भाग - 6
सबसे बड़ा सिद्धांत है कि हम अपने को ईश्वरीय कार्य के लिए नौकर मानें। संसार के समस्त जीवों को यह बात याद कराई जानी चाहिए और बार-बार यह कहना चाहिए। आप केवल यह नहीं मानो कि दो पैसा कमाने के लिए आपका जीवन है, ऐसा नहीं मानो कि परिवार के लिए, पत्नी, बच्चे, मां के लिए जीवन है, ऐसा मत मानो कि हमारा जीवन केवल जयजयकार के लिए है, यश के लिए है, मकान के लिए है। हमारा जीवन ईश्वर के कार्य के लिए है।
तुम्हारे रोम-रोम, तुम्हारी सांस-सांस का उपयोग, तुम्हारी हर चेष्टा का उपयोग ईश्वर के लिए है। राम जी के लिए हनुमान जी ने पूरा जीवन दे दिया। इसीलिए हम सभी लोगों को अपने संपूर्ण जीवन भाग का प्रयोग राम सेवा के लिए करना है। थोड़ा करने से नहीं चलेगा, पूरा करना पड़ेगा। इससे हमारी गृहस्थी नहीं बिगड़ेगी। जैसे ९९ रुपए एक सौ रुपए के नोट में शामिल हैं, वैसे ही ईश्वर के प्रति समर्पण में सब शामिल है। ईश्वर सेवा में सारी सेवाएं समाहित हो जाती हैं। उसी में राष्ट्र सेवा, जाति सेवा, समाज की सेवा समाहित है।
जो लोग यह समझते हैं कि हमारे पास साधन नहीं है, तो हम भगवान की कैसे सेवा करेंगे, तो यह उनकी भूल है, साधन से ईश्वर का कोई मतलब नहीं है। साधन मिला है, मन मिला है, मन से करो सेवा। मन को व्यवस्थित करो। बड़ा आदमी जैसे आता है, तो लोग कालीन बिछाने की सेवा करते हैं, तुम भी ऐसा मानो कि ईश्वर के लिए हमारा मन है, उसी का यह मंदिर है, उसी का मंदिर है हमारा चित्त, हमारी वाणी, सब ईश्वर के लिए है।
जैसे कोई विशिष्ट अतिथि आता है आपके घर, तो आप पूरी शक्ति लगाकर सफाई अभियान चलाते हैं। ईश्वर आपके मन में आने वाले हैं, तो आपके मन को कितना साफ होना चाहिए। मन को साफ रखने, शरीर को साफ करने का प्रयास, यह भी साधन का एक बड़ा स्वरूप है। ऐसा ही हनुमान जी ने किया, ऐसा ही सभी आचार्यों ने किया। समर्पित होकर ही आप अपने जीवन में पूर्णता प्राप्त करेंगे।
प्लेटो कहते थे कि शासक को दार्शनिक होना चाहिए, देश की बागडोर दार्शनिकों के पास होना चाहिए। हालांकि यह चिंतन सफल नहीं हो पाया। सुकरात के शिष्य थे प्लेटो, जिनको हिंदी में अफलातून भी बोलते हैं। उन्होंने कहा था कि राष्ट्र का संचालन दार्शनिक करें, किन्तु संसार में इसका प्रयोग नहीं हो पाया। मेरा कहना है कि इस बात में सुधार किया जाए। देश की बागडोर जिनको दी जाए, उन्हें दर्शनशास्त्र जरूर पढ़ाया जाए। उन्हें बताया जाए कि राम जी ने कैसे संपूर्ण सृष्टि को राममय बना दिया। सृष्टि को कैसे निर्दोष और सशक्त स्वरूप प्रदान किया।
आज देश की बागडोर ऐसे लोगों के हाथों में कतई नहीं हो, जिन्होंने संपूर्ण शक्ति लगाकर किसी तरह से धन अर्जित करके अपने लिए बंगला बना लिया। बाद में घोटाले में फंस गए। वोट मिला, तो लोगों को अपना माना और वोट नहीं मिला, तो पांच साल के लिए लोगों को अंगूठा दिखा दिया। आज नेता अपनी जाति का अपने प्रांत का शोषण करने में लग जाते हैं। अपने लिए और अपने दो बच्चों, परिवार के लिए नेता गलत काम करता है। बागडोर संभालने वाले आज रामजी से नहीं सीखते।
समष्टि की भावना जब आती है, तब दुष्कर्म खत्म होने लगते हैं। संपूर्ण सृष्टि में जो आज अव्यवस्था मची है, वह समष्टि या समाज के बारे में न सोचने के कारण ही है। हम सोच नहीं पा रहे हैं, इसका एकमात्र कारण है कि हमारी शिक्षा हमारा सान्निध्य श्रेष्ठजनों के साथ नहीं है, शिक्षा हमारी नहीं है। शिक्षा का परिपक्व स्वरूप नहीं है। प्रयोगात्मक स्वरूप नहीं है। यदि स्वरूप परिपक्व हो जाए, तो सब पता लग जाए, तो आदमी गलत दिशा में कभी न जाए।
कुछ ही दिन पहले मैंने एक लेख पढ़ा था कि कैसे अमरीका में पैसा उत्पादन की नीति को तैयार किया गया। विचित्र स्थिति है, केवल पैसा और केवल भोग। भोग में सब आ जाता है, आंखों से, जीभ से, कानों से, जननेन्द्रिय के माध्यम से, तमाम जो सुख के साधन हैं, उन्हें प्राप्त करने के उद्देश्य से ही सबकुछ करें, तो पैसे का बड़ा योगदान है इस मामले में। ऐसे में अपने चरित्र से हम कैसे संसार को आलोकित करेंगे, कैसे विश्व गुरुत्व की प्राप्ति होगी। हम कैसे अपना जीवन चमकीला बना लेंगे, कैसे सबके लिए हमारा जीवन प्रेरक होगा। इसकी शिक्षा नियमित होनी चाहिए। एक दिन पढक़र कोई विद्वान नहीं हो जाता। कच्चा फल सुखदायक नहीं होता। फल का विकास आवश्यक है। ठीक इसी तरह से जीवन है, पढऩे की बहुत आवश्यकता है।
योग दर्शन के भाष्य में लिखा है कि मोक्ष शास्त्रों के अध्ययन को स्वाध्याय कहते हैं। अभी तो पता ही नहीं है कि मोक्ष किसका होगा, पता नहीं है कि मोक्ष है क्या? लोग समझ रहे हैं कि मोक्ष माने मरना, परलोक में जाना, किन्तु ऐसा नहीं है। मोक्ष माने आनंद की उस धारा को पाना जो कभी सूखती नहीं है। ज्ञान के उस स्वरूप को पाना जो कभी विकृत नहीं हो, किसी भी तरह का दूषण जिसमें नहीं हो, कोई कुरूपता नहीं हो, गलत भाव नहीं हो। यह जो अवस्था जीवन की है, यही मोक्ष है। जिसकी प्राप्ति के बाद आदमी कहने लगता है कि मुझे अब कुछ नहीं चाहिए। जीवन के उद्देश्य को छोटे दायरे से बड़े दायरे में ले जाना है। इस काम को शास्त्रों ने, ऋषियों ने सदियों से किया। क्रमश:
सबसे बड़ा सिद्धांत है कि हम अपने को ईश्वरीय कार्य के लिए नौकर मानें। संसार के समस्त जीवों को यह बात याद कराई जानी चाहिए और बार-बार यह कहना चाहिए। आप केवल यह नहीं मानो कि दो पैसा कमाने के लिए आपका जीवन है, ऐसा नहीं मानो कि परिवार के लिए, पत्नी, बच्चे, मां के लिए जीवन है, ऐसा मत मानो कि हमारा जीवन केवल जयजयकार के लिए है, यश के लिए है, मकान के लिए है। हमारा जीवन ईश्वर के कार्य के लिए है।
तुम्हारे रोम-रोम, तुम्हारी सांस-सांस का उपयोग, तुम्हारी हर चेष्टा का उपयोग ईश्वर के लिए है। राम जी के लिए हनुमान जी ने पूरा जीवन दे दिया। इसीलिए हम सभी लोगों को अपने संपूर्ण जीवन भाग का प्रयोग राम सेवा के लिए करना है। थोड़ा करने से नहीं चलेगा, पूरा करना पड़ेगा। इससे हमारी गृहस्थी नहीं बिगड़ेगी। जैसे ९९ रुपए एक सौ रुपए के नोट में शामिल हैं, वैसे ही ईश्वर के प्रति समर्पण में सब शामिल है। ईश्वर सेवा में सारी सेवाएं समाहित हो जाती हैं। उसी में राष्ट्र सेवा, जाति सेवा, समाज की सेवा समाहित है।
जो लोग यह समझते हैं कि हमारे पास साधन नहीं है, तो हम भगवान की कैसे सेवा करेंगे, तो यह उनकी भूल है, साधन से ईश्वर का कोई मतलब नहीं है। साधन मिला है, मन मिला है, मन से करो सेवा। मन को व्यवस्थित करो। बड़ा आदमी जैसे आता है, तो लोग कालीन बिछाने की सेवा करते हैं, तुम भी ऐसा मानो कि ईश्वर के लिए हमारा मन है, उसी का यह मंदिर है, उसी का मंदिर है हमारा चित्त, हमारी वाणी, सब ईश्वर के लिए है।
जैसे कोई विशिष्ट अतिथि आता है आपके घर, तो आप पूरी शक्ति लगाकर सफाई अभियान चलाते हैं। ईश्वर आपके मन में आने वाले हैं, तो आपके मन को कितना साफ होना चाहिए। मन को साफ रखने, शरीर को साफ करने का प्रयास, यह भी साधन का एक बड़ा स्वरूप है। ऐसा ही हनुमान जी ने किया, ऐसा ही सभी आचार्यों ने किया। समर्पित होकर ही आप अपने जीवन में पूर्णता प्राप्त करेंगे।
प्लेटो कहते थे कि शासक को दार्शनिक होना चाहिए, देश की बागडोर दार्शनिकों के पास होना चाहिए। हालांकि यह चिंतन सफल नहीं हो पाया। सुकरात के शिष्य थे प्लेटो, जिनको हिंदी में अफलातून भी बोलते हैं। उन्होंने कहा था कि राष्ट्र का संचालन दार्शनिक करें, किन्तु संसार में इसका प्रयोग नहीं हो पाया। मेरा कहना है कि इस बात में सुधार किया जाए। देश की बागडोर जिनको दी जाए, उन्हें दर्शनशास्त्र जरूर पढ़ाया जाए। उन्हें बताया जाए कि राम जी ने कैसे संपूर्ण सृष्टि को राममय बना दिया। सृष्टि को कैसे निर्दोष और सशक्त स्वरूप प्रदान किया।
आज देश की बागडोर ऐसे लोगों के हाथों में कतई नहीं हो, जिन्होंने संपूर्ण शक्ति लगाकर किसी तरह से धन अर्जित करके अपने लिए बंगला बना लिया। बाद में घोटाले में फंस गए। वोट मिला, तो लोगों को अपना माना और वोट नहीं मिला, तो पांच साल के लिए लोगों को अंगूठा दिखा दिया। आज नेता अपनी जाति का अपने प्रांत का शोषण करने में लग जाते हैं। अपने लिए और अपने दो बच्चों, परिवार के लिए नेता गलत काम करता है। बागडोर संभालने वाले आज रामजी से नहीं सीखते।
समष्टि की भावना जब आती है, तब दुष्कर्म खत्म होने लगते हैं। संपूर्ण सृष्टि में जो आज अव्यवस्था मची है, वह समष्टि या समाज के बारे में न सोचने के कारण ही है। हम सोच नहीं पा रहे हैं, इसका एकमात्र कारण है कि हमारी शिक्षा हमारा सान्निध्य श्रेष्ठजनों के साथ नहीं है, शिक्षा हमारी नहीं है। शिक्षा का परिपक्व स्वरूप नहीं है। प्रयोगात्मक स्वरूप नहीं है। यदि स्वरूप परिपक्व हो जाए, तो सब पता लग जाए, तो आदमी गलत दिशा में कभी न जाए।
कुछ ही दिन पहले मैंने एक लेख पढ़ा था कि कैसे अमरीका में पैसा उत्पादन की नीति को तैयार किया गया। विचित्र स्थिति है, केवल पैसा और केवल भोग। भोग में सब आ जाता है, आंखों से, जीभ से, कानों से, जननेन्द्रिय के माध्यम से, तमाम जो सुख के साधन हैं, उन्हें प्राप्त करने के उद्देश्य से ही सबकुछ करें, तो पैसे का बड़ा योगदान है इस मामले में। ऐसे में अपने चरित्र से हम कैसे संसार को आलोकित करेंगे, कैसे विश्व गुरुत्व की प्राप्ति होगी। हम कैसे अपना जीवन चमकीला बना लेंगे, कैसे सबके लिए हमारा जीवन प्रेरक होगा। इसकी शिक्षा नियमित होनी चाहिए। एक दिन पढक़र कोई विद्वान नहीं हो जाता। कच्चा फल सुखदायक नहीं होता। फल का विकास आवश्यक है। ठीक इसी तरह से जीवन है, पढऩे की बहुत आवश्यकता है।
योग दर्शन के भाष्य में लिखा है कि मोक्ष शास्त्रों के अध्ययन को स्वाध्याय कहते हैं। अभी तो पता ही नहीं है कि मोक्ष किसका होगा, पता नहीं है कि मोक्ष है क्या? लोग समझ रहे हैं कि मोक्ष माने मरना, परलोक में जाना, किन्तु ऐसा नहीं है। मोक्ष माने आनंद की उस धारा को पाना जो कभी सूखती नहीं है। ज्ञान के उस स्वरूप को पाना जो कभी विकृत नहीं हो, किसी भी तरह का दूषण जिसमें नहीं हो, कोई कुरूपता नहीं हो, गलत भाव नहीं हो। यह जो अवस्था जीवन की है, यही मोक्ष है। जिसकी प्राप्ति के बाद आदमी कहने लगता है कि मुझे अब कुछ नहीं चाहिए। जीवन के उद्देश्य को छोटे दायरे से बड़े दायरे में ले जाना है। इस काम को शास्त्रों ने, ऋषियों ने सदियों से किया। क्रमश:
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