू किया, सुपर थर्टी नाम से संस्थान खोला। तीस गरीब बच्चों को वे चुनते थे, उन्हें पढ़ाते थे, हर तरह की सुविधा देते थे और उनमें से अधिकांश बच्चों का आईआईटी में चयन हो जाता था। आईपीएस अभयानन्द जी और उनकी मित्रमंडली ने यह बड़ा काम किया। उन लोगों ने देश भर को बतला दिया कि यह है पढ़ाई का तरीका। पढ़ाई ऐसे भी हो सकती है, पैसा ही सबकुछ नहीं है।
वे डीजीपी हो गए। मैंने किसी पत्रिका में पढ़ा कि लाखों-लाख जो अवैध हथियार बिहार में जप्त हुए हैं, उनमें लगे लोहे को गलाकर उससे कुदाली और हसुआ बनवा रहे हैं अभयानन्द जी। यह आदमी इतना ईमानदार है कि मैं गया में था, लोग बोले कि अभयानन्द जी प्रणाम करेंगे, यह काफी पहले की बात है। लेकिन वे नहीं आ पाए, तो मैंने पूछा कि क्या हुआ। जवाब मिला, जो किराये की गाड़ी लेकर ससुराल आए थे, वह रास्ते में खराब हो गई, जो समय आपके यहां लगना था, वह रोड पर ही लग गया। वे निजी काम के लिए सरकारी वाहन के इस्तेमाल से बचते हैं। उनके पिताजी भी पुलिस अधिकारी थे। बताते हैं कि पिता जी जो भी बोलते थे, अभयानन्द जी सिर झुकाकर मानते थे। व्यवहार कुशल हैं, प्रणाम करेंगे, सिफारिश भी सुनेंगे, लेकिन वही करेंगे, जो उचित होगा, गलत काम नहीं करेंगे। काम सरकारी वही होगा, जो सही होगा। ऐसे ही पुलिस अधिकारी चाहिए, ऐसे लोगों को आगे लाकर काम करना-कराना चाहिए। ऐसा नहीं है कि देश चलाने लायक लोग नहीं हैं।
उत्तर प्रदेश में मायावती ने एक वैश्य को डीजीपी बनवाया था। ये अधिकारी ऐसे थे कि मायावती भी अन्याय की बात करेंगी, तो वे विरोध करेंगे, भले ही इस्तीफा दे दें। जाति ही सबकुछ नहीं है। चरित्रवान कहीं भी पैदा हो सकता है, उसका जाति से कोई सम्बंध नहीं है। महात्मा गांधी भी तो वैश्य थे। जाति के आधार पर गाली देने की परंपरा बहुत गलत है। श्रेष्ठ लोगों का हर स्थिति में सम्मान होना चाहिए, लेकिन आज लोग श्रेष्ठता का सम्मान कम करने लगे हैं। आप कीजिए, अभी से शुरू कीजिए, ऊर्जा फैलेगी और ईमानदार और श्रेष्ठ लोगों का एक समूह तैयार होगा। पुलिस के अच्छे अधिकारियों को अभी कह दिया जाए कि सुधार कीजिए, काम कीजिए, तो ये एक सप्ताह में किसी भी राज्य को रामराज्य जैसा बना देंगे, एक गलत काम नहीं हो सकेगा, लेकिन अच्छे पुलिस अधिकारियों, अच्छे प्रशासनिक अधिकारियों को काम नहीं करने दिया जाता है।  क्रमश:

समस्याओं का समाधान

भाग - पांच
आज के समय में श्री माधवाचार्य जी बहुत अच्छे महात्मा हैं। विहिप के संस्थापकों में रहे हैं, उनको देखने से ही लगता है कि वे ऋषि समान हैं। एक बार वे श्रीमठ आए थे, वहां ऋंगेरी के शंकराचार्य जी भी थे, द्वारिका-जोशी मठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद जी भी थे, मैं भी था। मंच पर हम बैठे थे। सभा के उपरांत मैंने किसी से पूछा, ‘आपको सबसे तेजस्वी कौन लग रहा था?’
उन्होंने पूछा, ‘आपको बुरा तो नहीं लगेगा?’
मैंने कहा, ‘नहीं बुरा लगेगा, बताइए।’
तब उन्होंने कहा, ‘माधवाचार्य जी सबसे अच्छे महात्मा लग रहे थे।’
वास्तव में माधवाचार्य जी का बोलना, उठना, बैठना ऐसा है कि उसमें कहीं से कोई नकलीपना नहीं है। आज तो कई महंत ऐसे बैठते हैं, जैसे कोई अहिरावण बैठा हो। बैठा नहीं जा रहा है कि कमर में दर्द है, ऐसे-ऐसे बैठे रहते हैं कि चित्र खराब हो जाता है। दिखावा वाले महंत यह भी सोचते हैं कि कहीं लोग यह न समझ लें कि छोटा वाला महंत है। क्या अकड़ कर बैठने से कोई बड़ा महात्मा हो जाएगा? अकड़ कर बैठने से तो सिनेमा की शूटिंग तक खराब हो जाती है, तो अध्यात्म की शूटिंग कहां चलने वाली है? यदि कोई आदमी फिल्म की शूटिंग करा रहा हो, तो प्रसंग के अनुसार उसे हंसना, मुस्कराना, रोना पड़ता है। प्रसंग है कि मुस्कराना है और वहां कोई अट्ठाहास करने लगे, तो कैसे चलेगा? धर्म के क्षेत्र में अकडऩा कैसे चलेगा? सबसे बढक़र शालीनता बनी रहनी चाहिए। हमारे राष्ट्र का सौभाग्य है, आज भी अच्छे-अच्छे संत हैं, एक से एक बड़े संत हैं, लेकिन क्या कभी रामदेव जी ने या अन्ना हजारे ने उन्हें पूछा है? कभी नहीं पूछा। वे तो ऐसे लोगों को साथ रखते हैं, जिनकी सनातन धर्म में कोई खास जगह नहीं है। महात्मा माधवाचार्य जी उन लोगों में से हैं, यदि उनको कहना होगा, तो वे सोनिया गांधी और मनमोहन ङ्क्षसह को भले बहुत प्रेम कर रहे हों, लेकिन वे जरूर कह देंगे कि यह गलत हो रहा है।
एक बार हमसे उन्होंने कहा कि विज्ञप्ति जारी की जाए, राष्ट्रहित में जारी की जाए। विज्ञप्ति तैयार हुई, उसे जब शंकराचार्य जी को दिखाया गया कि हम दोनों ये जारी कर रहे हैं, तो उन्होंने कहा कि जो पापी हैं, अपने आप ही मर जाएंगे, आप लोग क्यों राजनीति में पडक़र ये कष्ट उठाना चाहते हैं। विज्ञप्ति जारी नहीं हुई। तो माधवाचार्य जी को कहीं से कोई लागलपेट नहीं है। इतना बड़ा विद्वान, धनवान और धर्म के लिए काम करने वाले महात्माओं में दस लोग होंगे, तो एक नाम माधवाचार्य जी का है।
हमने समझना होगा कि रामजी ही रामराज्य के संस्थापक पुरुष हैं। हिन्दू राष्ट्र का अर्थ ही रामराज्य है। लफंगों का राष्ट्र नहीं। मैंने पहले भी कहा था कि मांस खाना, शराब पीना और सारे गलत काम करना, यदि यह चलता रहे और यदि इसे हिन्दू राष्ट्र कहा जाए, तो इससे तो धर्मनिरपेक्ष शासन ही ठीक है। मैं किसी की निंदा कर रहा था, जो मांस भी खाते थे, शराब भी पीते थे और श्रीराम का नारा भी लगा रहे थे, तो इससे अच्छा है कि भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र ही बना रहे।
चाहे कांग्रेस के माध्यम से आए या भाजपा या वामपंथियों के माध्यम से आए, रामराज्य की कल्पना तभी साकार होगी, जब शास्त्रीय भावनाओं को या उपनिषद की भावनाओं को, रामजी की भावना पर लोग ध्यान लगाएंगे और रामजी के अभियान से प्रेरणा लेंगे।
संसार में बिन लादेन या दाऊद सबसे बड़े अपराधी नहीं हुए, संसार में रावण जैसा आतंकवादी या व्याभिचारी कोई नहीं हुआ। सबसे बड़ा आतंकवादी कौन - रावण। सबसे बड़ा व्याभिचारी कौन - रावण। नैतिकता ताक पर रखने वाला सबसे बड़ा अपराधी कौन - रावण। सबसे ज्यादा धन का संग्रहकर्ता कौन - रावण। ऐसे रावण को रामजी ने जड़ से उखाड़ दिया और स्वयं कुछ भी नहीं लिया, वहीं का वहीं दे दिया, विभीषण को दे दिया। हां, उससे पहले विभीषण को उत्तराधिकार के लिए तैयार किया, उत्तराधिकारी जोरदार होगा, तभी तो विरासत को बहुत दिन तक बनाए रख पाएगा। अभी कल्पना करिए सब काला धन स्विस बैंक से आ जाए, तो फिर चला जाएगा। जब तक अभी जो लोग हैं, नहीं सुधरेंगे, लोगों में राष्ट्रीय भावना, ईश्वरीय भावना, धार्मिक भावना नहीं होगी, तब तक धन नहीं रुकेगा, फिर काला होकर विदेश चला जाएगा। इसलिए इन भावनाओं को संजोना होगा, ताकि धर्म और धन की शुचिता बनी रहे। रामजी इन भावनाओं को तैयार करते हैं, अपनी सेना को पहले ही तैयार कर दिया कि आपका आचार भी पवित्र है, धर्म भी पवित्र, धन भी पवित्र है। धन का सदुपयोग कैसे होगा, इसके लिए पूरी सेना सौ प्रतिशत तैयार है। अभी तो उत्तराधिकारी बनने के लिए ही झगड़ा चल रहा है। एक से एक लोग लगे हुए हैं, पद के पीछे। कहां से क्या हड़प लिया जाए, यही षडयंत्र जारी हैं।
पहले अच्छी टीम तैयार होनी चाहिए, रामजी से प्रेरणा लेनी चाहिए। रामजी ने जिसको साथ लिया, उसको इतना सक्षम बना दिया कि वह लंका को संभाल सकता था, विभीषण ने संभाला, सुग्रीव ने संभाला, निषादराज ने अपने राज को संभाला, कहीं भरत जी को राजा बनाकर भेजा, कई लोगों को राजा बनाया और अपने बेटों को रामायण गायन में लगा दिया। कुश और लव रामायण गा रहे हैं। आइए, इस अद्भुत, अतुलनीय आदर्श से हम सीखें और समस्याओं का समाधान करें। क्रमश:

Sunday, 10 June 2012

श्रीमठ दर्शन



श्रीमठ के सामने गंगा और उस पार श्रीमठ का ही एक आश्रम है, जहाँ गोशाला भी है, श्रीमठ में बच्चों और छात्रों के लिए वहीं से रोज दूध आता है  

बोट (बड़ा वाला ) जो एक भक्त ने श्रीमठ को भेंट किया है.

यह हजारा है, हजार दीपों का स्टैंड. इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने १८वी सदी में काशी विश्वनाथ मंदिर और श्रीमठ का जीर्णोधार करवाया था, तभी यह हजारा बना. इसके बगल में एक छोटा हजारा भी है. देव दीपावली को इसे रौशन किया जाता है, तब देखने के लिए बनारस भर के लोग जुटते हैं और गंगा की रौनक देखने लायक हो जाती है. हजारा के लिए आइना बन जाती है गंगा मैया.

श्रीमठ की चौथी मंजिल की बालकनी या गलियारा, जो हमेशा के लिए याद रह जाता है.  
श्री विधान जी, अर्थात श्रीमठ के हनुमंत, सीधे सज्जन मृदुभाषी संत, जब जगदगुरु श्रीमठ में नहीं होते हैं तो विधान जी ही पूरी देख रेख करते हैं, संतों की सेवा में कोई कमी नहीं, श्रीमठ में रहकर पढ़ रहे छोटे छोटे बच्चों से घिरे रहने वाले, विधान जी सबके बाबा हैं, कोई बालक नेपाल से आया है तो कोई बिहार से तो कोई पूर्वोत्तर भारत से, तो कोई राजस्थान से, विधान जी कहते हैं, हमारा क्या त्याग है, त्याग तो इन बच्चों का है, घर बार से दूर, माता पिता से दूर, बस दो बार खाना मिलता है, सन्यासी का जीवन है, त्याग तो इन बच्चों का है. हम तो इनकी उम्र में चार पांच बार खाते थे, जेब में भूजा रखते थे, जब भूख लगी खा लिया, बच्चे हैं, पढ़ लिख लेंगे तो कोई घर सांसारिक जीवन में लौट जाएगा तो कोई सन्यासी बन जाएगा, कोई कहीं पढ़ाने लगेगा.
एक बालक बहुत विद्वान भी है, उसे संस्कृत में काफी कुछ याद है, मैं उससे पूछता हूँ, क्या घर लौटना चाहते हो? वह बालक जवाब देता है, नहीं घर नहीं लौटूंगा, यहीं रहूँगा पढूंगा.
विधान जी की छत्र छाया में बच्चे खुश हैं,  और विधान जी तो तब खुश होते हैं जब जगदगुरु श्रीमठ में विराजते हैं, विधान जी बहुत भाव बिभोर होकर कहते हैं, हमारे लिए तो वही राम हैं.

Wednesday, 6 June 2012

श्रीमठ दर्शन

श्रीमठ की तीसरी मंजिल पर विराजमान पावन चरण पादुका और जगदगुरु रामानंदाचार्य जी महाराज
श्रीमठ की बाईं ओर के घाट और गंगा जी 

श्रीमठ की दायीं ओर के घाट और गंगा जी   

श्रीमठ के ठीक सामने का घाट और श्रीमठ की बोट (सबसे बड़ी वाली), बनारस की गलियों में जब भीड़ रहती है, तब महाराज जगदगुरु इसी बोट के सहारे दूसरी घाट पर जाकर वहां किसी सड़क वाहन में विराजते हैं. श्रीमठ तक किसी सड़क वाहन के जाने की सुविधा नहीं है. श्रीमठ से करीब एक सवा किलोमीटर दूर वाहन छोड़ देना पड़ता है, और फिर गलियों से होते हुए करीब दस- बारह जगह मुड़ने के बाद गंगा और श्रीमठ के दर्शन होते हैं. जब गलियों में ज्यादा भीड़ नहीं होती और जगदगुरु के पास पूरा समय होता है तो वे भी गलियों से होते हुए लोगों को दर्शन देते हुए निकलते हैं.


बस इतना ही बचा है श्रीमठ, ऊपरी मंजिल अर्थात पांचवी मंजिल पर महाराज के विश्राम का कमरा है, यह कमरा भी छोटा ही है, सुविधा के बहुत जरूरी सामान ही यहाँ हैं. जब यह कमरा नहीं बना था तब महाराज वर्षों तक चतुर्थ मंजिल में रामजी के बगल वाले छोटे से कमरे में रहते थे

चतुर्थ मंजिल पर रामजी के मंदिर के बाहर हॉल में महाराज के बैठने का स्थान झूला. यहाँ महाराज आगंतुकों से मिलते हैं.



समस्या का समाधान

भाग - चार
श्याम मनोहर कृष्ण तो एक ही थे, उनकी हजारों गोपियों और पत्नियां थीं, किन्तु किसी का ‘हार्ट फेल’ नहीं हुआ। किसी ने कृष्ण के विरुद्ध याचिका दायर नहीं की। गोपियां यदि मिलकर हंगामा करतीं, तो भागवत की कथा ही नहीं होती। आप कल्पना कीजिए, जिन्होंने अपना रोम-रोम श्यामसुन्दर को दे दिया, उनसे अधिक समर्पण, प्रेम, सेवा की भावना, आत्मीय भावना या जितने श्रेष्ठ भाव हैं, वो किसी में नहीं हैं और उसके बाद भी कोई बनावट नहीं है। फिर भी लोग कहते हैं कि कृष्ण जी बहुत प्रेमी हैं और भक्ति के आचार्य के रूप में गोपियों को देखा जाता है, उनसे ज्यादा प्रयोग और ज्ञान किसी को भक्ति का नहीं है। आचार्य क्या है? जिसने सर्वस्व को समझा और जिसने सम्पूर्ण जीवन का सार समझा और जीवन में उतारा, उसी को आचार्य कहते हैं। आज तो आचार्य बनाने वालों को ही आचार्य शब्द के अर्थ का ज्ञान नहीं है। भ्रष्टाचार और आतंकवाद के विरुद्ध आंदोलन करने वाले को भ्रष्टाचार का ज्ञान नहीं है। अन्ना हजारे से कोई पूछे कि भ्रष्टाचार आपको सिर्फ धन का ही दिख रहा है? आज तो ऐसी स्थिति हो गई है कि कोई घर आता है, तो कोई पानी भी नहीं पूछता। आचार्य भी आते हैं, तो कोई बैठने को नहीं कहता। मेरे सामने लोग कुर्सी पर बैठने में संकोच करते हैं, किन्तु जिनके पैरों में कष्ट होता है, उन्हें मैं स्वयं कुर्सी पर बैठने के लिए कहता हूं, यही शिष्टाचार है। यदि आचार्य ही भ्रष्ट होंगे, तो उनका कोई महत्व नहीं रह जाएगा। मैं कह देता हूं कि वरिष्ठता का हनन करके लोकतंत्र में यदि किसी जूनियर को आगे ले आया जा रहा है, तो यह भ्रष्टाचार है या नहीं? ऐसे सामाजिक-मानसिक भ्रष्टाचार के सामने धन का भ्रष्टाचार भी छोटा लगता है। सास आए और बहू बैठने को भी न कहे, तो कैसे चलेगा?
आज लोगों को भ्रष्टाचार का वास्तविक स्वरूप ही समझ में नहीं आ रहा है। ऐसे भ्रष्ट आचरण पर भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन चला रहे लोग भी चुप हैं।
रामजी का जो अभियान है, उसे देखना चाहिए। रामजी ने साधन का संग्रह नहीं किया, किसी पार्टी या किसी जाति या किसी अमुक की कोई भी अपेक्षा नहीं की, जो मिलता गया, उसे जोड़ लिया, सुग्रीव मिले, तो उन्हें जोड़ा, जामवंत मिले, तो उनको जोड़ा। निषादराज मिले, तो उनको और अनेक-अनेक व्यक्तियों को अपने साथ जोड़ा।
रामजी ने कहा कि हमारे पास कुछ नहीं है कि आपको वेतन देंगे, जैसे मैं फलाहार करता हूं, आप भी करिए, नंगे पांव मैं हूं, आप भी चलिए।
आप सोचिए, यदि मैं रोज इत्र लगाकर यहां बन-ठनकर ब्यूटीपार्लर से सजकर आऊं, तो मैं आपको कैसा उपदेश दूंगा या कैसा उपदेश दे सकूंगा। आज यही हो रहा है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन करने वालों को चुनाव प्रचार में नहीं जाना चाहिए था। मेरा कहना है, कांग्रेस ने चालीस साल निरंतर राज किया, तो अवश्य उसका पैसा विदेशी बैंक में होगा, किन्तु जिन्होंने छह साल राज किया, उनका भी तो होगा, भले कुछ कम ही हो। उन लोगों को साथ नहीं जोडऩा चाहिए था, यदि आपने उनको जोड़ा, तो लगा कि आप उनके इशारे पर काम कर रहे हैं। ये लोग रामराज्य की बात क्या करेंगे? इनके साथ कितने सच्चे लोग हैं? रामजी के अभियान में बहुत लोग थे और सभी त्यागी, समर्पित, नि:स्वार्थ। क्या रामराज्य चंद लोगों के दम पर ही आ जाएगा? ध्यान रहे, रामराज्य लानेे के लिए त्रेता युग में भी रामजी को सेना बनानी पड़ी थी। आज अनेक बड़े-बड़े संत हैं, उन्हें साथ नहीं लिया जा रहा है। आंदोलन या अभियान कैसे चलेगा, यह पता ही नहीं है। जिस आदमी को यह ज्ञान नहीं है कि अनशन कैसे तोड़ा जाता है, किसके हाथों से रस पिया जाता है, वह कैसे और कितना सफल होगा?
उधर रामजी को देखिए, अपने समय के महान चिंतकों, मनिषियों, ऋषियों के पास आश्रमों में जा-जाकर रामजी दंडवत करते हैं। रामराज्य की स्थापना के कुछ सूत्र हैं, उन्हें अपनाना पड़ेगा। जो सात्विक जीवन के लोग हैं, जिनके जीवन में दाग मात्र नहीं हैं, उनसे आप सहयोग लें, प्रेरणा प्राप्त करें, उनसे आपका आधार बन जाएगा। यह आपके लिए औषधि बन जाएगी। शल्य क्रिया की भी आपके पास तैयारी होनी चाहिए। जैसे अफगानिस्तान में नाटो सेना वाले संहार करते हैं और बाद में जाकर सडक़ बनाना, विधानसभा बनाना और इसमें भारत से भी सहयोग दिया जाता है। शल्य क्रिया के उपरांत दवा देना, मरहम पट्टी करना यह सब जरूरी है। सकारात्मक परिवर्तन की तैयारी हर तरह से होनी चाहिए। रामराज्य में विचारों से परिवर्तन होगा, उसके लिए प्रयास करना होगा, किन्तु आज दुनिया का कौन-सा संगठन है, जो रामजी के अभियान से प्रेरणा ले रहा है?
सभी ऋषियों, मुनियों के आश्रम में रामजी जाते हैं, वोट मांगने के लिए नहीं जाते हैं, उनके विचारों का संग्रह करने, उन विचारों का प्रयोग करने, उन विचारों को अपने जीवन में उतारने के लिए जाते हैं। जरा देखिए तो कि गुरु वशिष्ठ जी के प्रति रामजी में कितना आदर का भाव है। जब आप श्रेष्ठ जन के प्रति आदर का भाव ही नहीं रखेंगे, तो आप क्या श्रेष्ठ पद का उपयोग कर पाएंगे? रामजी ने विश्वास के साथ शुरुआत किया कि राम भाव के विकास की परंपरा, योजना चलनी चाहिए।
हम दुनिया की बात बाद में करेंगे, अपने देश में जिन लोगों ने शताब्दियों तक समाज को प्रभावित किया, जिनके जीवन में क्षण-क्षण में राष्ट्रीय भावना है, मानवता की भावना है, राम राज्य की भावना है, वे सभी लोग पवित्र जीवन के लोग हैं, इनका आचरण और धर्म भी पवित्र है। शास्त्रों से जो ऊर्जा निकल रही है, ये उसके पक्षधर हैं। आज भ्रष्टाचार कहां नहीं हो रहा है? आदि शंकराचार्य ने चार मठ बनाए थे, उनके किसी मठ पर उनका कोई भाई-भतीजा नहीं है, किन्तु अब मठों में क्या हो रहा है, यह भी तो देखा जाए। राम भाव के प्रकाश में जीवन सुधार की आवश्यकता है। क्रमश:

Tuesday, 5 June 2012

समस्याओं का समाधान

भाग - तीन
जब अभियान करने वाला, ऑपरेशन करने वाला, बुराई को दूर करने वाला, नई ताजा, स्वच्छ और प्रबल धारा को स्थापित करने वाला व्यक्ति सही जीवन का नहीं होगा, तो उसके साथ कौन जुड़ेगा? इसीलिए इन दोनों समस्याओं के समाधान के लिए राम चरित्र से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। देखना होगा कि रामजी ने किन सूत्रों के आधार पर आतंकवाद या भ्रष्ट आचरण का विरोध किया। आप ध्यान दीजिए, राम जी लंका गए, लंका पर विजय प्राप्त किया, लेकिन वहां से एक किलो सोना भी लेकर नहीं आए, यदि आज के दौर के लोग गए होते, तो शायद सेना के लोग ही लूटकर ले आते, वहां इतनी नारियां थीं। रावण जब कहीं आक्रमण-अभियान के लिए चला जाता था, तो उसकी जितनी महिलाएं वहां होती थीं, मंदोदरी उन्हें कारागार में बंद करवा देती थी। रावण का क्या था, जहां गया, नारियों का हरण करके लाया, दो-तीन दिन साथ रखा, फिर कहीं गया तो फिर दूसरी-तीसरी ले आया। रावण को कहां ध्यान है? उस महिला को काम में लगाने का काम, दबाकर रखने का काम मंदोदरी देखती थीं। जब रावण मारा गया होगा और जब राम जी ने कहा होगा कि सबको स्वतंत्र कर दो, कोई भी कारागार में नहीं रहेगा, तो न जाने कितनी शोषित महिलाएं व तमाम दूसरे शोषित लोग छूटे होंगे। दूसरे सैनिक होते, तो पांच-पांच नारियों को साथ लेकर लौटते। नागों की, किन्नरों की, गंधर्वों की महिलाएं, फिर से हर ली जातीं। किन्तु रामजी की सेना थी, उसने कुछ नहीं किया। एक औरत नहीं, एक कोई आभूषण नहीं, एक सोना नहीं, कुछ भी नहीं, रामजी ने वहीं का वहीं सबकुछ उसे सौंप दिया, जो सही था। रावण का ही भाई, जो परिशुद्ध जीवन का है, जिसके विकार राम भाव में धुल चुके हैं। निस्संदेह, राम भाव आए बिना व राम भक्ति आए बिना जितने भी विकार खुराफात के कारण हैं, वे धुलते नहीं हैं। जल से सफाई धोने का श्रेष्ठ तरीका है। झाड़ऩे से भी पूरी गंदगी नहीं जाती है, पूरी गंदगी खत्म करने के लिए धोना पड़ता है। मस्तिष्क में जो मल या विकार हैं, काम, क्रोध, लोभ, भोग की भावना, ईष्र्या, इन सबकी एकमात्र सबसे बड़ी दवा है रामभाव। विभीषण को राम जी ने जब राजा घोषित किया, तो कहा कि आइए लंकेश, तो वह लजा गया कि राम जी को तो उसके मन की बात पहले से पता है। तब विभीषण ने कहा कि आपकी सेवा का मन है।
तुलसीदास जी ने विभीषण की बात को इस तरह लिखा है, उर कछु प्रथम बासना रही। पहले मेरे मन में कुछ वासना थी, भोग की, राजा बनने की, सजने की, पत्नियों की...। वैसे सात्विक व्यक्ति बहुत भोगी नहीं होता है। जो आदमी रजोगुणी है, वह बहुत भोगी होता है। दिन भर इसीमें लगा रहता है कि कुर्ता कौन-सा पहने, क्या खाए, क्या पीए, बाल कैसे झाड़े, कैसे उठे-बैठे कि अच्छा दिखे। हमारे चातुर्मास में एक लडक़ी आती थी, कभी बाल संवारे, तो इधर कर ले, तो कभी उधर कर ले। मैंने पूछा कि यह कौन लडक़ी है, उत्तर मिला, यह कथा करती है। अब बताइए, उसे यही समझ में नहीं आए कि बाल किधर कर लूं कि ठीक लगूं। यह दिशा, चिंतन ठीक नहीं है।
रावण जैसा भोगी था, लंपट था, उसमें आवश्यकता से बहुत ज्यादा संग्रह करने की प्रवृत्ति थी, किन्तु विभीषण में ऐसा नहीं था, क्योंकि वह सतोगुण प्रधान था। वातावरण, परिवेश, पिछले जन्म का कुछ पाप और जब लंका में वही-वही रोज हो रहा था, तो कुछ तो असर पड़ता ही है। फिर भी यदि उसे लगता है कि पापी क्यों राजा होगा, मैं राम-राम करने वाला क्यों राजा नहीं हो सकता, तो इसमें क्या अनुचित है। जब कोई अक्षम व्यक्ति भी बड़े पद पर बैठा रहता है, तो दूसरे व्यक्तियों को लगता है कि हम सक्षम हैं, हम ज्ञानी हैं, तो क्यों न हम उस पद पर बैठें, तो इसमें क्या अनुचित है?
तो तुलसीदास जी विभीषण की बात लिखते हैं, उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही। 
अर्थात पहले मेरे हृदय में कुछ वासना थी, किन्तु आपके चरणों में मेरी प्रीति ने सरिता का रूप धारण कर लिया। पहले आपका चिंतन करते-करते आपकी महिमा का ज्ञान बढ़ा। जब हनुमान जी लंका आए, आपकी महिमा का गान किया, तब मेरी प्रीति और बढ़ी और जब आपको देखा, तो मेरी प्रीति ने नदी का रूप धारण कर लिया और मेरे अंदर जो कुछ वासना थी, वह बह गई।
सही प्यार का क्या स्वरूप है? वैष्णव दर्शन में बताया गया है, जब प्रेम बढ़ता है, समाज में, जाति में, परिवार में, तो उसमें लेने का भाव कम होता है। देने-देने का ही भाव होता है। इसे वैष्णव दर्शन में तत्सुख सुखोत्तम कहते हैं। प्रिया को सुख मिले, यह प्रियतम की भावना होती है। यदि वह सुखी है, तो हम सुखी हैं और प्रिया सोचती है कि हमें अपने सुख की कोई परवाह नहीं, जो होगा देखा जाएगा, बस हमारा प्रेमी या प्रियतम खुश रहे। क्रमश: