Thursday, 27 December 2018

रावण कैसे भटक गया

भाग - 10
जो लोग अपना जीवन भी नहीं संभाल पा रहे, वो संसार कैसे संभालेंगे? बहुत बड़ी विडंबना है। व्यवहार ऐसा हो कि हमारा अपना जीवन भी अच्छा हो जाए और हमारा परिवार भी सुधरे। शास्त्र में भी कई लोग विद्वान हो जाते हैं, किन्तु उन्हें व्यवहार करने नहीं आता। संस्कृत जो लोग पढ़े हुए हैं, उनके लिए लोग मजाक करते हैं कि इनमें तोतारटंत लोग ज्यादा होते हैं, उनको व्यवहार करने नहीं आता। जहाज पर चलने नहीं आता। तमाम बातें जो संस्कृत वालों को नहीं आतीं, गिनाई जाती हैं। किन्तु मैं तो संस्कृत पढ़ा हूं, लेकिन मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि व्यावहारिक दृष्टि से संस्कृत के अलावा और कुछ पढ़े रहते, तो ज्यादा अच्छा होता। थोड़ी बहुत नहीं, संपूर्ण शिक्षा व्यवहार की अपने संस्कृत साहित्य में है। ऋषियों के साहित्य में है, धर्म साहित्य में है। कैसे परिवार में रहना, कैसे पड़ोस में रहना, कैसे देश में रहना, कैसे दुनिया में रहना, सब तरह की शिक्षाएं संस्कृत में हैं, इसीलिए पढ़ाई के साथ अपने व्यवहार को जोडक़र, जैसे आधार कार्ड को सबसे जोड़ा जा रहा है, ठीक उसी तरह मैं कह रहा हूं कि हम अपने व्यवहार को जो शास्त्र में है, जो शास्त्रों से निकला परिपूर्ण ज्ञान है, उस ज्ञान से हम अपने व्यवहार को जोड़ें। 
यह व्यवहार है कि हमें भोजन कैसे करना है। खड़े होकर नहीं करना है, बैठकर करना है। गीता में लिखा है कि शास्त्रों से पूछकर भोजन करना है। राजस है या तामस है? सात्विक भोजन करेंगे, तभी मन विशुद्ध होगा। भोजन बहुत साफ-सुथरा, सात्विक हो। साफ-सुथरा होगा भोजन, तभी उससे ऊर्जा उत्पन्न होगी। कंकड़ बीनिए, धोइए, सुखाइए, साफ भूमि हो और उसके बाद भोजन को अत्यंत शुद्धता के साथ बनाइए। नहा धोकर बनाइए, चप्पल नहीं पहनकर, कहीं बाल में, नाक में हाथ नहीं डालकर, किसी अन्य का स्पर्श नहीं करके, भोजन बनाइए। उस पर किसी की दृष्टि न पड़े। 

गीताकार ने कहा कि अपने लिए भोजन नहीं बनाना, अपने लिए बनाए तो पाप हो जाएगा। जो अपने लिए भोजन बनाते हैं, वो पाप के लिए ही बनाते हैं। क्या तुमने गेहूं बनाया या चावल बनाया है? इनको बनाने वाला मालिक कोई और है, किन्तु तुम अपना मान रहे हो। किसी दूसरे की संपत्ति को अपना मानने लगें, तो गलती होगी। आप कभी भोजन अपने लिए नहीं बनाएं, सदा ईश्वर के लिए बनाएं। जैसे नौकर मालिक को करता है, ईश्वर को अर्पित करिए भोजन। फिर देखिए, आपका तन-मन सही में पुष्ट होगा। भोजन से कपड़ा तक सारा व्यवहार, एक-एक चेष्टा, सबकुछ विशुद्ध होगा, तो हमारा जीवन सभी क्षेत्रों में परिपूर्ण होगा। भले ही हमारे पास धन नहीं हो, किन्तु हम सुदामा होंगे। सुदामा नहीं टोक रहे कि भगवान ने हमें कुछ नहीं दिया। 
लिखा है भागवत में कि सुदामा जी जब भगवान के यहां से लौटकर आए, तो भगवान ने साक्षात कुछ नहीं दिया। सम्मान तो बहुत किया, किन्तु कुछ दिया नहीं। हीरे-जवाहरात, कपड़े-लत्ते। दूसरा कोई होता, तो नाराज हो जाता कि कभी आपके यहां नहीं आऊंगा। आप क्या मित्र हो, मैं गरीब ब्राह्मण हूं, मुझे कुछ नहीं दिया। जैसे द्वारिकाधीश हैं कृष्ण, तो सुदामा भी द्वारिकाधीश हैं, भले महल नहीं है। 
शास्त्रों ने लिखा है कि ईश्वर को जानने वाला ईश्वर हो जाता है। 
बह्मविद्ब्रह्मेव भवति। 
सुदामा ब्रह्म को पहचानने वाले संत हैं, वे ब्रह्म के समान हो गए। उन्हें वही आनंद चित्त की अवस्था प्राप्त है, वही विश्वास की अवस्था, वही श्रद्धा की अवस्था प्राप्त है, जो भगवान श्री कृष्ण को प्राप्त है। तो सुदामा ने मांगा नहीं कुछ भी, दूसरा होता, तो हंगामा ही कर देता। खरी-खोटी सुनाता। अनशन पर बैठ जाता। सुदामा जी ने भी विचार किया कि भगवान ने कुछ दिया नहीं, अपनी भाभी के लिए, परिवार के लिए दिया नहीं। मेरे निर्वाह के लिए, समृद्धि के लिए कुछ नहीं दिया। 
यहां चिंतन की क्या अवस्था या विशेषता है, उसे समझिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि भगवान गरीब हो गए हैं। वैसे भगवान तो कभी गरीब नहीं हो सकते। संपूर्णता में जिसको सबकुछ प्राप्त है, उसे ही भगवान कहते हैं। भग माने संपूर्ण ऐश्वर्य। धर्म संपूर्ण, वैराग्य संपूर्ण, ज्ञान संपूर्ण, संपूर्ण जिसके पास हो ऐश्वर्य। भग वाले को भगवान कहते हैं। भगवान की गरीबी कैसे आएगी, वह तो समग्र धर्मशाली, धनशाली है। ऐसा नहीं कि कंजूस हो गए भगवान। फिर सुदामा ने सोचा कि ऐसा क्यों सोचें, भगवान तो परम उदार हैं, कल्याणकारी गुणों के समुद्र हैं। प्रेम, लगाव, शक्ति का समुद्र हैं। कभी भी भगवान पाप नहीं करते। 
जितने दुर्भाव हमारे मन में आते हैं, उसका मूल कारण पाप ही है। चाहे क्रोध हो, लोभ हो, द्वेष हो, सबके मूल में बैठा है पाप। भगवान कैसे अनुदार हो जाएंगे, वे तो परमोदार हैं। सुदामा जी ने समाधान निकाला, अद्भुत भगवान की कृपा है, भगवान ने हमारे परित्याग को, हमारा जो समष्टि के लिए समर्पित जीवन है, रोम-रोम से बाहर से भीतर से जो हमारा समुदाय की सेवा के लिए जीवन है, उससे कहीं हम अलग न हो जाएं। कहीं हम भोगी न हो जाएं, कहीं हम संतुष्ट न हो जाएं, कहीं हमारा भजन न छूट जाए, इसलिए भगवान ने नहीं दिया। कहीं हमारी विशिष्टता लुप्त न हो जाए, कहीं हम समाज के लिए जीना छोडक़र अपने लिए ही न जीने लगें, इसलिए भगवान ने हमें कोई भौतिक संसाधन नहीं दिया।  
यह विचारों की महान अवस्था, इससे बड़ा व्यवहार क्या होगा। सुदामा ने कितना बड़ा समाधान किया। अब तो लोग ऋण लेकर व्यक्तिगत संपत्ति बना लेते हैं, दिवालिया घोषित हो जाते हैं। बड़े शहरों में हजारों लोग पूर्ण संपत्तिवान होकर भी अपना दिवाला निकाल रहे हैं। कोई १० हजार तो कोई ५ हजार करोड़ रुपए का, ऐसे लोगों को कब और कैसे सुकून मिलेगा? कैसे शांति मिलेगी? कभी नहीं मिलेगी। 
यहां तो द्वारिकाधीश ने अद्भुत प्रेम की वर्षा करके, समर्पण की धारा बहा दी। सुदामा टस से मस नहीं हो रहे हैं, यह व्यवहार है, व्यवहार का चरम है। हमारी गरीबी हमारे कर्मों के कारण है, तो क्या करेगा मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री? हमारी गरीबी, बुढ़ापा, इसे कोई रोकेगा, हमारी कुरूपता भी एक गरीबी है, इसको कौन रोकेगा? हमारा निर्वंश होना भी गरीबी है, इसे कौन रोकेगा? कौन दुनिया में माता-पिता की बराबरी कर सकता है, किन्तु माता-पिता को भी एक दिन खोना ही है। होना ही है एक दिन अनाथ। हमें समझना होगा कि संसार क्या है? विकास क्या है? परिवार क्या है? इसलिए हम लोग कहते हैं कि हमारे भगवान ही सबकुछ हैं। क्रमश:

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