Saturday, 16 July 2016

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

भाग - २
विश्वामित्र का कद बढ़ा, तो संयम, नियम से बढ़ा, उन्होंने अपने जीवन को पकाया, स्वयं उच्च अवस्था को प्राप्त किया, तो उन्हें ब्रह्मर्षि की उपाधि प्राप्त हुई। ये उपाधि वैसी नहीं थी, जिसे पैसा देकर प्राप्त किया जाए। आजकल दुनिया में जो उपाधियां बंट रही हैं, वैसे पहले उपाधि नहीं बंटती थी। अब किसी के प्रभाव में आकर भी ये उपाधियां दे दी जाती हैं। कसौटियों पर खरा उतरकर ही विश्वामित्र जी को ब्रह्मर्षित्व की प्राप्ति हुई। संसार के धर्मों के लिए यह एक मानक है और परम सनातन है, जो भी कसौटी पर खरा उतरता है, चाहे वह किसी जाति का हो, किसी आयु का, किसी अवस्था का, किसी भाषा का हो, स्वभाव का हो, उसे ऊंचाई मिलनी चाहिए। समाज, संप्रदाय को, परंपरा को उनका अनुसरण करना चाहिए, विश्वामित्र जी को संसार में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त हुआ।
ब्राह्मण को सर्वोच्च माना जाता है और उसने ऐसे काम भी किए हैं, मानवता का उद्धार करना, जितना संयम, उद्यम, अपने को पका-पका कर परम तत्व को प्राप्त करना, मंगल भाव को प्राप्त करना, उसका उपयोग समाज के लिए करना। तो ब्राह्मण ने जितना किया है, उतना किसी ने नहीं किया, इसलिए ब्रह्मर्षित्व की उपाधि कोई केवल ब्राह्मणों की उपाधि नहीं है, यह मानवता की श्रेष्ठ उपाधि है, इससे बड़ी उपाधि हो ही नहीं सकती। जो ईश्वर को जान ले, जो ईश्वर की व्यवस्था को समझ ले, जीवन में उतार ले, जो संपूर्ण संसार के लिए हो गया, जिसमें कोई विद्वेष नहीं है, कोई भी विकृति नहीं है, कदाचार नहीं है, भ्रष्टाचार नहीं है, जिसमें छोडऩे योग्य कुछ नहीं है, उस अवस्था को प्राप्त करना। संसार की सबसे बड़ी उपाधि विश्वामित्र जी ने प्राप्त की। यह उन्होंने तप और त्याग के आधार पर प्राप्त किया, यह बल या धन से प्राप्त स्थान नहीं है। किसी को प्रभावित करके प्राप्त स्थान नहीं है।
राजा विश्वामित्र अपनी सेना के साथ जंगल में विहार कर रहे थे, पर्याप्त मात्रा में सैनिक उनके साथ थे। जितने साधन आवश्यक होते हैं, वो सब थे, बड़ा ही प्रताप था। ऐसी अवस्था में भी वशिष्ठ जी ने उन्हें आकर्षित किया। वे वशिष्ठ जी के आश्रम पहुंच गए। अतिथि तो देव समान होता है। वशिष्ठ जी ने उनका पूरा सत्कार किया। विश्वामित्र जी को कहा कि आप हमें सत्कार का अवसर दें, यहां आप जो कहेंगे, हो जाएगा।
विश्वामित्र जी को लगा कि ये ऋषि हैं, मेरे पास इतनी बड़ी सेना है, सबका सम्मान, सत्कार ये ऋषि कैसे करेंगे। इनका आश्रम छोटा-सा है, इसमें कुछ ही लोग हैं, संसाधन भी अल्प हैं, ऐसी अवस्था में इतनी बड़ी सेना का पालन ये कैसे कर सकते हैं। बहुत महंगा पड़ेगा। उन्होंने मना किया, लेकिन वशिष्ठ जी ने कहा कि सब हो जाएगा, आप आतिथ्य देने के लिए तैयार हो जाइए। बहुत आग्रह करने के बाद राजा विश्वामित्र ने स्वीकार किया कि ठीक है, हम मना नहीं कर सकते।
संसार का, संपूर्ण सृष्टि का, संपूर्ण मानवता का, सबसे तेजस्वी ऊर्जावान, अपनी अंतरात्मा व व्यक्तित्व को निखारने वाला, जिसका जीवन ईश्वर तुल्य जीवन है, जिसके जीवन में रोम-रोम से संयम-नियम-तप झलक रहे हैं, ऐसा ऋषि एक राजा के सम्मान के लिए कह रहा है और बहुत कायदे से कह रहा है, अपनी अंतरात्मा से कह रहा है। बहुत बड़ी बात है। यह क्रम अनुकरणीय क्रम है, वैदिक सनातन धर्म का एक आदर्श क्रम है।
क्रमश:

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