प्रवचन भाग - तीन
पहले शक्ति, औजारों, रथों का जो सम्मान था, पूजन का जो सही प्रतीक था, वह आज कहां है? जो धन मिला, बल मिला, प्रचण्डता मिली, जो विद्या मिली, उसका उपयोग कहां हो रहा है, कैसे हो रहा है? व्यवस्थाएं निरंतर क्यों बिगड़ रही हैं? कामाख्या हों, विंध्याचल हों, वैष्णो देवी हों, हर देवी-शक्ति के स्थान पर भीड़ बढ़ रही है, सजावट बढ़ी रही है। पहले दुर्गा पूजा केवल बंगाल में होती थी, अब लगभग हर स्थान पर होने लगी है। दुर्गा पूजा की भव्यता बढ़ी है, किन्तु पूजा की आध्यात्मिक प्रेरणा, दबाव, सुगन्ध, ऊर्जा से लोग लाभान्वित नहीं हो पा रहे हैं। जो आयोजक हैं, वे उस वातावरण को पैदा नहीं कर रहे हैं, जो देवी पूजन का वातावरण होना चाहिए। वैसे बड़े-बड़े पंडाल बन रहे हैं, प्रसाद वितरण चल रहा है, लेकिन पूजा और आध्यात्मिक वातावरण गौण होता जा रहा है। आध्यात्मिक वातावरण पहले मुख्य था। वातानुकूलन की मशीन बहुत बड़ी हो और वह ठीक से काम नहीं करेगी, तो कमरे में बैठे लोगों को शीतलता कहां से मिलेगी? जो बड़ी ऊर्जा पहले प्रेरित करती थी, आकृष्ट करती थी कि शक्ति की मूल स्रोत मां से जो शक्ति मिलेगी, उसका सही सामाजिक, राष्ट्रीय, आध्यात्मिक उपयोग होगा, वह आज कम हुई है। पहले प्रेरणा मिलती थी, ये जो मां हैं, शक्ति का मूल स्रोत हैं, उसका हम सही-सही स्थानों पर प्रयोग करेंगे, जहां शक्ति की आवश्यकता है, वहीं उसका उपयोग करेंगे। किन्तु अब भव्य पूजा आयोजन, गरबा, डांडिया इत्यादि में काफी विकृतियां आ गई हैं, कार्यक्रम का स्वरूप तो बढ़ा, किन्तु विकृतियों ने अध्यात्म का गला घोंट दिया है। इस काल में लोग बेटियों को लेकर चिंतित हो जाते हैं कि क्या होगा। इस काल में धन और चरित्र, दोनों का खूब भ्रष्टाचार होता है। क्षणिक आनंद लेने के प्रयास में युवा परंपरा और शास्त्र से दूर हो जाते हैं। पूजन करने वालों में ही नहीं, अब पूजा करवाने वालों में भी कमी आई है। घर में भी पूजन सुधरना चाहिए। पूजन परंपरा से परे होने लगा है। अब पूजन के समय कोई ब्राह्मण नहीं कह रहा है कि आप धोती पहनें, आप ध्यान लगाइए, पूजन पर ध्यान दीजिए, पूजन के समय मोबाइल मत उठाइए, अब तो ब्राह्मणों का जोर भी केवल दक्षिणा पर है, उन्हें कोई मतलब नहीं कि यजमान या पूजा करवाने वाले नहाकर आए हैं या नहीं। शुद्धता समाप्त हो चुकी है। सच्ची पूजा में लोग शक्ति नहीं लगा रहे हैं।
पहले समाज की जो मर्यादाएं थीं, अंकुश थे, जाति-परिवार-समाज के जो अंकुश थे, वो भी ढीले हुए हैं, इससे भी महिला शोषण बढ़ा है। पूजन बिगड़ा, समाज पर धर्मगुरु, विद्वानों का, जाति का, समाजसेवकों का और राष्ट्र के प्रमुख लोगों का जो अंकुश था, वह कमजोर हो गया है। स्थितियां इतना बिगड़ी हैं कि अब तो कन्याओं को परिजनों और जान-पहचान वालों से ही खतरा होने लगा है। प्रशासन और पुलिस की बात छोड़ दीजिए, समाज और परिवार का अंकुश ही कमजोर पड़ गया है। किसी को यदि कोई छेड़ रहा है, तो वहां तीसरे व्यक्ति की भी बड़ी भूमिका होती है। पहले व्यक्ति-व्यक्ति पर दृष्टि रहती थी, किन्तु अब नहीं रहती। सब लोग दृष्टि रखें, तो कोई गड़बड़ नहीं हो।
लोग बच्चों को जरूरत से ज्यादा छूट दे रहे हैं, लडक़े को भी और लडक़ी को भी, साथी चुनने की भी छूट बढ़ी है, इस छूट का लाभ लेकर ज्यादातर युवा भटकने लगे हैं। हमारी एक संभ्रान्त शिष्या हैं, कह रही थीं कि समय इतना बिगड़ा है कि बहनों को अब भाइयों से ही खतरा होने लगा है, दूसरों की क्या बात करें?
सरकार की बात छोडि़ए, समाज भी अपनी भूमिका का सही निर्वहन नहीं कर रहा है, परिवार और पिता भी बच्चों पर पहले की तरह ध्यान नहीं दे रहे हैं। कई अभिभावक कहते हैं कि अपना क्या है, बेटे या बेटी का जहां मन होगा, वहां शादी कर देंगे, वास्तव में ये अभिभावक अपने उत्तरदायित्व से बचना चाहते हैं, वे बच्चों के सम्बंध के लिए उतना समय नहीं दे रहे हैं, जितना उन्हें देना चाहिए। यह भाव भी आने लगा है कि बेटी खुद चुन लेगी, तो धन बचेगा। समाज के भरोसे और मनमानी पर ही यदि बेटी को छोड़ देना था, तो फिर क्यों जन्म दिया? अभिभावक मेहनत से बचने लगे हैं। पालन-पोषण को समय नहीं दे रहे हैं। अभिभावक अच्छी शिक्षा का परिवेश देने की बजाय बच्चों को देर रात तक पार्टी मनाने की छूट देने लगे हैं। यह शक्ति का अपव्यय है।
शक्ति हमें तभी सम्पूर्ण सुख देगी, जब हम सही मार्ग पर चलेंगे। शक्ति तभी सार्थक होती है, जब हम सही मार्ग पर चलते हैं।
क्रमश:
पहले शक्ति, औजारों, रथों का जो सम्मान था, पूजन का जो सही प्रतीक था, वह आज कहां है? जो धन मिला, बल मिला, प्रचण्डता मिली, जो विद्या मिली, उसका उपयोग कहां हो रहा है, कैसे हो रहा है? व्यवस्थाएं निरंतर क्यों बिगड़ रही हैं? कामाख्या हों, विंध्याचल हों, वैष्णो देवी हों, हर देवी-शक्ति के स्थान पर भीड़ बढ़ रही है, सजावट बढ़ी रही है। पहले दुर्गा पूजा केवल बंगाल में होती थी, अब लगभग हर स्थान पर होने लगी है। दुर्गा पूजा की भव्यता बढ़ी है, किन्तु पूजा की आध्यात्मिक प्रेरणा, दबाव, सुगन्ध, ऊर्जा से लोग लाभान्वित नहीं हो पा रहे हैं। जो आयोजक हैं, वे उस वातावरण को पैदा नहीं कर रहे हैं, जो देवी पूजन का वातावरण होना चाहिए। वैसे बड़े-बड़े पंडाल बन रहे हैं, प्रसाद वितरण चल रहा है, लेकिन पूजा और आध्यात्मिक वातावरण गौण होता जा रहा है। आध्यात्मिक वातावरण पहले मुख्य था। वातानुकूलन की मशीन बहुत बड़ी हो और वह ठीक से काम नहीं करेगी, तो कमरे में बैठे लोगों को शीतलता कहां से मिलेगी? जो बड़ी ऊर्जा पहले प्रेरित करती थी, आकृष्ट करती थी कि शक्ति की मूल स्रोत मां से जो शक्ति मिलेगी, उसका सही सामाजिक, राष्ट्रीय, आध्यात्मिक उपयोग होगा, वह आज कम हुई है। पहले प्रेरणा मिलती थी, ये जो मां हैं, शक्ति का मूल स्रोत हैं, उसका हम सही-सही स्थानों पर प्रयोग करेंगे, जहां शक्ति की आवश्यकता है, वहीं उसका उपयोग करेंगे। किन्तु अब भव्य पूजा आयोजन, गरबा, डांडिया इत्यादि में काफी विकृतियां आ गई हैं, कार्यक्रम का स्वरूप तो बढ़ा, किन्तु विकृतियों ने अध्यात्म का गला घोंट दिया है। इस काल में लोग बेटियों को लेकर चिंतित हो जाते हैं कि क्या होगा। इस काल में धन और चरित्र, दोनों का खूब भ्रष्टाचार होता है। क्षणिक आनंद लेने के प्रयास में युवा परंपरा और शास्त्र से दूर हो जाते हैं। पूजन करने वालों में ही नहीं, अब पूजा करवाने वालों में भी कमी आई है। घर में भी पूजन सुधरना चाहिए। पूजन परंपरा से परे होने लगा है। अब पूजन के समय कोई ब्राह्मण नहीं कह रहा है कि आप धोती पहनें, आप ध्यान लगाइए, पूजन पर ध्यान दीजिए, पूजन के समय मोबाइल मत उठाइए, अब तो ब्राह्मणों का जोर भी केवल दक्षिणा पर है, उन्हें कोई मतलब नहीं कि यजमान या पूजा करवाने वाले नहाकर आए हैं या नहीं। शुद्धता समाप्त हो चुकी है। सच्ची पूजा में लोग शक्ति नहीं लगा रहे हैं।
पहले समाज की जो मर्यादाएं थीं, अंकुश थे, जाति-परिवार-समाज के जो अंकुश थे, वो भी ढीले हुए हैं, इससे भी महिला शोषण बढ़ा है। पूजन बिगड़ा, समाज पर धर्मगुरु, विद्वानों का, जाति का, समाजसेवकों का और राष्ट्र के प्रमुख लोगों का जो अंकुश था, वह कमजोर हो गया है। स्थितियां इतना बिगड़ी हैं कि अब तो कन्याओं को परिजनों और जान-पहचान वालों से ही खतरा होने लगा है। प्रशासन और पुलिस की बात छोड़ दीजिए, समाज और परिवार का अंकुश ही कमजोर पड़ गया है। किसी को यदि कोई छेड़ रहा है, तो वहां तीसरे व्यक्ति की भी बड़ी भूमिका होती है। पहले व्यक्ति-व्यक्ति पर दृष्टि रहती थी, किन्तु अब नहीं रहती। सब लोग दृष्टि रखें, तो कोई गड़बड़ नहीं हो।
लोग बच्चों को जरूरत से ज्यादा छूट दे रहे हैं, लडक़े को भी और लडक़ी को भी, साथी चुनने की भी छूट बढ़ी है, इस छूट का लाभ लेकर ज्यादातर युवा भटकने लगे हैं। हमारी एक संभ्रान्त शिष्या हैं, कह रही थीं कि समय इतना बिगड़ा है कि बहनों को अब भाइयों से ही खतरा होने लगा है, दूसरों की क्या बात करें?
सरकार की बात छोडि़ए, समाज भी अपनी भूमिका का सही निर्वहन नहीं कर रहा है, परिवार और पिता भी बच्चों पर पहले की तरह ध्यान नहीं दे रहे हैं। कई अभिभावक कहते हैं कि अपना क्या है, बेटे या बेटी का जहां मन होगा, वहां शादी कर देंगे, वास्तव में ये अभिभावक अपने उत्तरदायित्व से बचना चाहते हैं, वे बच्चों के सम्बंध के लिए उतना समय नहीं दे रहे हैं, जितना उन्हें देना चाहिए। यह भाव भी आने लगा है कि बेटी खुद चुन लेगी, तो धन बचेगा। समाज के भरोसे और मनमानी पर ही यदि बेटी को छोड़ देना था, तो फिर क्यों जन्म दिया? अभिभावक मेहनत से बचने लगे हैं। पालन-पोषण को समय नहीं दे रहे हैं। अभिभावक अच्छी शिक्षा का परिवेश देने की बजाय बच्चों को देर रात तक पार्टी मनाने की छूट देने लगे हैं। यह शक्ति का अपव्यय है।
शक्ति हमें तभी सम्पूर्ण सुख देगी, जब हम सही मार्ग पर चलेंगे। शक्ति तभी सार्थक होती है, जब हम सही मार्ग पर चलते हैं।
क्रमश:
No comments:
Post a Comment