Saturday, 16 July 2016

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

भाग - ३
यह कितना महान देश है, अतिथिदेव भव का देश है। वशिष्ठ जी ने अपने तप और शक्ति के दम पर उनके यहां विराजमान कामधेनु पुत्री नंदिनी की कृपा से विश्वामित्र जी और उनकी सेना का पूरा सम्मान किया। कल्पना नहीं कर सकते थे विश्वामित्र जी, अतिथि सत्कार की कोई ऐसी विधा या कर्म नहीं था, जो वशिष्ठ जी ने नहीं किया। परंपराओं का भरपूर पालन हुआ, अतिथि गदगद हो गए। बहुत बड़ी घटना हो गई। सैनिकों को आश्चर्य हो गया। सभी को लगा कि यह सम्मान तो कहीं प्राप्त ही नहीं हुआ था, पता नहीं कहां से आज ईश्वर तुल्य महर्षि अपनी संपूर्ण सदश्चर्या की शक्ति को लेकर अपनी गऊ नंदिनी की पूरी महिमा को लगाकर सम्मान कर रहा है, बहुत गदगद हुए विश्वामित्र जी।
यहीं से वशिष्ठ और विश्वामित्र के संबंध की शुरुआत हुई। विश्वामित्र जी का मन ललचा गया नन्दिनी की महिमा देखकर। उन्होंने कहा, यह गऊ आप हमें दे दीजिए।
विश्वामित्र जी के पास दान लेने की योग्यता नहीं है, लेकिन वे मांगने लगे। वे अपने धर्म से हटने लगे। लालच वश भी यदि वे ऐसा कर रहे हैं, तो भी वे अपने स्थान से गिर रहे हैं। उन्होंने यह नहीं सोचा कि मुझे वशिष्ठ जी को देना चाहिए, लेकिन मैं मांग रहा हूं।
वशिष्ठ जी ने कहा कि मैं इसके द्वारा अपने यज्ञ सफल बनाता हूं, मेरी संपूर्ण व्यवस्था का यह मूल स्रोत है, सबका सत्कार मैं इससे करता हूं, संसाधन अर्जन से लेकर हर सुविधा मैं इसी से लेता हूं, इसलिए मैं गऊ नहीं दे सकता, क्योंकि इसका कोई विकल्प नहीं है मेरे पास। विकल्प होता, तो मैं दे देता।
यह ध्यान देने की बात है कि विश्वामित्र जी ने जो याचना की थी, वह क्षत्रिय धर्म के खिलाफ थी। वे ऋषि पर आक्रमण नहीं कर सकते थे, राजा पालक होता है, वह मांगने वाला नहीं होता, देने वाला होता है। राजा को ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए कि वह ऋषियों को देने की बजाय मांगने लग जाए।
ऋषि से आध्यात्मिक शक्ति का लाभ उठाना चाहिए, उससे कुछ मांगना, लेना नहीं चाहिए। विश्वामित्र जी ने गलत काम किया। उनका जो प्रजापालक स्वरूप था, वह सब यहां लुप्त हो गया और नंदिनी को बलात ले जाने का उन्होंने प्रयास किया, तो लांछित हो गए, इतिहास उन्हें इसके लिए कभी माफ नहीं करेगा। महाराजा ने अपनी संपूर्ण शक्तियों को नंदिनी के लालच में लांछित कर लिया। गर्त में पहुंचा दिया, अशोभनीय कार्य किया। वशिष्ठ जी के मना करने पर भी वे बलात नंदिनी को ले जाने लगे, लेकिन वशिष्ठ जी शांत बैठे थे, कोई हलचल नहीं, बाहर भी नहीं, मन में भी नहीं, धैर्य की जो अवस्था होती है, संत की जो अवस्था होती है, लाभ और हानि में भी वह समान स्वरूप में रहता है।
नंदिनी ने जाते हुए उनकी ओर देखा, कहा कि आप चाहते हैं, तो मैं अपनी सुरक्षा के लिए कुछ करूं।
वशिष्ठ जी ने भरे हृदय से कहा, करो।
तो नंदिनी ने भयानक क्रोध किया, अपने नथुनों से असंख्य सैनिकों को पैदा कर दिया, जो सैनिक कामधेनु पुत्री नंदिनी की दिव्य शक्ति से पैदा हुए थे, उन्होंने विश्वामित्र जी की सेना को पराजित कर दिया। अद्भुत और अनुपम प्रताप दिखा। इस बड़ी हार से विश्वामित्र बहुत लज्जित हुए। क्षत्रिय बल का घमंड टूटा, वे सोचते थे, क्षत्रिय बल से कोई भी बड़ा नहीं है, लेकिन उन्हें लगा कि क्षत्रिय बल से ब्रह्म बल बड़ा है, ज्यादा प्रभावी है। तभी उन्होंने यह संकल्प लिया कि मैं भी तप करूंगा। मैं भी ऋषि शक्ति को प्राप्त करूंगा। वे तप में जुट गए, आगे बढ़ते गए।
क्रमश:

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