Saturday, 16 July 2016

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

भाग - ७
सबसे पहले राम जी ने कहा - 
निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाईं। 
आप निर्भय होकर यज्ञ कीजिए। रामजी ने विश्वामित्र जी को कहा, जो राक्षस आएंगे, उन्हें मैं कालकलवित कर दूंगा। आप यज्ञ कीजिए।
धर्म का सबसे बड़ा कृत्य है यज्ञ। देवता जितना देते हैं, उसके बदले में हम भी उन्हें दें, उनका अभिनंदन करें, हमारी मानवता हमारा व्यक्तित्व देवत्व को प्राप्त करेगा। देवत्व से ईश्वरत्व को प्राप्त करेगा। जीवन की सबसे बड़ी ऊंचाई यही होती है कि हम अपने बच्चे को कैसे ऊंचाई तक ले जाएं। तो विश्वामित्र जी का और वशिष्ठ जी का, दोनों का ऋषित्व मिलकर एक बहुत बड़े संसार के उपकार का मार्ग प्रशस्त करता है। लोग कहा करते हैं कि राम जी अद्भुत हैं, ऋषि के समान हैं, ऋषि जैसे दो तत्वों को मिलाता है, एक पक्ष विश्वामित्र और दूसरा पक्ष वशिष्ठ जी हैं। एक का जन्म ही ब्रह्मर्षि के परिवार में हुआ है और एक का जन्म हुआ क्षत्रिय परिवार में, दोनों ने धीरे-धीरे संयम-नियम करते हुए जीवन को बड़ा किया और बहुत बड़ी दूरी थी दोनों के बीच, लेकिन वह भी धीरे-धीरे कम होती चली गई। परिपूर्ण, अटल रूप से दोनों के हित साथ हुए और दानों को राम जी ने जोड़ा। कौशल्या और कैकयी की दूरी को कम किया, उत्तर और दक्षिण को जोड़ा, ऐसे ही रामजी ने विश्वामित्र जी और वशिष्ठ जी को जोड़ा। दोनों ऋषियों ने मिलकर संपूर्ण जीवन में धर्म राज्य-अध्यात्म राज्य को बढ़ाया, यह पे्ररणा लेने वाली बात है।
रामजी जैसा सोचने की जरूरत है। विश्वामित्र और वशिष्ठ की तरह सोचने की जरूरत है। हमारे जीवन का जो मुख्य उद्देश्य है धर्म की स्थापना, हम संतों और आचार्यों के जीवन का, लेकिन अब तो सभी लोग धन एकत्र करने लगे कि कैसे मठ बड़ा हो जाए, कैसे गाडिय़ां बड़ी हो जाएं। कैसे हमारे जीवन का वैभव बढ़े, कैसे हमारा संग्रह प्रभाव बढ़े। कैसे रोज हमारा नाम अखबारों में आए। हम कैसे समाज के नेता हो जाएं, ये तमाम तरह इच्छाएं बलवती हो रही हैं। गृहस्थ जीवन में अर्थ और भोग ही जैसे प्रधान होता है, वैसे ही आज के संतों का मुख्य रूप से उद्देश्य केवल मान-सम्मान, धन-दौलत है।
मैं भगवान से प्रार्थना करता हूं, जैसे आपने वशिष्ठ-विश्वामित्र को एक साथ जोड़ा, दोनों को साथ लेकर संपूर्ण मानवता के लिए अपने को अर्पित किया। असंख्य जीवों का उद्धार किया। कैसी अनुपमता जीवन में प्रकट हुई, ठीक इसी तरह के परिवर्तन आज के संत समाज में होने चाहिए। ऐसा हुआ, तो बहुत लाभ होगा और पूरे विश्व को लाभ होगा। धन, विद्या, शक्ति इत्यादि सबमें वृद्धि होगी। आज जो अभाव दिख रहा है, एक दूसरे को सहन नहीं करने से उपजा अभाव है, कहीं-कहीं लगता है कि केवल हम हम ही हों, दूसरा कोई न हो, यह गलत प्रवृत्ति है। भगवान की दया से विश्वामित्र जी कहते थे कि हमारे एक हाथ में वेद है और एक हाथ में धनुष हैं।
हम दोनों ही दिशाओं में समर्थ हैं। शास्त्र भी है और शक्ति भी है। जिसके जीवन में केवल शास्त्र ही हो, उसका जीवन अधूरा है और जिसके जीवन में केवल शक्ति हो, उसका जीवन भी अधूरा है। भारतीय संस्कृति की विशेषता है। यह ध्यान देने की बात है कि हमने धन बल को बढ़ाया, तप बल को नहीं बढ़ाया, इसलिए देश पराजित हो गया। लंबे समय तक के लिए गुलाम हो गया।
क्रमश:

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