Sunday, 15 May 2016

साधु, तुझको क्या हुआ?


(महाराज के विशेष प्रवचन का संपादित अंश)

संसार में आकार, प्रकार, स्वभाव की अथाह विविधता है, जहां चौरासी लाख योनियों की चर्चा की जाती है। चौरासी लाख योनियों के संपूर्ण निर्माण का जो श्रेय है, सनातन धर्म के अनुसार, सृष्टि जहां भी हो, जैसी भी हो, इस संपूर्ण सृष्टि का निर्माता ईश्वर ही है। ईश्वर द्वारा ही संसार में सारे निर्माण हो रहे हैं। जिन्हें आज के आधुनिक निर्माण कहा जाता है, वो निर्माण भी उसी ईश्वर के बनाए हुए पदार्थों को ही जोड़-तोडक़र हो रहे हैं। अनुसंधान हो रहे हैं, वस्तुएं बन रही हैं, उपयोगी पदार्थ बन रहे हैं, लेकिन उसका जो मूल है, उसका जो प्रारंभ है, वह तो ईश्वर ही है। इतनी बड़ी सृष्टि का संपादन कोई मनुष्य नहीं कर सकता - न समुद्र का, न हिमालय का, न आकाश का, न पृथ्वी का, न वायु का, न ग्रह-नक्षत्र का। इसलिए यह माना गया है और इसको बार-बार वेदों ने, पुराणों ने, स्मृतियों में दोहराया गया है कि संसार को ईश्वर ही बनाता है और वही उसका पालन करता है, वही उसका पोषण करता है। उसको सुन्दर बनाता है, उपयोगी बनाता है, उसे सुदृढ़ बनाता है और जब कभी उसे लगता है कि अनिवार्य है, तो उस चीज को अपने में समाहित कर लेना है, इसी को संहार कहते हैं। ईश्वर अपनी तरह से सुधार करता है। जैसे राज प्रथा की जो विकृतियां थीं, उनमें से बहुत-सी विकृतियों से समाज को छुटकारा मिला। उसकी तुलना में लोकतंत्र में बहुत-सी अच्छाइयां हैं, जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है। वैसे ही संसार को बनाकर ईश्वर ने वेदों, शास्त्रों के रूप में नियम-कानून भी बनाए कि जीवन में कैसे चलना है, कैसे रहना है, किस तरह से विकास होगा, किस तरह से व्यक्ति सही रहेगा। संपूर्ण नियम-कानून उसने बनाए और उसी आधार पर संसार को अच्छाई की ओर ले जाने का सही मार्गदर्शन किया।
कहीं कोई आदमी भटक रहा है, तो उसके दोषों को दूर करके सही रास्ते पर लाने का, कोई और अधिक उन्नति करना चाहता है, तो उसका भी मार्गदर्शन करने का। सहायक साधनों को देकर आगे बढ़ाने का, इस तरह हर सही उपाय किए गए। प्रेरित किया कि अपने दायरे में सभी परम शक्ति या सुप्रीम पावर से जुड़ें। आज यह होना कठिन लगता है, लेकिन राजतंत्र हो या लोकतंत्र या कोई अन्य तंत्र हो, परम शक्ति से सभी लोग सीधे जुडक़र अपना संरक्षण प्राप्त करें, अपना विकास प्राप्त करें। अपने जीवन की अच्छाइयों को प्राप्त करें, अपना जो भी कुछ जीवन के लिए अनुकूल है, उसे प्राप्त करें, यह कठिन काम है, इसलिए आज की दुनिया में लोकतंत्र की महत्ता अत्यंत सात्विक दृष्टि से सभी लोग स्वीकार करते हैं कि यह अच्छा तंत्र है। वैसे ही ईश्वर ने अपनी बातों को लोगों को समझाने के लिए, सही रास्ते पर लाने के लिए कि कैसे लोगों का विकास हो, चिंतन, शरीर, धन, ज्ञान का कैसे विकास हो, कैसे लोगों की गतिविधियों का विकास हो, उसके लिए एक प्रतिनिधि परंपरा का प्रारंभ किया, यही संत परंपरा है। जो ईश्वर की भावनाएं होती हैं, जो ईश्वर की स्थापनाएं होती हैं, जो ईश्वर के सारे उद्देश्य होते हैं, ईश्वर जिन भावनाओं से जुड़ा होता है, जिन गुणों से जुड़ा होता है, जिन अच्छाइयों से जुड़ा होता है, वो सब संतों में होती हैं। संत के जीवन में समाज भी यही खोजता है कि संत में लोभ नहीं हो, कामना-हीनता हो। समाज संत में यह देखता है कि उसमें श्रेष्ठता है या नहीं, संयम है या नहीं। संत में दूसरों की भलाई करने की भावना है या नहीं। लोग संत में सभी गुण खोजते हैं। संतों को परखा जाता है। लोग यह नहीं देखते कि संत को गाड़ी चलाना आता है या नहीं, कंप्यूटर चलाना आता है या नहीं, संत को प्रबंधन चलाना आता है या नहीं। संत हैं, तो संतत्व होना चाहिए। जो गुण, जो भाव, जो उत्कर्ष, जो ग्रहणशीलता, जो विशिष्टता ईश्वर में पाई जाती है, उन सभी भावों को लोग लोकतंत्र में खोजते हैं और संतों में भी खोजते हैं। लोग जब किसी में इन गुणों को नहीं पाते हैं, तब उसे ढोंगी कहते हैं।
क्रमश:

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