Sunday, 31 December 2023

महाराज और मिठाईवाला


मैं कभी बाजार नहीं गया। बाजार जाने की जरूरत ही क्या है? एक बार काशी में बाजार से गुजर रहा था। एक परिचित ने आवाज देकर रोका, वह एक दुकान पर खड़े थे। उन्होंने मुझे आवाज देकर वहीं दुकान पर बुलाया, आइए, कुछ मिठाई लेकर चलते हैं, वहां, रास्ते में कहां खड़े हैं, यहीं आ जाइए। 

मैं दुकान की दो सीढ़ियां चढ़ गया, तब दुकानदार भी मेरे सामने आ खड़ा हुआ कि आप ऊपर कैसे आ गए? 

मैंने सोचा कि यह लड़ेगा क्या? मैंने पूछा, क्यों मैं यहां नहीं आ सकता? 

तब तक जिन्होंने मुझे बुलाया था, वह निकट आ गए और कहा कि मैंने बुलाया है, ये सड़क पर खड़े थे, इन्हें मैंने ही यहां बुलाया है, मैं इनके लिए ही आपके यहां से मिठाई खरीद रहा हूं। 

लेकिन दुकानदार तो मुझे लगातार देखते हुए अपने सवाल पर ही अड़ा हुआ था कि आप ऊपर कैसे आ गए?

मैंने सोचा कि यह क्या प्रश्न है, लगता है, अब तो महाभारत होगा। तभी दुकानदार ने कहना शुरू किया, बरसों बरस से आप इस रास्ते आ-जा रहे हैं, लेकिन कभी सिर उठाकर नहीं देखा। कभी दुकान की ओर देखा ही नहीं, तो हमें अभी विश्वास ही नहीं हो रहा है कि आप मेरी दुकान पर कैसे आ गए, मामला क्या है, बताइए?

मेरे परिचित ने फिर समझाया कि मैंने ही बुलाया है। तब दुकानदार ने विनम्रता के साथ कहा कि आप रोज ही इनको ऐसे बुला लिया कीजिए, हम बरसों से तरस गए कि ये कौन बाबा जी हैं कि न इधर देखना, न उधर देखना, सीधे रास्ते चलना और बरसों बरस तक ऐसे ही करना। 

मैं कम आयु का था, तब मुझे जानने वाले लोग ही हंगामा कर देते थे कि आप दुकान पर कैसे आ गए, बाजार क्यों गए, आप कहते, तो हम समान आपके पास भिजवा देते। 

सामान या बाजार का क्या चिंतन करना, हमें चिंतन तो केवल ईश्वर का करना चाहिए।

(महाराज के प्रवचन से - महाराज का युवा काल)



 

राक्षस सा परिवार न बढ़ाएं

हमें चाहिए कि हम अपने जीवन को उन तत्वों से जोड़ें, जो हमारे जीवन को ऊपर ले जाएं, इसे आनंददायक बनाएं। केवल मकान बनाने से काम नहीं चलेगा। केवल दुकान से काम नहीं चलेगा। केवल जैसे-तैसे परिवार से काम नहीं चलेगा। जैसे रावण ने परिवार बढ़ा लिया, राक्षस लोग जैसे परिवार बढ़ाते हैं, ठीक उसी तरह से शास्त्र की मर्यादा से दूर हटकर लोग परिवार बढ़ाते हैं, यह नहीं चलेगा। इतनी पत्नियों को एकत्र करके भी रावण संतुष्ट न हो पाया और खोजता रहता था, लड़की मिल जाती, तो घर बस जाता, खुशहाली बढ़ जाती। मालूम है कि लड़की अवैध रूप से, ताकत से लाई गई है, अपहरण करके लाई गई है, यातनाएं झेलकर आई है, फिर भी वह लाता गया। इस क्रम ने उसे बड़ा राक्षस बना दिया।

रामजी से भी कितने लोग प्रभावित हैं, कितने लोग उन्हें अपना मानते हैं, किंतु रामजी ऐसा नहीं करते। उन्हें पता है कि पत्नी माने एकमात्र सीता, संसार की दूसरी त्रिरयां हमारी मां हैं। यदि हम सभी त्रिरयों को पत्नी बनाने लगेंगे, तो महारावण हो जाएंगे।

हमारे प्रारब्ध से जो बनी है, वह मिलेगी। यदि हमारे प्रारब्ध अच्छे नहीं हैं, पाप ज्यादा है, तो दुख भी मिलेगा। मकान सुख भी देता है और दुख भी देता है। परिवार के लोग सुख भी देते हैंऔर दुख भी देते हैं। भगवान की दया से जो पदार्थ हमें मिले, वह सही रीति से मिले और उसका उद्देश्य सही हो। हमें पत्नी मिली है, हम दोनों मिलकर धर्म का संपादन करेंगे। केवल संतान और भोजन नहीं, इससे नहीं चलेगा।, जैसे सभी नदियों का एक ही परम गंतव्य है, ठीक उसी तरह से सभी मनुष्यों का एक ही परम गंतव्य है, परम उद्देश्य है कि हम ईश्वर जैसा जीवन प्राप्त करें।

जब हमारा ईश्वर जैसा जीवन हो गया, तो परिवार, पड़ोस, संपूर्ण संसार का मानवीय जीवन, संसार का सर्वश्रेष्ठ हमें प्राप्त होगा। विभीषण को प्राप्त हो गया था। वह भी अपने राक्षस भाइयों की उसी पंक्ति में था, किंतु उसने भगवान की भक्ति मांगी, जीवन केवल भोग के लिए न हो। मेरा जीवन बाहर भी और भीतर भी ईश्वर की सेवा के लिए हो। राष्ट्र की सेवा करूं, मानवता की सेवा करूं, लांछित कर्म न करूं। ऐसा ही हुआ, विभीषण लंका में रहकर भी पूर्ण रूप से मनुष्य जीवन को जी रहे हैं। वह उन कार्यों में संलिप्त नहीं हैं, जिनमें रावण और कुंभकर्ण आदि लगे हैं। उनका लक्ष्य है कि हमें रामजी की सेवा करनी है और रामजी के माध्यम से संपूर्ण मानवता की सेवा करनी है, इसीलिए बिना किसी बंधन के, बिना किसी माध्यम के वह भगवान की सेवा में आ जाते हैं। उनके अंदर है कि मैं भगवान का हूं। 

रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य

मान देना सीखिए

सम्मान देने का भाव बच्चों में शुरू से डालना चाहिए। इसे ही अंग्रेजी में 'प्रोटोकॉल' कहते हैं- क्या किसकी मर्यादा है! आज में देखता हूं, पिता खड़े रहते हैं और बेटा बैठ जाता है। बताइए, कहीं ऐसा होता है क्या कि पुलिस का बड़ा अधिकारी खड़ा है और छोटा अधिकारी बैठ जाए। ऐसा तो नहीं होता, ऐसा कोर्ट में भी नहीं होता, सेना में नहीं होता, किसी बड़े संगठन में ऐसा होगा क्या? कहीं भी नहीं होता। बड़ा जब तक खड़ा है, तब तक छोटा भी खड़ा रहेगा। बड़ा यदि बैठा है, तो छोटा भी बैठ सकता है, किंतु पूछकर बैठेगा। आज सम्मान देने का भाव बहुत ही कम हो रहा है, प्रोटोकॉल लोग समझ ही नहीं रहे हैं।

अमानिना मानदेयः कीर्तनीयः सदा हरिः। चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि यदि किसी को भक्त बनना है, भगवान का भजन करना है, तो मान की इच्छा छोड़ो और मान देने की इच्छा से जुड़ो। हमें दूसरों को मान देना है। हमें मान चाहिए, हम चाहते हैं कि सब लोग हमारी जय-जयकार करें। मान देने की परंपरा, मर्यादा निभाने की परंपरा बच्चों को शुरू से ही बतलानी चाहिए। जब पिता आएं, तो आप खड़े हो जाओ, उन्हें प्रणाम करो, यह शुरू से सिखाना होगा। पिता बड़े हैं, उनका मान-सम्मान करें। इससे समाज जुड़ेगा, मानवता का विकास होगा। सार्थकता बढ़ेगी। इसलिए भगवान राम जब उठते हैं, तो सबसे पहले भगवान को प्रणाम करके, जो कुलदेवता हैं, माता-पिता को, ब्राह्मणों को, जितने भी बड़े लोग हैं, सबको प्रणाम करते हैं।

प्रणाम बहुत बड़ी साधना है। यह समाज का बहुत बड़ा जोड़ने वाला द्रव है। सम्मान ही आदमी को चाहिए। सारे लोग भोजन ही नहीं मांगते, कपड़ा ही नहीं मांगते, किंतु सम्मान सबको अच्छा लगता है। आज भी लोग हाथ जुड़वाते हैं; हाथ जुड़वाने, प्रणाम करवाने का उपक्रम चल रहा है, किंतु अधिकांश परिवारों में अब बंद हो रहा है। बच्चों को नहीं सिखाते और स्वयं भी नहीं करते हैं। अब तो लोग घुटने में ही हाथ लगा देते हैं। यह कोई बात हुई क्या? कुछ दिनों में पेट में लगा देंगे, उसके बाद छाती में लगा देंगे, गला में लगा देंगे, सिर में लगा देंगे, ये कोई प्रणाम की पद्धति हुई क्या? वरिष्ठ खड़ा है और छोटा ही बैठ गया। यह मर्यादा की बात हुई क्या?

पूरी दुनिया का मूल तंत्र है प्रणाम! हमें किसी को पिघलाना है, हमें किसी को अपना बनाना है, तो उसको हम प्रणाम करें। बाकी सब बातें गौण हैं। अपने बच्चों को यह शिक्षा देनी ही चाहिए कि जब तक बड़े खड़े हैं, तब तक छोटों को बैठना नहीं है। कैसे हाथ जोड़ना है, कैसे चरण स्पर्श करना है। किस तरह से उन्हें बोलना है। यह घर रूपी विद्यालय का कार्य है। 

रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य

स्वागत करना सीखिए

मनु ने लिखा है कि सज्जनों के यहां स्वागत के चार संसाधन सदा उपस्थित रहते हैं। सबसे पहले, कोई आया है, तो हम उसे नमस्कार करें। घर के सभी लोग करें, बच्चों से भी कहें- देखो, मैं कर रहा हूं, आप भी करो। कोई आया है, जो कनिष्ठ है, अनजान है, जान नहीं रहे कि छोटा है या बड़ा, किस भाव से आया है, किंतु उसे भी प्रणाम करना है। हां, ध्यान रहे! साष्टांग दंडवत ईश्वर, गुरु और माता-पिता को ही किया जा सकता है। साष्टांग दंडवत सबके लिए नहीं होता। सामान्य तौर पर कोई भी आपके घर आए, तो कम से कम हाथ जोड़िए।

यह स्वागत है। इतने में आने वाला आदमी पानी हो जाएगा, पानी कहना गलत लग रहा हो, तो गलकर दूध हो जाएगा। जिसे आपने सम्मान दिया, जिसका स्वागत किया है। अपनी संस्कृति में जय श्रीराम, सीता-राम, जय महादेव, जय श्रीकृष्ण, राधे-राधे, राधे-कृष्णा बोलकर भी स्वागत करने का चलन है। यह स्वागत बिना पैसे का है, कोई भी इस व्यवहार को कर सकता है। यह शिक्षा शुरू से नहीं होने से प्रणाम वाली बात तो समाप्त हो चुकी है। लोग घुटने को ही हाथ लगा देते हैं। बड़े-बड़े विद्वान भी घुटने में एक हाथ लगा देते हैं; हो गया प्रणाम, नमस्कार?

स्वागत का दूसरा चरण है- अतिथि को आसन दें। जो भी आसन उपलब्ध हो, उस पर बैठाएं आदर के साथ। ऐसा नहीं कि केवल बोल दिया- बैठिए! हम अतिथि को आसन तक ले आएं और कहें कि विराजिए। आसन को सुशोभित कीजिए। आसन सबको प्रिय है। अंग्रेजी वाले बोलते हैं- 'टेक योर सीट', आप अपनी जगह लें, इसमें वह मर्यादा भाव नहीं है।

तीसरा चरण या संसाधन है- अतिथि से कुशल क्षेम पूछना। यह स्वागत मान देने का बड़ा साधन है। पूछिए कि आप कैसे हैं? इधर कैसे आना हुआ? ये तीन साधन बिना धन, बिना किसी तैयारी के उपलब्ध हैं, हर परिवार में हर समय उपलब्ध हैं।

चौथा हैं, अतिथि को जल पिलाएं। बहुत प्यार से कहें कि जल ग्रहण करें, आप चलकर आ रहे हैं। ऐसा नहीं कि आपने लाकर रख दिया, बहुत है। प्रेम से अतिथि के हाथों में जल का पात्र दीजिए। ये बातें जीवन भर काम आने वाली हैं। सभी लोग अरबपति नहीं होंगे, सभी बड़े पद पर नहीं होंगे, सबको जीवन का बड़ा उत्कर्ष प्राप्त नहीं होगा, लेकिन ये चारों संसाधन, जो अत्यंत प्रभावित करने वाले हैं, जीवात्मा के विकास के बड़े साधन हैं, उनका संपादन करें।

वेद में लिखा है- अतिथि देवो भवः, यानी जो बिना सूचना के आ गया है, तो हम बिना किसी प्रयोजन के, बिना आडंबर, दिखावे के उसका स्वागत करें। ऐसे संस्कार की समाज और राष्ट्र को बहुत जरूरत है। रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य

ब्रह्म कौन है

वेदों में कहा गया कि जो इस संसार को बनाए, उसका पालन भी करे और उसको अपने में छिपा भी ले। जैसे घड़ा टूटने के बाद मिट्टी में छिप जाता है। तिरोहित हो जाता है, तो उसे लोग घड़ा नहीं बोलते, मिट्टी बोलते हैं। सोने के आभूषण टूटने के बाद सोने में छिप जाते हैं, उनको कोई आभूषण नहीं कहता। जैसे, कौन मकान बनाने वाला है, कौन उद्यान बनाने वाला है, उनके लिए आपके मन में एक जिज्ञासा होती है, इसी तरह आपके मन में यह भी जानने की इच्छा होनी चाहिए कि इस संसार को किसने बनाया? वेदों ने कहा, संसार को जो बनाता है, जो इसका पालन करता है, जो इसको अपने में छिपा लेता है, उसी को ब्रह्म कहते हैं।

भूत का क्या अर्थ है? पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश, इनको भूत कहते हैं। तभी तो हम लोगों के शरीर को पांच भूतों से बना हुआ कहा जाता है। छिति जल पावक गगन समीरा, पंच रचित अति अधम शरीरा। यह तुलसीदास जी का वाक्य है। हमारे शरीर में पृथ्वी भी है, जल भी, तेज भी, वायु भी और आकाश भी। हमारे शरीर में जो खुलापन है, वह आकाश का भाग है। देखिए, कान में भी छिद्र है। कान जो बाहर से दिखता है, उसे कान नहीं बोलते। इसके भीतर जो छिद्र या खालीपन है, वह कान है। दर्शनशास्त्र में पढ़ाया जाता है कि भीतर जो आकाश है, खालीपन है, उसी का नाम कान है। यदि भीतर वाला भाग बंद हो जाए, तो हमें सुनाई नहीं पड़ेगा। शब्द का ग्रहण नहीं होगा, ज्ञान नहीं होगा। नाक में भी आकाश है। पेट में भी जो खालीपन है, वह भी आकाश ही है। जहां से रक्त आदि प्रवाहित होते हैं, जल प्रभावित होता है। पृथ्वी का भाग तो आप देखते ही हैं- पैर, हाथ व अन्य अंग। जल भी है शरीर में। वायु का भी हम अनुभव करते रहते हैं, कभी डकार, कभी अपान वायु के रूप में। वायु की भी जरूरत है शरीर को, ऑक्सीजन भी उसी रूप में हैं। इस तरह, हमारे शरीर को पंचभूतों से उत्पन्न या रचित माना जाता है और जब मृत्यु हो जाती है, तब ये सभी पांचों भूत अपने-अपने बड़े शरीर में मिल जाते हैं। देखिए, जिस जगह हम बैठे हैं, यह कमरा, यहां आकाश है। हम इसे बोलते मकान हैं। छत को हटा दीजिए, दीवारों को होउ दीजिए, तो यह जो छोटा आकाश है, महाआकाश में मिल जाएगा। यहां रहें या रूस-अमेरिका जाएं, आपको यही आकाश मिलेगा। तेज, पृथ्वी, वायु, सूर्य का यही स्वरूप मिलेगा। इन सबको जो बनाता है और जो पालन करता है, इनका संरक्षण करता है और जब लगता है कि ये रहने लायक नहीं हैं, तो इनको धीरे से अपने में मिला लेता है, छिपा लेता है, इसी का नाम ईश्वर है, बहा है। रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य

संसार को किसने बनाया

जीवन ऐसे ही निकलता जा रहा है और आपने जाना ही नहीं कि संसार को किसने बनाया? कौन इसका पालन करता है? ऐसे प्रश्न हमारे मन में उमड़ने-घुमड़ने चाहिए। आप ध्यान रखिए कि इस संसार को किसी उद्यमी, नेता या संस्था या सरकार ने नहीं बनाया, जिसने इसे बनाया, उसी को ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म का एक अर्थ और भी है। कहा गया है, यह महान बहुत है। हम लोग महान नहीं हैं। जहां हम बैठे हैं, उतना ही हमारा। जहां हम बैठ जाते हैं, उसी को संसार समझ लेते हैं, हम छोटे लोग हैं। जहां जो बैठा है, उसका संसार बस उतना ही बड़ा है। निरंतर जो विकासशील है, जो महान है, सबसे बड़ा जिसका आकार है, वह ब्रह्म है। हमें ऐसा लगता है कि हम ही पालन करते हैं। जैसे माता-पिता अपने बच्चों को लेकर यही समझते हैं कि हमने इनका पालन किया। पूछिए, उन माता-पिता से कि ऑक्सीजन आप ही हैं क्या? आप ही आकाश हैं क्या? पृथ्वी या जल हैं क्या? हमारा यह स्वरूप नहीं है कि हम किसी का पालन कर सकें। हमें यह भ्रम होता है कि हम ने ही यह सब किया है। सोचिए, आप कौन हैं? आप झूठ ही यह मान रहे हैं कि मैंने वह कर दिया, यह कर दिया। ऐसा अभिमान हमें सभी क्षेत्रों में होता है, जो दिखता भी है।

ठीक ऐसे ही, अभी जो चिंतन में आपको सुना रहा हूं, वह मेरा है या उसमें मेरे और पूर्वजों का भी योगदान है। मूल चिंतक कौन है, जिसने हमें यह विचार दिया? वह कौन है, जिसने हमें समझने की शक्ति दी? जिसने हमें आपके पास यह चिंतन पहुंचाने के लिए बल दिया, बुद्धि दी, वह कौन है? इसीलिए पूरे संसार को बनाना, उसका पालन करना और उसे अपने में छिपा लेना, जैसे समुद्र सभी जलधाराओं को छिपा लेता है। समुद्र जल का सबसे बड़ा स्वरूप है। जल की बूंदें अंश मात्र हैं। इस कमरे का जो आकाश है, दीवार या छत टूटने के बाद जिस आकाश में मिल जाएगा, वह महा-आकाश है। वह अपने में छिपा लेता है।

बड़ा बनने के लिए आवश्यक है कि अंश अपने अंश में मिल जाए। जलधाराएं खतरे में रहती हैं, लेकिन अंततः उस समुद्र में मिल जाती हैं, जो कभी सूखता नहीं है, बल्कि जो तमाम धाराओं को अपने में समाहित कर लेता है।

मिट्टी के टुकड़े को आपने ऊपर फेंका, वह आ गया पृथ्वी पर, मिल गया पृथ्वी में, तो बड़ा हो गया। हम लोग भी यही प्रयास कर रहे हैं बड़ा होने के लिए। हम ईश्वर जैसा बनना चाहते हैं, जो सबसे बड़ा है, सबसे शक्तिमान है। हम तो सिर्फ उसके अंश हैं। अंश जब अंश में मिल जाता है, तो सबसे बड़े स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।

रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी महाराज 






 



 





 

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