भाग - 9
अपनी जो संस्कृति है, वह ज्ञान की परिपक्व अवस्था की बात करती है। अभी भी ऐसे संत हैं, जो सही जीवन, सही विधि से जुडक़र लोगों को प्रेरणा दे रहे हैं। हम सब लोगों को क्या करना चाहिए, समय निकालकर स्वाध्याय करें, जिनके प्रतिपादित मूल्य कभी नहीं बदलेंगे। जैसे सूर्य और चंद्रमा नहीं बदलते। जैसे इस अनादि सृष्टि का लाभ, उसका संपादन नहीं बदलता, वैसे ही हमारे शास्त्रों में अमर मूल्य का परिपालन कभी भी नहीं बदलता। जीवन को पूर्णता देने वाले मूल्यों से जुडक़र अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहिए।
आज लगने लगा है कि गलत काम किए बिना कोई बड़ा नहीं हो सकता, तो ये गलत बात है। सही मार्ग पर चलकर भी बड़ा आदमी हुआ जा सकता है।
मैं गया था संत ज्ञानेश्वर के गुरु जी निवृत्तिनाथ की समाधि पर। निवृत्तिनाथ जी उनके बड़े भाई भी थे। संत ज्ञानेश्वर ने १८ साल की आयु में जीवित समाधि ले ली। उन्होंने अपने जीवन में महत्वपूर्ण ग्रंथ रचे, गीता के ७०० पदों की ९००० से अधिक छंदों में व्याख्या की मराठी में। दुनिया का इतिहास नहीं है कि १८ साल की आयु में इस तरह का परिपूर्ण जीवन। जीवन में केवल लिखने-पढऩे का नहीं, सीखे हुए के आधार पर अपने रोम-रोम को परिपक्व बनाना, सर्वश्रेष्ठ अवस्था को प्राप्ति करना और उसके माध्यम से संसार से पूर्ण विरागी हो जाना। जो काम था, जल्दी किया और इस संसार से चलते बने। ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। निवृत्तिनाथ जी के यहां मैं गया त्रियंबकेश्वर, तो हैरान हो गया कि कैसे लोग खड़े होकर गा रहे हैं, प्रवचन हो रहा है, अद्भुत है। वहां जाकर लग नहीं रहा था कि संसार में ही है यह जगह।
हमारा संपूर्ण जीवन व्यवहार ही है। हमारा कदम-कदम है, हमारा कर्म हमारी चितवन, चलना, बैठना, खाना, पीना, सबकुछ व्यवहार है। व्यवहार के बिना तो जीवन मृत है। व्यवहार नहीं तो जीवन कैसा? यदि हमारा सबकुछ व्यवहार है, तो हम सोचें कि हमारे व्यवहार से कैसे हमें सही जीवन प्राप्त होगा। बोलना भी व्यवहार है, लेकिन केवल बोलना ही हो और कार्य व चरित्र में वह नहीं दिखे, तो क्या मतलब?
इसलिए हमारे संपूर्ण व्यवहार का मूल ज्ञान है और ज्ञान का मूल वेद हैं, पुराण, स्मृतियां हैं। केवल भारतीय संविधान से व्यवहार को पूर्णता प्राप्त नहीं होगी। संविधान नहीं बोलता कि माता को देवी बोलो, पिता को देव बोलो। संविधान यहां तक पहुंचता ही नहीं है। देवत्व क्या है, संविधान नहीं बतलाता। सत्य का क्या मतलब है। सत्य का जो स्वरूप है, पहले पायदान से अंतिम पायदान तक सत्य की आवश्यकता है। हमारा संविधान यह नहीं बोल रहा कि आप शुद्ध आहार लीजिए, नहीं तो आपका मन विकसित नहीं होगा। अशुद्ध आहार से आप कभी भी हरिश्चंद्र या सत्य बोलने वाले नहीं बनेंगे, अंदर-बाहर से सशक्त नहीं बनेंगे। खेत ही अच्छा नहीं है, तो बीज क्या करेगा?
तमाम तरह के जो संगठन हैं, उनके अपने जो विचार हैं, वो अधूरे हैं। जब वे शास्त्रों से गुरुओं के माध्यम से प्राप्त होंगे, तो ही विचार के सही व्यवहार को देंगे। विचार में सही व्यवहार होना चाहिए। बोलने-बैठने में सही व्यवहार। अभी तो लोगों को पता ही नहीं है कि बड़ों के सामने पैर पर पैर रखकर नहीं बैठते। एक बार जर्मनी की दो लड़कियां मोक्षपुरी पर पीएचडी करने आई थीं, तो मेरे यहां आईं, तो कहा गया, महाराज इनको मोक्षपुरी पर बतलाइए।
वो २७ -२८ साल की थीं, घुटनों के ऊपर जो पहनते हैं, वो कपड़ा पहने। दोनों ने मेरी ओर ही पैर कर लिया। मैंने सोचा, ये मोक्षपुरी पर पीएचडी करने आई हैं! फिर मैंने पूछा, जैसा पैर आपने मेरी ओर किया, वैसा कभी अपनी क्लास में किया क्या? उन्होंने कहा, नहीं किया।
अपने से बड़ों के यहां कभी किया क्या? कहीं ऑफिस में किया क्या? हम आपकी पीएचडी के एक निर्देशक होंगे, किन्तु आपने ये क्या किया, ये कौन-सी संस्कृति है? जो अपने से वरिष्ठ हैं, उन्हें सम्मान दें। ऐसे ही जीवन के सभी क्षेत्रों में अपने व्यवहार को शास्त्रों से जोडक़र शुद्ध करेंगे, मर्यादित करेंगे, प्रचार-प्रसार करेंगे, तो हमारा जीवन सही होगा। इसीलिए अपना देश विश्व गुरु कहलाता था। संसार को सिखलाने वाला कहलाता था। संसार के सभी लोगों को मनु ने चरित्र की शिक्षा दी। क्रमश:
अपनी जो संस्कृति है, वह ज्ञान की परिपक्व अवस्था की बात करती है। अभी भी ऐसे संत हैं, जो सही जीवन, सही विधि से जुडक़र लोगों को प्रेरणा दे रहे हैं। हम सब लोगों को क्या करना चाहिए, समय निकालकर स्वाध्याय करें, जिनके प्रतिपादित मूल्य कभी नहीं बदलेंगे। जैसे सूर्य और चंद्रमा नहीं बदलते। जैसे इस अनादि सृष्टि का लाभ, उसका संपादन नहीं बदलता, वैसे ही हमारे शास्त्रों में अमर मूल्य का परिपालन कभी भी नहीं बदलता। जीवन को पूर्णता देने वाले मूल्यों से जुडक़र अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहिए।
आज लगने लगा है कि गलत काम किए बिना कोई बड़ा नहीं हो सकता, तो ये गलत बात है। सही मार्ग पर चलकर भी बड़ा आदमी हुआ जा सकता है।
मैं गया था संत ज्ञानेश्वर के गुरु जी निवृत्तिनाथ की समाधि पर। निवृत्तिनाथ जी उनके बड़े भाई भी थे। संत ज्ञानेश्वर ने १८ साल की आयु में जीवित समाधि ले ली। उन्होंने अपने जीवन में महत्वपूर्ण ग्रंथ रचे, गीता के ७०० पदों की ९००० से अधिक छंदों में व्याख्या की मराठी में। दुनिया का इतिहास नहीं है कि १८ साल की आयु में इस तरह का परिपूर्ण जीवन। जीवन में केवल लिखने-पढऩे का नहीं, सीखे हुए के आधार पर अपने रोम-रोम को परिपक्व बनाना, सर्वश्रेष्ठ अवस्था को प्राप्ति करना और उसके माध्यम से संसार से पूर्ण विरागी हो जाना। जो काम था, जल्दी किया और इस संसार से चलते बने। ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। निवृत्तिनाथ जी के यहां मैं गया त्रियंबकेश्वर, तो हैरान हो गया कि कैसे लोग खड़े होकर गा रहे हैं, प्रवचन हो रहा है, अद्भुत है। वहां जाकर लग नहीं रहा था कि संसार में ही है यह जगह।
हमारा संपूर्ण जीवन व्यवहार ही है। हमारा कदम-कदम है, हमारा कर्म हमारी चितवन, चलना, बैठना, खाना, पीना, सबकुछ व्यवहार है। व्यवहार के बिना तो जीवन मृत है। व्यवहार नहीं तो जीवन कैसा? यदि हमारा सबकुछ व्यवहार है, तो हम सोचें कि हमारे व्यवहार से कैसे हमें सही जीवन प्राप्त होगा। बोलना भी व्यवहार है, लेकिन केवल बोलना ही हो और कार्य व चरित्र में वह नहीं दिखे, तो क्या मतलब?
इसलिए हमारे संपूर्ण व्यवहार का मूल ज्ञान है और ज्ञान का मूल वेद हैं, पुराण, स्मृतियां हैं। केवल भारतीय संविधान से व्यवहार को पूर्णता प्राप्त नहीं होगी। संविधान नहीं बोलता कि माता को देवी बोलो, पिता को देव बोलो। संविधान यहां तक पहुंचता ही नहीं है। देवत्व क्या है, संविधान नहीं बतलाता। सत्य का क्या मतलब है। सत्य का जो स्वरूप है, पहले पायदान से अंतिम पायदान तक सत्य की आवश्यकता है। हमारा संविधान यह नहीं बोल रहा कि आप शुद्ध आहार लीजिए, नहीं तो आपका मन विकसित नहीं होगा। अशुद्ध आहार से आप कभी भी हरिश्चंद्र या सत्य बोलने वाले नहीं बनेंगे, अंदर-बाहर से सशक्त नहीं बनेंगे। खेत ही अच्छा नहीं है, तो बीज क्या करेगा?
तमाम तरह के जो संगठन हैं, उनके अपने जो विचार हैं, वो अधूरे हैं। जब वे शास्त्रों से गुरुओं के माध्यम से प्राप्त होंगे, तो ही विचार के सही व्यवहार को देंगे। विचार में सही व्यवहार होना चाहिए। बोलने-बैठने में सही व्यवहार। अभी तो लोगों को पता ही नहीं है कि बड़ों के सामने पैर पर पैर रखकर नहीं बैठते। एक बार जर्मनी की दो लड़कियां मोक्षपुरी पर पीएचडी करने आई थीं, तो मेरे यहां आईं, तो कहा गया, महाराज इनको मोक्षपुरी पर बतलाइए।
वो २७ -२८ साल की थीं, घुटनों के ऊपर जो पहनते हैं, वो कपड़ा पहने। दोनों ने मेरी ओर ही पैर कर लिया। मैंने सोचा, ये मोक्षपुरी पर पीएचडी करने आई हैं! फिर मैंने पूछा, जैसा पैर आपने मेरी ओर किया, वैसा कभी अपनी क्लास में किया क्या? उन्होंने कहा, नहीं किया।
अपने से बड़ों के यहां कभी किया क्या? कहीं ऑफिस में किया क्या? हम आपकी पीएचडी के एक निर्देशक होंगे, किन्तु आपने ये क्या किया, ये कौन-सी संस्कृति है? जो अपने से वरिष्ठ हैं, उन्हें सम्मान दें। ऐसे ही जीवन के सभी क्षेत्रों में अपने व्यवहार को शास्त्रों से जोडक़र शुद्ध करेंगे, मर्यादित करेंगे, प्रचार-प्रसार करेंगे, तो हमारा जीवन सही होगा। इसीलिए अपना देश विश्व गुरु कहलाता था। संसार को सिखलाने वाला कहलाता था। संसार के सभी लोगों को मनु ने चरित्र की शिक्षा दी। क्रमश:
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