Saturday, 4 November 2017

ऐसे संत कम हैं

रामबहादुर राय


ऐसे संत कम हैं, जो विद्वान भी हैं और अपनी बात ढंग से रख सकते हैं। इनकी जो पहली योग्यता दिखती है, वह है अपने पंथ के बारे में और उसके इतिहास के बारे में बचपन से ही आकर्षण। यह भी नहीं है कि मठ के आकर्षण ने उन्हें संत बनाया हो। कई बार ऐसा भी होता है, मठ का वैभव लूटने के लिए लोग संत बन जाते हैं। बनारस में जहां ये रहकर पढ़े-लिखे हैं, एक संस्कृत विद्यालय में। उस संस्कृत विद्यालय के सामने साहित्यकार मनु शर्मा रहते थे, उनके बहुत सारे उपन्यास हैं। तब मनु शर्मा की इन सब चीजों में रुचि नहीं थी, लेकिन मनु शर्मा कीधर्मपत्नी रामनरेशाचार्य जी को (तब वे रामनरेशाचार्य नहीं हुए थे) बहुत मानती थीं और अपने परिवार में यह चर्चा करती थीं कि इस लडक़े को यहां से निकालना चाहिए, बहुत प्रतिभा है, बहुत क्षमता है और संस्कृत पढक़र ये भविष्य में क्या करेंगे।.. लेकिन ये उनका अपना स्नेह था, जो बालक रामनरेशाचार्य जी पर बरसता था। इससे यह मालूम होता है कि साधना करके वे यहां तक पहुंचे हैं। यह स्वाध्याय और प्रार्थना का बल है, जो वे यहां तक पहुंचे हैं। यह बात उनमें दिखाई भी पड़ती है, जो व्यक्ति स्वाध्याय और साधना से ऊपर उठता जाता है, उसमें एक स्वाभिमान भी होता है, जो रामनरेशाचार्य जी में भरपूर दिखता है।
धारणा तो यह है कि वे दिग्विजय सिंह के करीब हैं और कुछ हद तक कांग्रेस हाईकमान के भी. मेरी धारणा यह है कि दिग्विजय सिंह चूंकि रामानंद जी के एक प्रिय शिष्य संत पीपा के वंशजों में से एक हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से रामनरेशाचार्य जी का उनसे भावनात्मक लगाव है। परन्तु हम यह नहीं कह सकते कि दिग्विजय सिंह जैसा चाहेंगे, वैसा रामनरेशाचार्य जी को चलाएंगे। संत को या एक मठाधीश को जिस तरह से स्वतंत्र रहना चाहिए, वो सारी चीजें उनमें दिखती हैं। इसीलिए जो इनके कामकाज हैं, सारा कुछ रामानंद संप्रदाय के लिए है। मेरा मानना है, यह अकेला संत संप्रदाय है हिन्दू समाज में, जिसमें बहुजन हैं। यानी समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व है और यही वजह थी कि जब समाज पर संकट था, तो इसमें वैरागी भी थे, इसमें संन्यासी भी थे। उस परंपरा को आज के संदर्भ में जीवित करने और उसमें नई जान डालने की कोशिश रामनरेशाचार्य जी कर रहे हैं और ये करते हुए उनके सामने साधनहीनता का संकट भी रहता है, किन्तु ज्यादा झुककर किसी से मदद लेने वाले वे नहीं हैं। एक सामाजिक सरोकार भी उनके मन में रहता है, जो इस संप्रदाय का स्वाभाविक पक्ष है।
मेरा थोड़ा-बहुत संपर्क है, कई ऐसे लोगों से जो मठों पर काबिज हैं। मैं देखता हूं कि ज्यादातर मठाधीश मठ की सत्ता और मठ की संपत्ति में ही डूबे रहते हैं, फंसे रहते हैं। इसके विपरीत रामनरेशाचार्य जी तटस्थ दिखते हैं और यह उनके व्यक्तित्व में भी प्रकट होता है। जहां वे चातुर्मास करते हैं, वहां हर वर्ग के लोग जुटते हैं, शायद ही किसी अन्य संत के चातुर्मास में इतने और इतनी विधा के लोग जुटते हैं। शायद ही किसी अन्य संत के चातुर्मास काल में आज के जो प्रासंगिक विषय हैं, उन पर चर्चा होती हो, लेकिन रामनरेशाचार्य जी ने एक सिलसिला शुरू किया है। यह सिलसिला बिल्कुल नया है। यह आगे बढ़ता है, तो बहुत उपयोगी होगा।
राजनीतिक रुझान भी उनमें मुझे लगता है, लेकिन सत्ता वगैरह के कारण नहीं, बल्कि जहां इनको ठीक लगता है, वहां राजनीतिक हस्तक्षेप का भी वे प्रयास करते हैं और समाज में उसका संदेश भी जाता है। जैसे २००९ के चुनाव में उन्होंने बनारस में मुरली मनोहर जोशी के पक्ष में कोई भाषण तो नहीं किया, बैठे-बैठे ही उन्होंने अपने लोगों को यह कहा कि यहां जो चुनाव हो रहा है, उसमें ये विद्वान आदमी हैं, ठीक आदमी हैं और माफिया के मुकाबले में इन्हें जिताना ठीक रहेगा। इसका असर भी हुआ।
श्रीमठ का महत्व
पंचगंगा घाट पर रामानंद संप्रदाय की मूल पीठ श्रीमठ स्थित है और पंचगंगा घाट बनारस में एक छोर पर है, जहां वरुणा गंगा में मिलती हैं, उससे थोड़ी ही दूर पर काशी स्टेशन के पास पहले पंचगंगा घाट है, वहीं से बनारस शुरू होता है। या तो गलियों से होकर आप वहां जा सकते हैं या सीधे नाव से जा सकते हैं। मेरा खयाल है कि काशी विश्वनाथ मंदिर को तोडऩे के बाद मुगल बादशाह औरंगजेब ने दूसरा निशाना साधा पंचगंगा घाट के श्रीमठ पर। हमले के बाद रामानंद जी के केवल दो पदचिन्ह वहां बचे रह गए। श्रीमठ जीर्ण-शीर्ण हो गया था, उसका रामनरेशाचार्य जी ने पुनरोद्धार किया है और जैसी व जितनी जगह है, वहां श्रीमठ को एक जीवित केंद्र के रूप में इन्होंने पुन: स्थापित किया है।
(रामबहादुर राय अपने समय में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र नेता रहे हैं। जेपी आंदोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी, उन्होंने जनसत्ता और नवभारत टाइम्स में महत्वपूर्ण पदों पर काम किया है, दिल्ली के जाने-माने पत्रकार हैं. प्रधानमंत्रियों तक उनकी पहुँच रही है, उनकी अनेक किताबें प्रकाशित हैं। उनके विचारों को राजनीति, पत्रकारिता व संत समाज में भी पूरी गंभीरता से लिया जाता है।)

महर्षि मनु भाग - 7

: दुनिया के पहले संविधान निर्माता :
दान कैसे होता है, तीर्थ यात्रा कैसे होती है, माता-पिता की सेवा कैसे होती है। ये कौन सिखलाएगा सबको? मुसलमानों को पता है क्या कि माता देवी स्वरूप क्यों है, कैसे हमें उसका ऋण उतारना होगा। बच्चों को कैसे अध्ययन करना है, यह कौन बताएगा, मोबाइल से वेदाध्ययन होगा क्या? कोई चरित्रवान कैसे बनेगा? चारों ही वर्णों को, कौन कत्र्तव्य बताएगा, ब्राह्मण का, क्षत्रिय, वैश्य का शूद्र का। जो लोग घृणित हो गए हैं, उन्हें क्या मिल रहा है। अमेरिका आज भी रंगभेद की दलदल में है। काले-गोरे की भावना नहीं जा रही है। यह जातिभेद से भी घृणित है। यहां जो सम्मान मिला जातियों का बंटवारा होने के बाद ही, यह कहीं नहीं मिला है। जब मनु द्वारा संवद्र्धित संसार को देखा जाएगा, तब मनुवाद अभिशाप के रूप में पक्षपात के रूप स्वीकार नहीं किया जाएगा। 
मनु ने कहा कि वेद धर्म के मूल हैं। जो हमारे जीवन को बढ़ाने वाला है, वह धर्म है। जैसे सूर्य और चंद्रमा को हम कभी नहीं छोड़ पाएंगे, उसी तरह संसार के सभी मनुष्यों को कल्पित पद्धतियों से जीवन जीने वाले जैसे-तैसे जीवन जीने वाले मनु स्मृति का जरूर अध्ययन करें। परिपक्व रूप में मनु स्मृति को अपने जीवन में उतारें, अपने चरित्र में उतारें, तो उनके विकास को कोई रोक नहीं पाएगा। 
मनु को श्रेय देना चाहिए। मनु स्मृति को श्रेय देना चाहिए। उन नेताओं को सीखना चाहिए, जो समाज को वोट के लिए बांट रहे हैं। राष्ट्रपति भवन में आम आदमी जाने लगे, तो वह तो चौराहा हो जाएगा। बड़े लोगों से मिलने की मर्यादा है। बड़ा काम करने की मर्यादा है।
मनु सृष्टि के आदर्श हैं, अतुलनीय और प्रेरक हैं। सभी तरह के श्रेष्ठ जीवन से सज्जित हैं। मनु की संतानों को ही मानव कहते हैं। मनु को गाली देने वाले, स्वयं दूषित हो गए, जो लोग मनुवाद को नुकसान पहुंचाकर आगे बढऩा चाहते हैं, वे स्वयं भी लांछित हो गए। उनकी पार्टी के लोग ही कहने लग गए कि ये केवल धन के लिए, स्वार्थ के लिए जी रहे हैं, उन्हें गरीबों से कोई लेना-देना नहीं है, दलितों से कोई लेना देना नहीं है, ये तो जमींदारों से भी आगे निकल गए हैं। मनुवाद की जिन विकृतियों को वे निशाना बना रहे थे, वही विकृतियां स्वयं उनमें आ गईं। 
मनु की प्रेरणा से ही भारत को विश्व गुरुत्व प्राप्त हुआ, लेकिन हम यह बात भूल गए। भारतीय संविधान जो धर्मनिरपेक्ष संविधान बन गया। भारत का संविधान बनाते हुए हमने अनेक देशों के संविधान का नकल किया, लेकिन मनु के संविधान को नहीं देखा। यह देश मनु का देश है, हमारे रक्त में उनका अंश है। तपस्वी का देश है, लेकिन हमने सृष्टि के पहले लिखित संविधान को उपेक्षित कर दिया। स्वतंत्र आधुनिक भारत के संविधान में मनु रचित संविधान को भी लेना चाहिए। यह सोचना था कि धर्म को कैसे जोड़ा जाए, केवल संविधान में यह लिखने से नहीं चलेगा कि सत्यमेव जयते। 
सोचना चाहिए था कि सत्य को कैसे जोड़ा जाए। केवल लिख देने से लोग सत्य नहीं बोलने लगेंगे। सत्य की व्याख्या मनु से पूछिए, सत्य का प्रयोग मनु से पूछिए, वर्णों, आश्रमों का वर्गीकरण मनु से पूछिए। हमारा दुर्भाग्य है कि समाज कल्याण के मनु मार्ग को छोड़ दिया गया। 
भगवान ने सोचा कि लोग कैसे रहेंगे, तो उन्होंने वेदों को बनाया। फिर स्मृतियों का जन्म हुआ। पहला ज्ञान अनुभव है और जब उसका स्मरण होता है, तो उसे स्मृति बोलते हैं। 
संपूर्ण संसार की मार्गदर्शक और सर्वोत्कृष्ट ऊंचाई, आनंद, सफलता देने वाली उसकी नियंत्रक प्रकाशक मनु स्मृति है। मनुवादी... मनुवादी कहकर अपने व्यक्तित्व को ही व्यक्ति लांछित न करे। संविधान में मनु की विशेषताओं को जोड़ा जाता। धर्मनिरपेक्षता ने हमें कुछ नहीं दिया। अनेक लोग हैं, जो इस देश के स्वरूप को नष्ट करने में लगे हुए हैं। यदि हम मनु स्मृति के अनुरूप देश को चलाते, तो भारत अभी भी पूरी तरह से विश्व शुरू होता। मनु के अनुरूप चलते तो हम लौकिक और परालौकिक विकास करते। निस्संदेह, हमें विकसित भारत के निर्माण के लिए मनु की शरण में जाना चाहिए। उनसे सीखना चाहिए।

जयसियाराम

महर्षि मनु भाग - 6

: दुनिया के पहले संविधान निर्माता :
ईश्वर सबके लिए हैं, उनमें कोई पक्षपात नहीं है। वेदांत में पढ़ाया जाता है कि भगवान में कोई पक्षपात नहीं है। वैसे ही मनु के लिए भी कहा जाएगा कि वे कहीं भी पक्षपात नहीं करते। मनु का ज्ञान परिपक्व ज्ञान है। दुर्भाग्य है कि लोग मनु स्मृति का उपहास करते हैं, लोगों को कहा जाता है कि मनुवादी हैं। 
मनु ने जैसे जीवन को खड़ा किया, कैसे परिवार, समाज को खड़ा किया, कैसे उत्तम जीवन जीया। और दूसरी ओर, उनकी आलोचना करने वालों का जीवन कैसा है? क्या उनमें मनु जैसे तपस्वी राजा-महर्षि पर कुछ बोलने का अधिकार है? आज घृणित जीवन जीने वाले भी मनु को कोसते हैं। 
वर्गीकरण के बिना आज भी संसार नहीं चलता। हर जगह श्रेणियां हैं, उसी के अनुरूप मकान मिलते हैं, वेतन मिलता है, भत्ते मिलते हैं, सुविधाएं मिलती हैं। आप सोचिए, चपरासी को भी अगर आईएएस के समान सुविधाएं मिलने लगेंगी, तो कौन आईएएस बनने के लिए जीवन लगाएगा, मेहनत करेगा। 
वर्गीकरण तो होगा ही। सुंदर-असुंदर, त्यागी भोगी का वर्गीकरण होगा ही। गरीब-अमीर का वर्गीकरण होगा ही। मनु ने जो व्यवस्था प्रदान की, वह कोई ऐसे ही नहीं दे दिया, पहले उन्होंने अपने बच्चों में और प्रजा में इसका प्रयोग किया और उसके बाद संसार को दिया। 
चरित्र की शिक्षा वही दे सकता है, जो स्वयं चरित्रवान है। ज्ञानी ही ज्ञान दे सकता है। सभी को मनु स्मृति का पाठ करना चाहिए। कैसे हम अपने जीवन को धर्म से जोड़ें, हमें क्या जपना है, क्या करना है, कोई भी ऐसी चीज नहीं है, जिसे मनु ने अंतिम स्वरूप में नहीं कहा। 
मनु से किसी ने पूछा कि हम धर्म को कहां खोजने जाएं।
मनु ने उत्तर दिया कि वेद ही धर्म का उत्स है और कहीं जाने का अर्थ नहीं है, आप वेदों की शरण में जाइए। क्रमश:

महर्षि मनु भाग - 5

: दुनिया के पहले संविधान निर्माता :
स्मृतियों को भी हमारी परंपरा में पूर्ण सम्मान-मान्यता पात्र है, स्मृतियां तभी प्रामाणिक होती हैं, जब वे वेद सम्मत होती हैं। वेद के अभिप्रायों का ही स्मृतियां स्मरण दिलाती हैं। आम आदमी तक वेद को पहुंचाने का यह प्रयास है। पहले यह वर्णन था कि वेद को सभी लोग नहीं पढ़ेंगे। तो कहा गया कि जो वेद नहीं पढ़ सकता, वह स्मृतियों को पढ़े, उपनिषद को पढ़े, पुराणों को पढ़े, इतिहास पढ़े। परिष्कार होता गया। बाद में समस्त समाज को यह अधिकार मिला कि वेद कोई भी पढ़ सकता है। लेकिन यह बताइए कि देश की गोपनीय फाइलों को सभी लोग पढ़ते हैं क्या? युद्ध के लिए जो बड़े हथियार बने हुए हैं, क्या वो आम आदमी को दिए जाते हैं, बनाने वालों को ही यह हथियार रखने का अधिकार नहीं है। हथियार निर्माता के परिवार वालों को ही ये हथियार नहीं मिल सकते। कहा गया था कि जिनका संस्कार, उद्देश्य, सक्षमता, जीवन पवित्र नहीं है, वे वेद कैसे पढ़ेंगेे, लेकिन जो वेद नहीं पढ़ सकते हैं, उनके लिए स्मृतियों, उपनिषदों का अवतरण हुआ।
मनु स्मृति सबसे पुरानी स्मृति है। कहा जाता है कि वेदों के बाद मनु हुए। वेदों की व्याख्या हुई, स्मृति आई। मनु जी ने उन्हें समाज, विश्व के लिए सरलीकृत किया। राजा होकर भी तपस्वी होना, परम फल प्राप्ति के लिए प्रयास करना और उसे प्राप्त करना पूरे विश्व के सामने आदर्श है। 
रामराज्य के संस्थापक को पुत्र के रूप में प्राप्त कर लेना। ईश्वर के द्वारा नियंत्रित और सभी प्रकार के उत्कर्ष को प्राप्त कर लिया। राम जी जिनके पुत्र हुए। ऐसे मनु जी के द्वारा जो ग्रंथ बना मनु स्मृति - यह दुनिया का पहला संविधान है। 
एक जगह मैंने पढ़ा था। मुस्लिम राष्ट्र के सुप्रीम कोर्ट में एक आदमकद की प्रतिमा लगी है महर्षि मनु की और लिखा है कि दुनिया के सर्वप्रथम संविधान के निर्माता महर्षि मनु। मनु ने हर तरह के जीवन को जीया, गृहस्थ आश्रम से वामप्रस्थ तक और अंत में भगवान को भी प्राप्त किया। राजा, पिता, पति, दादा के रूप में जीए, राम के पिता होने के रूप में जीवन। मनु स्मृति संपूर्ण संसार का शास्त्र है। मनु ने जो संविधान बनाया, जब किसी देश का पता नहीं था, तब वेदों के अभिप्राय को समझा और मनु स्मृति को प्रस्तुत किया। 
क्रमश:

महर्षि मनु, भाग - 4

: दुनिया के पहले संविधान निर्माता :
ठीक उसी तरह मनु ने कहा कि मुझे आपके जैसे पुत्र की प्राप्ति हो। शास्त्रों में लिखा है, ईश्वर दूसरा कोई नहीं होता, ईश्वर के समान ईश्वर ही होता है, उससे अधिक की तो कल्पना ही नहीं। भगवान की समकक्षता किसी में नहीं है। कोई भगवान से अधिक कैसे होगा? मनु ने मांग लिया। उसके लिए ही उन्होंने तप किया था, जिसके लिए खाना, पीना त्यागा, जीवन का कोई अन्य उद्देश्य नहीं, मनु के जीवन का, अस्थियों का ढांचा मनु हो गए थे, भगवान ने यह देखा। 
भगवान की आज्ञा का जो लोग पालन करते हैं, वे भगवान पर उनका उपकार है। भगवान को और कुछ नहीं चाहिए। जैसे उन्होंने कहा कि सत्य बोलो, तो सच ही बोलना चाहिए। भगवान ने कहा कि देखो धन संग्रह ज्यादा नहीं करो। अपरिग्र्रह करो। मनु जी के संपूर्ण जीवन को देखकर भगवान ने कहा, आपने तो अच्छा मांग लिया, कोई संसार या और कुछ नहीं मांगा, मेरे जैसा पुत्र मांग लिया। 
भगवान ने वरदान दिया। जाइए, मैं अयोध्या में आपके पुत्र के रूप में जन्म लूंगा। मनु ही राजा दशरथ हुए और शतरूपा ही कौसल्या हुईं। भगवान ने पुत्र के रूप में उनके यहां जन्म लिया। ध्यान रहे कि भगवान कोई ऐसे ही नहीं मिल जाएंगे, भगवान कोई ऐसे ही आपके यहां जन्म नहीं ले लेंगे, इसके लिए पूरे प्रयास करने पड़ेंगे। संयम-नियम, शास्त्र अनुकूल चलना होगा। 
मनु की शुरुआत शास्त्रीय मर्यादाओं, जीवन को दिव्य स्वरूप देने वाले संसाधनों से हुई। जीवन भर जो लोग एक ही काम करते रहते हैं, वे अदूरदर्शी हैं। सभी को यह तय करना चाहिए कि इतने दिनों तक ही हमें कमाना है, इतने दिनों तक ही हमें काम के लिए प्रयास करना है। भोग की भावना कोई ऐसे ही नहीं जाएगी। एक सीमा होने चाहिए, भोग की, धन की। हमें जो सर्वश्रेष्ठ जीवन मिला है, वह केवल भोग के लिए नहीं है। 
कैसी सृष्टि होनी चाहिए, कैसे चलनी चाहिए, इसके लिए मनु ने मनु स्मृति का निर्माण किया। यह उनका एक महान कार्य है। उपकार है विश्व पर। यह सनातन धर्म का धर्मशास्त्र है। हमें कैसे जीवन जीना है, इसे कैसे बिताना है, क्या इसका कोई नियंत्रक होना चाहिए? समाज, राष्ट्र विश्व को संचालित करने के लिए मनु स्मृति की रचना हुई। मानव के संवद्र्धन, परम फल प्राप्ति अभियान का शास्त्र है मनु स्मृति।
क्रमश:

महर्षि मनु, भाग - 3

: दुनिया के पहले संविधान निर्माता :
वर्षों वर्ष बीत गए। उनको अपने जीवन के परम सार्थकता की चिंता हुई, तो उन्होंने राजपाट अपने संतानों को संभलाकर तप करने निकल गए। आदमी हजारों हजारों साल तक भोग कर ले, सभी भोग के साधन उसके पास हों, कहीं किसी तरह का अभाव नहीं, कहीं किसी तरह का अवरोध नहीं, भोग से कभी शांति नहीं मिलती। यह बड़ी विडंबना है कि अनादिकाल से लोग इसी क्रम में जीवन जीते हैं, कैसे भी धन आए और कैसे भी धन से हम जीवन जीएं। हमारे भोग की शक्ति कम नहीं हो, हम दिन भर खाएं, हम दिन भर देखें, लेकिन आंखों में कष्ट न हो, भोग करें, हम दिन भर चलें, लेकिन पैरों में दिक्कत नहीं हो। कभी हममें किसी तरह का अवरोध नहीं आए। इन बातों को ध्यान में रखकर ही ज्यादातर लोग जीवन जी रहे हैं। लगे हैं कि भोग में कहीं से भी कोई न्यूनता नहीं आए। इन बातों को ध्यान में रखकर जो लोग जीवन जी रहे हैं, उनके सामने मनु जी ने अपने जीवन और अभिव्यक्ति के बल पर सर्वोच्च जीवन का उदाहरण प्रस्तुत किया। इसे भी परम विश्राम या मोक्ष कहते हैं। 
संसार में जो आप देख रहे हैं ईश्वर को ही देख रहे हैं। जल देख रहे हैं, वायु के रूप में अनुभव करते हैं, लेकिन ईश्वर के साक्षात रूप में हम नहीं देखते। मनु ने वन में घूम-घूमकर संयम नियम व्रत किया। भगवान की दया से उन्होंने मांगा कि जो परम भगवान हैं, जो सबका पालन करते हैं, जिनके कारण सूर्य और चंद्रमा हैं, जो समय से उगते-डूबते हैं। जिनके प्रभाव से वायु नियंत्रित है, जिनके कारण समुद्र मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, जिनसे वह नियंत्रित होता है। शास्त्रों ने जिन्हें कहा कि वह सर्वत्र व्यापक है, वही बनाते, पालन करते, संहार करते हैं, कर्म फल वही देते हैं। सबकी आत्मा हैं जो, आत्मा की भी आत्मा हैं जो। 
मनु को पूरा ज्ञान था, उनके मन में यह बात आई कि भगवान का दर्शन हो जाता। आंखों से दर्शन। संसार में जहां आप देख रहे हैं, ईश्वर को ही देख रहे हैं। जल, पृथ्वी, वायु, समुद्र के रूप में देखते हैं, किन्तु ईश्वर को साक्षात रूप में हम नहीं देख पाते हैं। ईश्वर के दूसरे रूपों को देखते हैं, साक्षात नहीं देखते। जो माया निर्मित है, उसे देखते हैं। मन में आना चाहिए कि हम भगवान को देखें, जैसे हमारे मन में आता है कि किसी कलाकार को देखें, विभिन्न क्षेत्रों के बड़े लोगों को देखें। 
उन्हें देखने का मन जो है, वह ईश्वर को देखने का ही मन है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है, यह जीवन की परम सार्थकता का साधन नहीं बन पाएगा। जब तक हम उसे ईश्वर के रूप में नहीं देखें। हमारी दृष्टि जब व्यापक होगी, संपूर्ण संयम-नियम से सज्जित होगी, तभी हम उन्हें देखने की योग्यता वाले हो सकेंगे। तुलसीदास जी ने लिखा है - सियाराम मय सब जग जानी 
मनु को इच्छा हुई कि भगवान का साक्षात दर्शन करें। आकाशवाणी हुई, भगवान ने कहा, हम आएंगे। बड़े लोग कहते हैं कि मांगो, भगवान जब प्रसन्न होते हैं, तो कहते हैं कि मांगो। श्रेष्ठतम जीवन वालों को ही यह अवसर मिलता है भगवान से सीधे कुछ मांगने का। 
मनु जी ने कहा कि हमने संसार को खूब नजदीक से देखा है, सब हमको मिला, लेकिन स्थायी शांति, परम शांति, परम उद्देश्य नहीं प्राप्त हुआ। सब भोग प्राप्त हुए, लेकिन आप प्राप्त नहीं हुए। भक्ति मार्ग में संत भगवान से अर्थ, काम, मोक्ष से नहीं मांगता, वो भगवान से कहता है कि हमें और कुछ नहीं चाहिए, केवल आपकी प्रसन्नता व प्रेम चाहिए, भक्ति चाहिए। भक्त लोग भगवान से केवल उनकी भक्ति को चाहते हैं। क्रमश:

महर्षि मनु भाग - 2

: दुनिया के पहले संविधान निर्माता :
मनु जी तो ब्रह्मा जी से ही प्रकट हुए संसार की संरचना के लिए। जप-तप से संतानोत्पत्ति का प्रयास किया। उनको दो पुत्र और तीन कन्याएं हुईं। दो पुत्र उत्तानपाद और प्रियव्रत। तीन पुत्रियां - आकूति, प्रसूति और देवहूति। धीरे-धीरे उनके विवाह का समय हुआ। ये सब संतानें समाज के लिए ईश्वर के लिए जीवन जीने वाली थीं। पुराणों में वर्णित है कि जो मनु जी के पुत्र प्रियव्रत जी बड़े भक्त हुए। प्रियव्रत जी ने पृथ्वी को सात भागों में विभक्त किया था। उत्तानपद भी बड़े भक्त हुए, महान धु्रव जी इन्हीं के पुत्र थे। आकूति का विवाह महर्षि ने रुचि प्रजापति से किया। देवहूति का विवाह महर्षि कर्दम से हुआ, जिससे सांख्यशास्त्र के प्रणेता महर्षि कपिल का अवतार हुआ। कपिल जी की बड़ी महिमा है, वे ज्ञानी के रूप में ही उत्पन्न हुए। अभ्यास से व्यक्ति ज्ञानी होता है, तब आदमी विद्वान बनता है, लेकिन जिसने पिछले जन्म में अभ्यास किया है, वह पिछले जन्मों के संस्कार के आधार पर, जो यहां नहीं भी पढ़ा है, तो उसमें ज्ञान स्वयं प्रकट हो जाते हैं। वे अच्छे रूप में अपने भावों को प्रकट करने लगता है। 
मनु जी की तीसरी पुत्री प्रसूति का प्रजापति दक्ष से विवाह हुआ। सृष्टि का क्रम प्रारंभ हुआ और उसका विस्तार होता गया। सभी उनके दामाद, पुत्र, पौत्र इत्यादि पूरे परिवार के लोग बड़े संस्कारी थे, क्योंकि शुरू से ही उनके जीवन को सही ढंग से सींचा गया था। इन संतानों की ऋषियों, शास्त्रों में बड़ी आस्था थी। शास्त्रों से प्रेरित जीवन में उनकी आस्था थी, उसी के अनुरूप जीवन शैली, समस्त व्यवहार और जीवन को परम फल देने वाले कार्य उन्होंने किए। सृष्टि का क्रम चला। बढ़ता गया। संसार बढ़ा। 
मनु का अपना जीवन भी सर्वश्रेष्ठ था। वे भगवान के साक्षात पुत्र थे और उन्होंने सृष्टि उत्पादन के क्रम को जो शुरू किया, तो उन्होंन अपने लोगों को भी इसी तरह से तैयार किया। जो भी उत्पन्न हो, वह विशुद्ध मानव हो, वह लौकिक जीवन भी शास्त्रों के तहत ही जीए। केवल कमाना और भोग करना ही जीवन नहीं है। ईश्वर की सेवा में समर्पित होना भी जीवन है। लौकिक और परालौकिक जीवन दोनों ही इससे संभव होते हैं। सत्यं शिवं सुन्दरं इससे संभव होता है। क्रमश:

महर्षि मनु : दुनिया के पहले संविधान निर्माता

(रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी के प्रवचन का अंश)
हमारी पौराणिक मान्यता है, सृष्टि को ब्रह्मा जी ने प्रकट किया। ब्रह्मा विष्णु महेश एक ही शक्ति के रूप हैं। कर्मों, गुणों के आधार पर उनका अलग अलग नाम पड़ जाता है। एक ही वायु जब हमारे नाकों से होकर जाती है, तो उसी वायु को प्राण वायु, अपान वायु इत्यादि कहते हैं। भगवान की दया से ब्रह्मा, विष्णु, महेश एक ही शक्ति के नाम हैं, सृष्टिकर्ता के रूप में ब्रह्मा पालन शक्ति के रूप में विष्णु और संहारकर्ता के रूप में महेश जी का नाम आता है।  
ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि की रचना की, तब ब्रह्मा जी ने अपने शरीर से दंपती को प्रकट किया, पति मनु और पत्नी शतरूपा। उनको अधिकृत किया। तब जल में निमग्न पृथ्वी थी। भगवान की सहायता से उसका उद्धार होना था। ब्रह्मा जी से उन्होंने कहा कि पृथ्वी तो निमग्न है, इस पर लोग कैसे उत्पन्न होंगे। कैसे इस पर रहेंगे उनका पालन कैसे होगा। तो ब्रह्मा जी ने भगवान से प्रार्थना की, आप इस पृथ्वी को जल से निकालें। तब भगवान ने अवतार लेकर पृथ्वी को जल से निकाला। परमपिता ब्रह्मा जी की कृपा से यह हुआ। अपने सनातन धर्म की यह मान्यता से सभी सहमत होंगे कि केवल वासना से उद्वेलित या प्रेरित होकर जो हम पुत्रोप्ति का क्रम अपनाते हैं, वह गलत है। संतति तो संयमी हो, श्रेष्ठ हो। श्रेष्ठ संतति का संकल्प होना चाहिए। केवल संतति होने से काम नहीं चलेगा। संतान ऐसी होनी चाहिए, जो गौरव बने। जो अपने ऋषियों की महिमा को, उनके ज्ञान-विज्ञान को विस्तार करने के लिए सोचे, पितरों की शांति के लिए भी प्रयास करे, समाज के लिए ईश्वर के लिए जीवन जीए। केवल अपने लिए ही कमाना और खाना यह कोई बड़ी बात नहीं है। 
संयम, नियम से मन को विशुद्ध करके संतान उत्पन्न करने की बात होनी चाहिए, तभी सही संतति उत्पन्न होगी। इसके लिए शास्त्रों में काल का भी वर्णन हो। जब संतति उत्पत्ति के लिए मन हो, तो कैसा आचार-विचार होना चाहिए, यह सब वर्णित है। तभी ऐसी संतति उत्पन्न होती है, जो पूरे संसार के लिए उपयोगी होगी। अब तो ऐसी संतानें भी होने लगी हैं, जो अपनों का भी ध्यान नहीं रखतीं। 
क्रमश: