भाग - ३
ईश्वर ने संसार को बनाकर छोड़ दिया होता, यदि ऋषियों, संतों, विद्वानों का सृजन नहीं हुआ होता, तो संसार वहीं का वहीं पड़ा रहता। जैसे वेदों ने कहा कि सत्य बोलना चाहिए, सत्यम वद्। वेदों के माध्यम से ईश्वर ने यह बोल दिया, लेकिन वह हर व्यक्ति के पास आकर यह नहीं बोल सकता कि आप सत्य बोलिए, भगवान कितना समय कितने लोगों के साथ बिता सकते हैं, इसीलिए शास्त्रों की रचना हुई, शास्त्रों का अनुसरण करके संतों ने अपने जीवन को अच्छा व धन्य बनाया। संसार में अनेक संतों का प्रादिर्भाव हुआ, न जाने कितने संतों ने संतत्व के विकास के लिए अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया। संयम, नियम से सज्जित जीवन के माध्यम से ऊंचाई को प्राप्त किया। उन्होंने बार-बार बताया कि मेरा जीवन अपने लिए ही नहीं है, संपूर्ण संसार के लिए है। जैसे सूर्य अपने लिए नहीं उगता, जैसे चांद अपने लिए नहीं उगता, जैसे नदियां अपने लिए नहीं बहतीं, आकाश अपने लिए ही आवागमन की सुविधा नहीं देता, ठीक उसी तरह से संत का जीवन भी दूसरों के लिए है। संत, मुनि जीवन के लोग अपने जीवन को समाज के लिए पूर्णत: समर्पित कर देते हैं, उनमें अपना स्व कुछ नहीं होता, उनमें अपने भोग की भावना नहीं होती। कहीं भी वे शक्ति नष्ट नहीं करते, कहीं मन में कटुता नहीं आती। एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, संपूर्ण जीवन वे ऐसा ही करते चलते हैं। केवल ईश्वरीय भावों को, सर्वश्रेष्ठ भावों को सबको बांटना है। सर्वश्रेष्ठ भावों को अपने जीवन में उतारकर उसका प्रयोग सबको बताना है। कोई भेदभाव नहीं करना है, न जाति का भेदभाव, न क्षेत्र का, न भाषा का, हमें तो बस अच्छी बातें बतलाना है, लोगों को सुशिक्षित बनाना है, सत्य बोलना है और लोगों से बोलवाना है।
सत्य में जो प्रतिष्ठित होता है, वह यदि किसी पापी को भी बोल दे कि तुम स्वर्ग जाओगे, तो पापी को स्वर्ग मिल जाता है, ऐसा योग दर्शन में कहा गया है।
इसमें पैसा नहीं लगता, इसके लिए किसी बड़े विश्वविद्यालय में डिग्री लेने की जरूरत नहीं है, अखाड़े में जाने की जरूरत नहीं, मैदान में जाने की जरूरत नहीं है, जो जहां पर है, वहीं पर जो ज्ञान हुआ है, जो वस्तु जैसी है, उसका ध्यान करे और उसी के अनुरूप बोले। संसार की बहुत बड़ी समस्या का समाधान केवल सत्य बोलने से हो जाएगा और यही काम संत लोग सदा से करते रहे हैं।
कबीरदास जी की एक कथा है। वे एक दिन बैठकर राम-राम भजन कर रहे थे, तभी एक आदमी भागता हुआ आया और बोला, ‘मुझे बचाओ, कोई मुझे हथियार लेकर मारने के लिए दौड़ा रहा है। बोल रहा है कि मार दूंगा, आप मुझे बचाओ।’
पास ही रुई का ढेर था, कबीरदास जी ने कहा, ‘जाओ, उसमें छिप जाओ।’
वह व्यक्ति बहुत डरा हुआ था, बिना विचार किए वह तत्काल जाकर रुई के ढेर में छिप गया। इसके कुछ ही पल बाद तलवार लिए एक आदमी आया, उसने पूछा, ‘यहां एक आदमी दौड़ता हुआ आया था क्या?’
कबीरदास जी ने कहा, ‘हां, इसी ढेर में छिपा हुआ है।’
हमला करने आए व्यक्ति ने कहा, ‘मुझे मूर्ख बना रहे हो, जिसे मौत का भय होगा, वह रुई के ढेर में छिपेगा क्या? उसमें तो मारना बहुत आसान है, रुई में तो कोई आग लगा देगा, तो छिपा बैठा आदमी मर जाएगा। तलवार से बचना है, तो व्यक्ति कहीं और छिपेगा। वह सोचेगा कि किसी भी तरह से सुरक्षा हो जाए, यह संभव नहीं है कि कोई रुई में छिपे।’
कबीरदास जी ने कहा, ‘मैं कह रहा हूं कि वह यहीं छिपा है।’
हमलावर व्यक्ति को विश्वास नहीं हुआ, वह बुरा-भला कहते आगे बढ़ गया। उसके जाने के कुछ देर बाद रुई में छिपा व्यक्ति बाहर निकला। उसने कबीरदास जी से कहा, ‘आप बाबा बड़े ढोंगी हो, आपने मुझे छिपाया और वह आया तो आपने उसे भी बता दिया कि इसी में छिपा है, आप तो ढोंगी हैं, आप तो जान के साथ खिलवाड़ कर रहे थे, मैं तो भाग्य से बच गया।’
कबीरदास जी ने कहा, ‘मैंने तुम्हें रुई से नहीं ढका था, मैंने तुम्हें सत्य से ढका था, सत्य पर कोई तलवार काम नहीं करती। तुम छिपे थे, मैं संत हूं, मैंने ही छिपाया था, मैंने ही कहा कि आप मार दीजिए, लेकिन सत्य इतना मजबूत है कि उस हमलावर को विश्वास ही नहीं हुआ। वह तो उसे रुई समझ रहा था और मैं सत्य समझ रहा था।’
तो संत लोग अपने प्रत्येक व्यवहार को सत्यतापूर्वक चलाते हैं। संयम, वैराग्य की इच्छा से अपना पूरा जीवन चलाते हैं और समाज में ऐसे श्रेष्ठ मूल्यों का प्रचार करते हैं, जिन मूल्यों के कारण मनुष्य मनुष्यता वाला बन जाता है, जिसके कारण मनुष्य देवता तक बन जाता है, चंद्रमा बन जाता है, ग्रह-नक्षत्र बन जाता है।
क्रमश:
ईश्वर ने संसार को बनाकर छोड़ दिया होता, यदि ऋषियों, संतों, विद्वानों का सृजन नहीं हुआ होता, तो संसार वहीं का वहीं पड़ा रहता। जैसे वेदों ने कहा कि सत्य बोलना चाहिए, सत्यम वद्। वेदों के माध्यम से ईश्वर ने यह बोल दिया, लेकिन वह हर व्यक्ति के पास आकर यह नहीं बोल सकता कि आप सत्य बोलिए, भगवान कितना समय कितने लोगों के साथ बिता सकते हैं, इसीलिए शास्त्रों की रचना हुई, शास्त्रों का अनुसरण करके संतों ने अपने जीवन को अच्छा व धन्य बनाया। संसार में अनेक संतों का प्रादिर्भाव हुआ, न जाने कितने संतों ने संतत्व के विकास के लिए अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया। संयम, नियम से सज्जित जीवन के माध्यम से ऊंचाई को प्राप्त किया। उन्होंने बार-बार बताया कि मेरा जीवन अपने लिए ही नहीं है, संपूर्ण संसार के लिए है। जैसे सूर्य अपने लिए नहीं उगता, जैसे चांद अपने लिए नहीं उगता, जैसे नदियां अपने लिए नहीं बहतीं, आकाश अपने लिए ही आवागमन की सुविधा नहीं देता, ठीक उसी तरह से संत का जीवन भी दूसरों के लिए है। संत, मुनि जीवन के लोग अपने जीवन को समाज के लिए पूर्णत: समर्पित कर देते हैं, उनमें अपना स्व कुछ नहीं होता, उनमें अपने भोग की भावना नहीं होती। कहीं भी वे शक्ति नष्ट नहीं करते, कहीं मन में कटुता नहीं आती। एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, संपूर्ण जीवन वे ऐसा ही करते चलते हैं। केवल ईश्वरीय भावों को, सर्वश्रेष्ठ भावों को सबको बांटना है। सर्वश्रेष्ठ भावों को अपने जीवन में उतारकर उसका प्रयोग सबको बताना है। कोई भेदभाव नहीं करना है, न जाति का भेदभाव, न क्षेत्र का, न भाषा का, हमें तो बस अच्छी बातें बतलाना है, लोगों को सुशिक्षित बनाना है, सत्य बोलना है और लोगों से बोलवाना है।
सत्य में जो प्रतिष्ठित होता है, वह यदि किसी पापी को भी बोल दे कि तुम स्वर्ग जाओगे, तो पापी को स्वर्ग मिल जाता है, ऐसा योग दर्शन में कहा गया है।
इसमें पैसा नहीं लगता, इसके लिए किसी बड़े विश्वविद्यालय में डिग्री लेने की जरूरत नहीं है, अखाड़े में जाने की जरूरत नहीं, मैदान में जाने की जरूरत नहीं है, जो जहां पर है, वहीं पर जो ज्ञान हुआ है, जो वस्तु जैसी है, उसका ध्यान करे और उसी के अनुरूप बोले। संसार की बहुत बड़ी समस्या का समाधान केवल सत्य बोलने से हो जाएगा और यही काम संत लोग सदा से करते रहे हैं।
कबीरदास जी की एक कथा है। वे एक दिन बैठकर राम-राम भजन कर रहे थे, तभी एक आदमी भागता हुआ आया और बोला, ‘मुझे बचाओ, कोई मुझे हथियार लेकर मारने के लिए दौड़ा रहा है। बोल रहा है कि मार दूंगा, आप मुझे बचाओ।’
पास ही रुई का ढेर था, कबीरदास जी ने कहा, ‘जाओ, उसमें छिप जाओ।’
वह व्यक्ति बहुत डरा हुआ था, बिना विचार किए वह तत्काल जाकर रुई के ढेर में छिप गया। इसके कुछ ही पल बाद तलवार लिए एक आदमी आया, उसने पूछा, ‘यहां एक आदमी दौड़ता हुआ आया था क्या?’
कबीरदास जी ने कहा, ‘हां, इसी ढेर में छिपा हुआ है।’
हमला करने आए व्यक्ति ने कहा, ‘मुझे मूर्ख बना रहे हो, जिसे मौत का भय होगा, वह रुई के ढेर में छिपेगा क्या? उसमें तो मारना बहुत आसान है, रुई में तो कोई आग लगा देगा, तो छिपा बैठा आदमी मर जाएगा। तलवार से बचना है, तो व्यक्ति कहीं और छिपेगा। वह सोचेगा कि किसी भी तरह से सुरक्षा हो जाए, यह संभव नहीं है कि कोई रुई में छिपे।’
कबीरदास जी ने कहा, ‘मैं कह रहा हूं कि वह यहीं छिपा है।’
हमलावर व्यक्ति को विश्वास नहीं हुआ, वह बुरा-भला कहते आगे बढ़ गया। उसके जाने के कुछ देर बाद रुई में छिपा व्यक्ति बाहर निकला। उसने कबीरदास जी से कहा, ‘आप बाबा बड़े ढोंगी हो, आपने मुझे छिपाया और वह आया तो आपने उसे भी बता दिया कि इसी में छिपा है, आप तो ढोंगी हैं, आप तो जान के साथ खिलवाड़ कर रहे थे, मैं तो भाग्य से बच गया।’
कबीरदास जी ने कहा, ‘मैंने तुम्हें रुई से नहीं ढका था, मैंने तुम्हें सत्य से ढका था, सत्य पर कोई तलवार काम नहीं करती। तुम छिपे थे, मैं संत हूं, मैंने ही छिपाया था, मैंने ही कहा कि आप मार दीजिए, लेकिन सत्य इतना मजबूत है कि उस हमलावर को विश्वास ही नहीं हुआ। वह तो उसे रुई समझ रहा था और मैं सत्य समझ रहा था।’
तो संत लोग अपने प्रत्येक व्यवहार को सत्यतापूर्वक चलाते हैं। संयम, वैराग्य की इच्छा से अपना पूरा जीवन चलाते हैं और समाज में ऐसे श्रेष्ठ मूल्यों का प्रचार करते हैं, जिन मूल्यों के कारण मनुष्य मनुष्यता वाला बन जाता है, जिसके कारण मनुष्य देवता तक बन जाता है, चंद्रमा बन जाता है, ग्रह-नक्षत्र बन जाता है।
क्रमश:
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