Monday, 16 May 2016

साधु, तुझको क्या हुआ ?


भाग - ४
दुनिया के दूसरे देशों में भी संत हुए, लेकिन जितनी समृद्ध परंपरा संतों की भारत में रही है, वैसी कहीं नहीं रही। कल भी नहीं थी और आज भी नहीं है और कल भी नहीं रहेगी। यहां संतत्व की प्राप्ति का बड़ा राजमार्ग था, इस राजमार्ग पर चलकर असंख्य लोग संतत्व को प्राप्त करते थे। इस मार्ग पर चलना है, यह ईश्वरीय मार्ग है, यह खाने-कमाने का मार्ग नहीं है। कहीं भी रहकर संतत्व को प्राप्त किया जा सकता है, किसी भी कमरे में किसी भी क्षेत्र में, भाषा, जाति, समाज, आयु में रहकर संत बना जा सकता है।
रोम-रोम से जैसे ईश्वर का जीवन होता है, वैसे ही संत का जीवन होना चाहिए, कहीं कोई बुराई नहीं, वासना नहीं, कहीं कोई राग, विद्वेष नहीं। कोई दुर्गण उनमें नहीं है, ये लोग घूम-घूमकर संस्कारों का प्रचार करते हैं, असंख्य लोगों को मंगलमय जीवन देते हैं, पूर्ण विश्राम का जीवन देते हैं। अद्भुत जीवन है उनका। ऐसी ही देश में एक लंबी परंपरा चली है, संतत्व जो है, वह सतयुग में भी वैसा ही था, त्रेता में भी और द्वापर में भी ऐसा ही और कलयुग में भी ऐसा ही है।
कौन कितना बड़ा संत है, यह कैसे तय होगा? संत ने ईश्वरीयता को कहां तक प्राप्त किया है और कहां तक प्राप्त नहीं किया है, इससे ही संत के बड़े या छोटे होने का निर्धारण होगा। जिसको ज्ञान नहीं है, वैराग्य, निष्ठा, प्रेम नहीं है, वो संत कैसे बनेगा? कभी भी किसी भी काल में सभी लोग पूर्णत: संतत्व को प्राप्प्त नहीं होते हैं। जो ईश्वरीय कण है, वह सभी में नहीं आता। जैसे सभी लोग वैज्ञानिक नहीं होते, सभी लोग अच्छे खिलाड़ी नहीं होते, सभी लोग बड़े विद्वान नहीं होते, जैसे सभी लोग बलशाली नहीं होते, जैसे सारे लोग योग्य नहीं होते, वैसे ही सभी संतत्व की प्राप्ति में लगे हुए लोग पूर्ण संत नहीं होते। संतत्व आंशिक रूप से आता है, कुछ मात्रा में आता है, आंशिक रूप से आ जाता है, तो भी संत सम्मानित हो जाते हैं।
आजकल संतत्व लांछित हो रहा है, संतों को जो काम करना चाहिए, नित्य अनुष्ठान, संयम, नियम, तप का जो उपक्रम होना चाहिए, वह अब नहीं हो रहा है। संतों को जो काम करने चाहिए, उसमें काफी गिरावट आई है। त्रेता में भी गिरावट आई, कुछ द्वापर में आई और कलयुग में भी गिरावट हुई। इसलिए समाज भी लांछित हो रहे हैं, क्योंकि संतत्व कम हुआ है। संतत्व की प्राप्ति में लगे हर व्यक्ति को देखकर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता है। अनेक प्रयासरत संतों को देखकर लोगों को लगता है कि अब संत नहीं होते, अब संतों का जीवन सात्विक नहीं रहता। आज ऐसे संत बहुत कम हैं, जिन्हें खाने-पीने, धन की चिंता नहीं है, जिन्हें परिवार और अपनी जाति की चिंता नहीं है। ऐसे संत कम हैं, जिन्होंने स्वयं को संसार को समर्पित कर रखा है।
फिर भी आज समाज में संत की बड़ी उपयोगिता है। आम आदमी में विकार होता है, अपनी कमाई का थोड़ा धर्म पर खर्च करता है, लेकिन सच्चा संत जो भी कमाता है, उसे पूरा का पूरा समाज पर खर्च कर देता है। संत और आम आदमी में यही फर्क है, संत जो भी कमाता है, उसे पूरा खर्च कर सकता है, लेकिन आम आदमी बचत के बारे में सोचता है। कई संत तो कर्ज लेकर भी समाज का भला करते हैं, क्योंकि समाज के कार्य जरूरी हैं। अच्छे संत अपने ऊपर पैसे खर्च नहीं करते। आम आदमी जो भी बल हो, ज्ञान हो, प्रभाव हो, उसका उपयोग अपने लिए, अपने लोगों, अपने परिवार के लिए, अपने सम्बंधियों के लिए करता है और संत का जो स्वभाव है, संत की जो आंतरिक कमाई है, उसे वह संपूर्ण समाज के लिए खर्च करता है। कहीं से उसमें यह भावना नहीं होती कि ये हमारी जाति के हैं, हमारे संपर्क वाले हैं, हमारे सम्बंधी हैं, हमारी भाषा के हैं। जितने जुड़ाव हैं, उन सबसे अलग हटकर संत अपने जीवन को समाज-संसार के लिए अर्पित कर देता है। निश्चित रूप से संसार की जो स्थिति आज है, यदि संतों को घटा दिया जाए, तो लोगों को अच्छा जीवन जीने की कला ही नहीं आएगी। 
संत प्रयोगशाला भी होते थे और कारखाना भी। संत लेबोरेटरी भी होते थे और फैक्ट्री भी। संत श्रेष्ठ भावों की प्रयोगशाला होते थे, वे स्वयं में अच्छे मूल्यों का प्रयोग करते थे और दूसरों को भी इसके लिए तैयार करते थे। दूसरों में भी सफल प्रयुक्त-उपयोगी भावों को डालना संतों का ही काम होता है।
महर्षि विश्वामित्र जी के जीवन में ऐसा प्रसंग आता है कि वे जब राजा थे, तब वशिष्ठ जी से पवित्र गऊ कामधेनु पुत्री नन्दिनी मांग रहे थे। जब वे सेना के माध्यम से गाय ले जाने लगे, तब नन्दिनी ने वशिष्ठ से पूछा कि क्या मैं बचने-छूटने का प्रयास करूं। वशिष्ठ जी ने कहा कि करो। नन्दिनी ने तत्काल विशाल सेना को जन्म दिया और विश्वामित्र की सेना पराजित होकर लौटने को मजबूर हो गई। विश्वामित्र ने अनेक प्रकार से वशिष्ठ को कष्ट दिए, उनके पुत्रों को भी मार दिया, लेकिन वशिष्ठ जी कुछ नहीं बोले, कहीं कोई आक्रोश नहीं, विद्वेष नहीं। साधु ऐसे ही होते हैं। इसका प्रभाव विश्वामित्र जी पर पड़ा, वे समझ गए कि राजाओं से भी अधिक शक्ति व महानता साधुओं-ऋषियों के पास है। उन्होंने भी तप-जप-नियम से स्वयं को ब्रह्मर्षि बना लिया।
क्रमश:

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