Friday, 4 October 2013

सद्चरित्र भी पढि़ए-पढ़ाइए

चित्र श्री हिमांशु व्यास जी ने लिए हैं
भाग - २
बच्चों को जैसे बहुत-सी बातों की शिक्षा दी जाती है, वैसे ही उन्हें यह शिक्षा भी देनी चाहिए कि माता-पिता जहां चाहेंगे, वहीं विवाह करना होगा। बच्चों को साफ बताना होगा कि घर में भी ठीक से रहना होगा। संयम से नहीं रहेंगे, तो बहुत महत्व नहीं मिलेगा या संपत्ति में भागीदारी नहीं मिलेगी। ऐसे तमाम तरह के नियंत्रण घर-परिवार में पहले होते थे, किन्तु अब उसमें काफी छूट हो गई है। पारिवारिक वातावरण में भी संयम का भाव नहीं रह पाया है। मेरा मानना है कि पहले से ही बच्चों को अगर यह बात कही जाए कि हम अपनी परंपरा के हिसाब से ही आपकी शादी करेंगे, यह निर्णय हम सोच-समझकर लेंगे, तो बच्चा या किशोर समझेगा और संयम में रहेगा। कई परिवार ऐसे हैं, जहां माता-पिता पहले ही यह बात स्पष्ट कर देते हैं, तो देखा गया है कि इन परिवारों के बच्चे संयम के साथ सही मार्ग पर चलते हैं और जिन परिवारों में आवश्यकता से अधिक स्वतंत्रता दी जाती है, वहां बच्चों में संयम कम होता है और उनके गलत मार्ग पकडऩे की आशंका ज्यादा रहती है।
किसी लडक़ी को यदि यह ज्ञात हो जाए कि फलां लडक़ा गलत है, तो उससे दूर ही रहना चाहिए। कभी भी मित्र या जीवन साथी के रूप में किसी अपराधी, अराजक, अभद्र, असंयमी, अनुशासनहीन व्यक्ति का चयन नहीं करना चाहिए। किन्तु यह कौन बताएगा? इसका माता-पिता पर सर्वाधिक उत्तरदायित्व है। बच्चों को माता-पिता के नियंत्रण में रहना चाहिए, तभी परिवार बचेंगे। जो इस तरह के गलत लोग हैं उनका बहिष्कार हो, बिरादरी से, समाज से अलग किया जाए। कई घटनाएं होती हैं, जब लोग अपने भटके हुए बच्चों को जान से मार देते हैं, किन्तु यह गलत है, तरीके में सुधार होना चाहिए। हत्या बिल्कुल गलत है, वास्तव में भटके हुए लोगों का सामाजिक परिष्कार होना चाहिए। समझाकर सुधारना चाहिए, फिर भी यदि कोई समाज विरोधी गलत कार्य करे, तो उसके साथ खान-पान का व्यवहार नहीं रखें, उससे बोले नहीं, गलत और चरित्रहीन व्यक्तियों का बहिष्कार ज्यादा अच्छा उपाय है। गलत आदमी को किनारे कर दीजिए, उपेक्षित छोड़ दीजिए, वह स्वयं सुधर जाएगा या अपने अंत को प्राप्त हो जाएगा।
चरित्र निर्माण पर सरकार को भी पूरा ध्यान देना चाहिए। सरकार के पास संसाधन है, तो बच्चियों को अलग से शिक्षा दी जाए, उनके लिए अलग शिक्षण संस्थाओं को बढ़ावा देना चाहिए। चिंतन, मनन, अध्ययन का लडक़ों के लिए अलग स्थान हो, लड़कियों के लिए अलग स्थान हो, तो उनमें संयम बढ़ेगा, भटकाव कम होगा।
एक बार मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति से मिला, तो उनसे पूछा, 'आपके विश्वविद्यालय के परिसर में लडक़े-लड़कियां किस रूप में रहते हैं, क्या उस पर आपका कोई नियंत्रण है?Ó
तो उन्होंने उत्तर दिया, 'हम केवल पढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं, कौन कहां किससे गले मिल रहा है, कौन कहां बैठ रहा है? हमें इससे क्या लेना-देना?Ó
ध्यान दीजिए, यह एक कुलपति के शब्द हैं, जिस पर पूरे विश्वविद्यालय परिसर का उत्तरदायित्व है। यदि विश्वविद्यालय परिसर में कुछ गलत हो रहा है, तो इसके लिए सीधे कुलपति की ही जिम्मेदारी बनती है। प्राचीन काल में आश्रमों में क्या होता था, अभी आश्रमों में क्या होता है, आश्रम या मठ के प्रमुख पर ही उत्तरदायित्व होता है। आश्रम में कौन-कैसे उठेगा, बैठेगा, रहेगा, इसका उत्तरदायित्व आश्रम के प्रमुख पर ही होता है आज भी। लगभग हर आश्रम और यहां तक कि अस्पतालों में भी व्यवहार की अपनी आचार संहिता होती है, जिसके अनुरूप ही उस परिसर में सबको व्यवहार करना पड़ता है। विश्वविद्यालय जो शिक्षा की इतनी बड़ी संस्था है, उसमें कोई आचार संहिता ही नहीं है कि लडक़े कैसे बोलते हैं, कैसे बैठते हैं, कैसे दिखते हैं, किस तरह से व्यवहार कर रहे हैं, क्या सोचते हैं, कोई संहिता ही नहीं है? कुलपति को ही जब संयमित आचार-विचार की चिंता नहीं है, तब विश्वविद्यालयों के परिसर में विकृतियों को पनपने और बढऩे से कौन रोक सकता है? प्रकृति का ऐसा विधान है कि स्त्री और पुरुष के बीच एक दूसरे के प्रति स्वाभाविक आकर्षण होगा, किन्तु यदि संयम नहीं होगा, तो विकृति होगी ही और वह परिसर ही नहीं, उसके बाहर सडक़ों पर भी दिखेगी।
क्रमश:

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