वेदों में कहा गया कि जो इस संसार को बनाए, उसका पालन भी करे और उसको अपने में छिपा भी ले। जैसे घड़ा टूटने के बाद मिट्टी में छिप जाता है। तिरोहित हो जाता है, तो उसे लोग घड़ा नहीं बोलते, मिट्टी बोलते हैं। सोने के आभूषण टूटने के बाद सोने में छिप जाते हैं, उनको कोई आभूषण नहीं कहता। जैसे, कौन मकान बनाने वाला है, कौन उद्यान बनाने वाला है, उनके लिए आपके मन में एक जिज्ञासा होती है, इसी तरह आपके मन में यह भी जानने की इच्छा होनी चाहिए कि इस संसार को किसने बनाया? वेदों ने कहा, संसार को जो बनाता है, जो इसका पालन करता है, जो इसको अपने में छिपा लेता है, उसी को ब्रह्म कहते हैं।
भूत का क्या अर्थ है? पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश, इनको भूत कहते हैं। तभी तो हम लोगों के शरीर को पांच भूतों से बना हुआ कहा जाता है। छिति जल पावक गगन समीरा, पंच रचित अति अधम शरीरा। यह तुलसीदास जी का वाक्य है। हमारे शरीर में पृथ्वी भी है, जल भी, तेज भी, वायु भी और आकाश भी। हमारे शरीर में जो खुलापन है, वह आकाश का भाग है। देखिए, कान में भी छिद्र है। कान जो बाहर से दिखता है, उसे कान नहीं बोलते। इसके भीतर जो छिद्र या खालीपन है, वह कान है। दर्शनशास्त्र में पढ़ाया जाता है कि भीतर जो आकाश है, खालीपन है, उसी का नाम कान है। यदि भीतर वाला भाग बंद हो जाए, तो हमें सुनाई नहीं पड़ेगा। शब्द का ग्रहण नहीं होगा, ज्ञान नहीं होगा। नाक में भी आकाश है। पेट में भी जो खालीपन है, वह भी आकाश ही है। जहां से रक्त आदि प्रवाहित होते हैं, जल प्रभावित होता है। पृथ्वी का भाग तो आप देखते ही हैं- पैर, हाथ व अन्य अंग। जल भी है शरीर में। वायु का भी हम अनुभव करते रहते हैं, कभी डकार, कभी अपान वायु के रूप में। वायु की भी जरूरत है शरीर को, ऑक्सीजन भी उसी रूप में हैं। इस तरह, हमारे शरीर को पंचभूतों से उत्पन्न या रचित माना जाता है और जब मृत्यु हो जाती है, तब ये सभी पांचों भूत अपने-अपने बड़े शरीर में मिल जाते हैं। देखिए, जिस जगह हम बैठे हैं, यह कमरा, यहां आकाश है। हम इसे बोलते मकान हैं। छत को हटा दीजिए, दीवारों को होउ दीजिए, तो यह जो छोटा आकाश है, महाआकाश में मिल जाएगा। यहां रहें या रूस-अमेरिका जाएं, आपको यही आकाश मिलेगा। तेज, पृथ्वी, वायु, सूर्य का यही स्वरूप मिलेगा। इन सबको जो बनाता है और जो पालन करता है, इनका संरक्षण करता है और जब लगता है कि ये रहने लायक नहीं हैं, तो इनको धीरे से अपने में मिला लेता है, छिपा लेता है, इसी का नाम ईश्वर है, बहा है। रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य
No comments:
Post a Comment