Tuesday, 17 May 2016

महर्षि वशिष्ठ : ऐसा साधु न कोय

(महर्षि वशिष्ठ पर केन्द्रित महाराज के प्रवचन के संपादित अंश)  

कुछ गुरु प्रारंभिक शिक्षा के होते हैं, तो कुछ मध्य शिक्षा के और कुछ अंत शिक्षा के होते हैं और उतने ही काल तक उनकी भूमिका रहती है। शिक्षक और गुरु का जो दायरा है, उसी में वे जुड़े रहते हैं। कोई-कोई गुरु ऐसे भी होते हैं, जो जीवन भर जुड़े रहते हैं। जरूरी है कि गुरु का ज्ञान बड़ा हो, व्यावहारिकता बहुत अच्छी हो, बच्चों या शिष्यों को जोडक़र रखने की कला हो। गुरु जो शिष्यों की गतिविधियों को बल देता हो, तो क्रम बना रहता है जीवन भर, लेकिन दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए। गुरु वशिष्ठ का जो लंबा क्रम था, एक तो वे कुल पुरोहित थे, वे केवल राम जी के गुरु नहीं थे, दिलीप और रघु के गुरु नहीं थे, वे संपूर्ण रघुवंश के पुरोहित नियुक्त हुए थे। पुरोहित तमाम तरह की पारिवारिक, सामाजिक गतिविधियों और संस्कारों की गतिविधियों से, बुराइयों से बचाने की अनेक गतिविधियों से जुड़ा रहता है। सत्यनारायण कथा भी हो, तो पुरोहित के बिना नहीं होती। विवाह हो या मुंडन हो, पुरोहित के बिना कोई भी संस्कार संभव नहीं है। नामकरण संस्कार, विद्यारम्भ संस्कार, जनेऊ संस्कार, गर्भाधान संस्कार से लेकर अंतिम संस्कार तक, संपूर्ण कार्य पुरोहित के माध्यम से ही संपन्न होते हैं। यह बड़ी खासियत थी कि वशिष्ठ जी कुल पुरोहित के साथ-साथ जीवन को आलोकित करने वाला जो संपूर्ण ज्ञान है, वैदिक सनातन धर्म का जो सार सर्वस्व है, जो परम रहस्य है, उसके भी ज्ञाता थे। वे शिक्षा देने का भी काम करते थे। उन्होंने ज्योतिष व अन्य तमाम तरह के ज्ञान प्राप्त थे। लौकिक जीवन में जिन संस्कारों की जरूरत होती है, जैसे तंत्र-मंत्र की जरूरत होती है, उसके भी वशिष्ठ जी ज्ञाता थे, इसलिए ऐसा कोई राजा इस वंश में नहीं हुआ है, ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हुआ है, जो वशिष्ठ से न जुड़ा हो। कई बार गुरु अपने कई दुव्र्यसनों के कारण भी जजमान परिवार से दूर हो जाता है, लेकिन गुरु वशिष्ठ जी में किसी तरह का वैसा दुव्र्यसन या दुव्र्यवहार नहीं था, किसी तरह की कुचेष्टा नहीं थी, जो उन्हें रघुवंश से दूर करती है, अत्यंत समर्पित रहने के कारण वे निरंतर रघुवंश से जुड़े रहे।
रघुवंश का पुरोहित उन्हें उनके पिताश्री ने ही बनवाया था। वे ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि रघुवंशियों या सूर्यवंशियों के कुल पुरोहित बन जाओ, तो उन्होंने कुछ अरुचि जताई। यह बहुत अच्छा कर्म नहीं है, ऐसा सीधे कहा तो नहीं, क्योंकि इससे पिता की आज्ञा का उल्लंघन होता था, लेकिन जितना उत्साह होना चाहिए था, जितना आनंद होना चाहिए, उतना उन्हें नहीं हुआ था। ब्रह्मा जी समझ गए कि पुत्र को पुरोहित बनने के लिए जाना है, इसलिए उसका मन ठीक नहीं लग रहा। यह आम धारणा रही है कि पुरोहिती को कोई अच्छा काम नहीं माना गया। वैसे अपने यहां पुरोहित का बहुत महत्व है, अगर यह नहीं हो, तो सारा संसार भ्रष्ट हो जाए।
वैसे आज गर्भाधान संस्कार, नामकरण संस्कार इत्यादि अनेक संस्कार हैं, जो नहीं होते हैं। खाने-पीने में लोग पैसा लगाते हैं, लेकिन मूल संस्कार कर्म में नहीं लगाते हैं। फिर भी यह धारणा है, पुरोहिती को कभी प्रशस्त कर्म नहीं माना गया है, ऐसा उल्लेख भी मिलता है। फिर भी पिता की आज्ञा का पालन वशिष्ठ जी ने किया, रघुकुल के पुरोहित हो गए। कुल पुरोहित का अर्थ है, किसी भी तरह की कोई समस्या आती है, किसी भी तरह का व्यवधान आता है, तो पुरोहित आगे बढक़र जजमान को मार्ग दिखाए। पुरोहित बनकर वशिष्ठ जी ने समग्र रघुवंश की सेवा की। रघुवंश को संसार का सबसे बड़ा और सबसे अच्छा वंश कहा जाए, तो कुछ भी गलत नहीं होगा। वशिष्ठ जी ने अपने संपूर्ण ज्ञान से इस वंश को पाला, विकसित किया और समृद्ध बनाया। वे केवल पूजा-पाठ ही नहीं करवाते थे, केवल शिक्षा देने तक ही वे सीमित नहीं थे, संपूर्ण गतिविधियों का संपादन उनके द्वारा होता था। रघुवंश में कोई भी निर्णय या पहल गुरु वशिष्ठ के बिना संभव नहीं था। उनसे सम्मति ली जाती थी, इसलिए दूसरे गुरुओं से बिल्कुल अलग वशिष्ठ का व्यापक सम्बंध अपने जजमान परिवार के साथ था। कुल पुरोहित को किसी तरह की कमी नहीं होती थी, संपूर्ण साधन उसके पास होते थे। 
पुरोहित को राजा समान समझा जाता था, जजमान अपने पुरोहित को संपूर्ण समृद्धियों से सज्जित करते रहते थे, लगता था, जैसे राजा ही हैं, कोई साधन विहीन ब्राह्मण नहीं हैं, अध्यापक या पुरोहित नहीं हैं। संपूर्ण समृद्धियों से भरा-पूरा उनका जीवन रहता था। वशिष्ठ जी तो केवल पुरोहित ही नहीं, बहुत पहुंचे हुए ऋषि थे। ब्रह्मा जी के मानस पुत्रों में उनकी गणना है। भगवान की दया से उन्होंने तप, संयम, नियम, शुद्ध आहार और विचार से संपन्न संपूर्ण जीवन जिया, किसी तरह की कमी नहीं थी।
क्रमश:

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