Wednesday, 30 October 2013

शक्ति का दुरुपयोग न हो

प्रवचन भाग - चार
अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा -
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।
अर्थात हे योगेश्वर ! मैं किस प्रकार निरंतर चिन्तन करता हुआ आपको जानूं और आप किन-किन भावों में मेरे द्वारा चिन्तन करने योग्य हैं?
इसके उत्तर में श्रीकृष्ण ने बहुत-सी बातें बताईं, उन्होंने यह भी कहा कि मैं हिमालय हूं, हिमालय का ध्यान करो, नदियों में गंगा हूं, समासों में द्वंद्व हूं, शब्दों में अक्षर हूं अर्थात 'úÓ हूं, अक्षरों में अकार हूं, जो सबमें होता है। उसी तरह से भगवान ने कहा मैं काम हूं। काम माने भोग, जिसे ठीक से न समझने के कारण संसार में विकृतियां आ रही हैं। भोग की भावना सबमें है, जैसे सबमें बड़ा बनने या यश अर्जित करने की भावना है। वेदों में स्पष्ट लिखा है, हर व्यक्ति तीन ऐषणाओं के साथ आता है, पुत्र की ऐषणा, धन की ऐषणा और लोक की ऐषणा। संसार में हर किसी में ये तीन इच्छाएं होती हैं। हर कोई चाहता है कि उसके पास धन हो, समाज में यश मिले, वंश आगे चले, पुत्र हो। सिर्फ भोग ही काम की चरम परिणति नहीं है। केवल हम आनंदाभूति करें, यह चरम परिणति नहीं है। काम की चरम परिणति पुत्रोत्पत्ति है और पुत्र भी ऐसा उत्पन्न होना चाहिए, जो संस्कारी, सबल, धार्मिक, विद्वान हो, जो परिवार, समाज, राष्ट्र व मानवता को बल दे सके, समृद्ध कर सके, इतिहास रच सके। ऐसे अच्छे पुत्रों की ही उत्पत्ति हो, तभी सबका कल्याण होगा। तो भगवान ने कहा कि मैं धर्म से अवरुद्ध काम हूं। भगवान ने यह भी कहा कि प्रजनश्चास्मि कन्दर्प: . . शास्त्र की रीति से सन्तान की उत्पत्ति हेतु काम हूं।
काम किसमें नहीं होता, काम किसमें नहीं था, जितने महात्मा महापुरुष संसार में जन्मे हैं, सबमें काम रहा है। भूख हर किसी को लगती है। संन्यासियों को भी खाने की इच्छा होती है, किन्तु कैसे, क्या, कहां खाना चाहिए, बनाने की प्रक्रिया कैसी है भोग लगा कि नहीं यह सब देखना चाहिए। खाते हैं, कपड़ा पहनते हैं, चलते हैं, घूमते हैं, इसी का तो नाम भोग है। देखना चाहिए कि आपके हिस्से का है या नहीं, खाने योग्य है या नहीं, उपयोग योग्य है या नहीं। धर्म के नियंत्रण में जो व्यक्ति चलते हैं, उनका भोग भी योग हो जाता है। सबके कल्याण का कारण बन जाता है।
भोग की भावना जवानों में होना स्वाभाविक है, किन्तु चिंता यह कि वे अनियंत्रित हो रहे हैं, जब ड्राइवर में 'ट्रैफिक सेंसÓ नहीं है, गाड़ी चलाने में परिपक्व नहीं है, तो अनियंत्रित गाड़ी चलाता है, दुर्घटना कर देता है। समाज में कन्या या देवी का पूजन हो रहा है, किन्तु उस पूजन का आधार क्या है या उस पूजन का ध्येय क्या है, पूजन को हमें किस रूप में ग्रहण करना है, यह वैसे ही नहीं बतलाया जा रहा है, जैसे किसी को यह नहीं बताया जाए कि संपत्ति आने के बाद उसका व्यय कैसे किया जाए। व्यय करना नहीं आएगा, तो समस्या तो होगी ही। पांच करोड़ रुपए किसी को दे दीजिए, यदि वह बच्चा हो, तो संभव है, सारे रुपए की टॉफी खरीदने बाजार दौड़ पड़े। हममें खाने की भावना है, किन्तु हम सबकुछ नहीं खाते, हममें पहनने की भावना है, किन्तु हम अपने सारे धन का कपड़ा नहीं खरीद लेते हैं, तो हम विवेक से खाते हैं, विवेक से पहनते हैं। मकान बनाने की भी भावना होती है, किन्तु अपनी शक्ति का संतुलन करके ही अपने अनुकूल मकान बनाते हैं। बड़ी गाड़ी की इच्छा होती है, किन्तु हम संतुलन बनाते हैं कि कितनी बड़ी गाड़ी से काम चल जाएगा। ठीक इसी तरह से स्त्रियों से जुडऩे की भावना में भी संतुलन होना चाहिए। शक्ति का विनियोग यदि विवेक के साथ किया जाए, तभी सुख होता है। वेदों ने यह नहीं कहा कि आप केवल आनंदाभूति के लिए विवाह करें, कहा गया कि पुत्र की इच्छा से ही भोग करना है। वेदों ने यह नहीं कहा कि काम ऐषणा होनी चाहिए, वेदों ने कहा कि पुत्र ऐषणा स्वाभाविक है।  
इसी तरह मठाधीशी की चरम परिणति इसमें नहीं है कि जो दान में धन आया है, उसका उपयोग रोज गुलाब जामुन, जलेबी खाने, रोज छप्पन भोग खाने में किया जाए। भोग के कारण कई महंत भी बदनाम हुए हैं। महंत जी बन गए, मोटे हो गए हैं, चला नहीं जा रहा है, दूसरों को बता रहे हैं कि ऐ दाल रोटी खाने वाले, मैं छप्पन भोग खाता हूं। वास्तव में यह मठाधीशी नहीं है, यह तो शक्ति का दुरुपयोग हो गया। संत का जीवन तो समाज के कल्याण में है, स्वयं छप्पन भोग, बड़ी गाड़ी, बड़े भवन के भोग में लग जाने में नहीं।
क्रमश:

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