Saturday, 16 July 2016

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

भाग - ६
वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी की आध्यात्मिकता में कहीं भी कोई खोटापन होता, कहीं मन में प्रतिस्पद्र्धा होती, तो ऐसा संभव नहीं होता। वशिष्ठ जी स्वयं लेकर जाते राम जी को या नहीं जाने देते, लेकिन वशिष्ठ जी श्रेष्ठ भावों को समझ रहे थे। आज के ऋषियों-संतों को देखना चाहिए, यदि आज ऐसी स्थिति हो, तो वे क्या करेंगे। विश्वामित्र जी लेने आए हैं, पहली बार राम जी को, ऐसे कर्म के लिए जाना है और इसी यात्रा में विवाह का भी योग बनना है। तो वशिष्ठ जी के स्थान पर कोई अन्य संत या ऋषि होता या आज का कोई धर्माचार्य होता, तो अपने शिष्य को देता क्या? दशरथ जी चाहते भी, तो मना कर देता या कहता कि मैं लेकर आऊंगा, लेकिन धन्य हैं वशिष्ठ जी, उनका ऋषित्व विशिष्ट है, उनमें कहीं से भी कोई त्रुटि नहीं है। इसलिए उन्होंने दशरथ जी को समझाया। समझाया कि राम जी क्यों आए हैं। राम तो संपूर्ण विश्व के लिए राम हैं, संपूर्ण विश्व में धर्म की संस्थापना के लिए राम जी आए हैं। रामराज्य की संस्थापना के लिए आए हैं, सब जगह प्रेम हो, अच्छे संस्कार हों, इसके लिए आए हैं। उस जगह के निर्माण के लिए आए हैं, जहां - सबहीं करें परस्पर प्रीति।
सबके लिए सबके मन में प्रेम हो, सभी लोग जीवन के चरमोत्कर्ष को प्राप्त करके जीवन जीएं। दशरथ जी ने वशिष्ठ जी के कहने पर राम-लक्ष्मण को जाने दिया। आज तक राम, लक्ष्मण के गुरु वशिष्ठ जी थे, लेकिन उन्होंने अपने शिष्यों को कहा कि ये केवल मेरे ही शिष्य नहीं हैं, अब विश्वामित्र जी के भी शिष्य हैं।
आश्वस्त होने के बाद दशरथ जी ने सहर्ष कहा -
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आना नहिं कोऊ।।
यात्रा के दौरान विश्वामित्र जी ने अनेक तरह की शिक्षाओं, साधनाओं से राम जी को परिचित कराया। ऐसे दिव्यास्त्र दिए, जो इन्हें साक्षात भगवान शंकर से मिले थे। ईश्वर के रूप में राम जी सबकुछ जानते हैं, लेकिन तब भी लोकाचार के लिए राम जी को कई शिक्षाओं से विभूषित किया।
आज के आचार्यों, धर्माचार्यों को सीखना चाहिए। आध्यात्मिक जीवन में लोगों को पे्ररणा लेनी चाहिए। सभी दृष्टियों से लौकिक और अलौकिक अवस्थाओं को जानने वाले शिष्य को कोई दूसरे को देता है क्या? मानवता के प्रति भले का भाव वशिष्ठ जी जैसा किसी के पास दिखता है क्या? आज के संतों में वैसा समर्पण है क्या? आज तो ज्यादातर लोग गर्त में जा रहे हैं। आज दो रुपया देने वाला चेला भी दूसरे मठ में जाता है, तो उसके गुरु को बुरा लगता है। बड़े-बड़े संत वेषधारी आचार्य बड़े-बड़े धर्माचार्य एकदम तड़पने लगते हैं कि कहां चला गया चेला, निकम्मा है, गधा है। बहुत विकृत्ति आई है धर्माचार्यों में।
विश्वामित्र जी को कितना अच्छा लगा होगा, वशिष्ठ जी उनका भरपूर सम्मान कर रहे हैं, अपने शिष्यों को मेरे साथ भेज रहे हैं। कैसा अनुभव हुआ होगा उन्हें, यह वैदिक सनातन धर्म का सुख जिसका कोई विकल्प नहीं है। ऐसे चरित्र कहां मिलेंगे, सभी लोगों को ऐसे ऋषियों, संतों से प्रेरणा लेनी चाहिए।
तो रामजी गए उनके साथ ऋषि-मानवता सेवा के लिए। रामजी के बोल तभी पहली बार निकलते हैं, उसके पहले उनके वचन का कोई उदाहरण नहीं मिलता, तुलसीदास जी ने पहली बार राम जी को बोलते हुए विश्वामित्र जी के साथ ही दिखाया। जब यज्ञ प्रारंभ होने वाला था, तब सबसे पहले राम जी ने जो कहा, उसे तुलसीदास जी ने लिखा, उसके पहले उनके किसी वचन को नहीं लिखा। इतनी बड़ी आयु तक वे सावधान थे कि जब राम-वचन की शुरुआत करूंगा, तो जिसके लिए ईश्वर ने अवतार लिया है, उसके लिए करूंगा।
आज खा लिया, आज वहां जाने का मन है, आज यह खेलूंगा, जैसी बालपन वाली बातों का विवरण तुलसीदास जी ने नहीं किया। ईश्वर का अवतार कोई ऐसी बातों के लिए होता है क्या, ईश्वर जिसके लिए आते हैं, उसी का महत्व है।
क्रमश:

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