भाग - २
जिस परिवेश में रावण का जन्म हुआ, उस परिवेश में बड़ी भूल हुई, वहां उन्होंने ज्ञान को पहले ही चरण में रहने दिया। अपरोक्ष ज्ञान के लिए बड़े ज्ञान की जरूरत होती है। संयम, नियम के साथ ज्ञान को परिपूर्ण स्वरूप देना पड़ता है। रावण ने भाइयों के साथ मिलकर तप भी किया। पुराणों और इतिहासों में वर्णित है, तीनों भाइयों ने घनघोर तप किया, किन्तु तप परम तत्व की प्राप्ति के लिए नहीं था, केवल भोग की प्राप्ति के लिए था।
कोई आदमी धन कमाए और बंदूक खरीद ले। धन कमाया, तो दूसरी पत्नी ले आया, धन कमाया, तो केवल शरीर को शक्ति से जोड़ा, केवल शरीर सशक्त बनाने में लग गया, तो वह कभी बड़ा आदमी नहीं होगा। रावण बंधुओं ने जो तप किया, उसका उद्देश्य था कि खूब धन मिले, खूब भोग मिले।
यदि सैनिक केवल यही प्रयास करे कि हमें खूब बल मिले, हमें भोग के साधन मिलें, तो वह राष्ट्र का संरक्षक कर्मचारी कभी नहीं हो पाएगा। उसका उद्देश्य है कि वह समझे - मातृभूमि की रक्षा के लिए मेरा सबकुछ है। मेरी मां को कोई ऊंगली नहीं उठाए, कोई मातृभूमि को लांछित नहीं करे, ऐसा सोचेगा, तब वह बड़ा सैनिक बनेगा। प्राणों को हथेली पर रखकर राष्ट्र की सेवा करे।
जीवन में विकास के लिए तप अच्छा साधन है। धर्म के चार स्वरूपों का वर्णन है - सत्य, तप, यज्ञ, दान। ये चार स्तंभ हैं धर्म के। तप करना अच्छी बात है, यज्ञ करना बहुत अच्छी बात है, दान देना और सत्य बोलना भी जरूरी है। रावण आदि भी जो तप करते हैं, उनका लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति नहीं है, ब्रह्म या सत्य या संतत्व की प्राप्ति नहीं है, उनका उद्देश्य केवल धन, भोग और बल है। रावण का तो तप स्वर्ण की लंका के लिए है और वह चाहता है - संसार में जितनी सुंदर स्त्रियां हैं, सब हमारी पत्नियां हो जाएं, संसार के सभी उत्कृष्ट साधन मिल जाएं, पुष्पक विमान मिल जाए। सजावट की सारी वस्तुएं मिल जाएं, संसार में जो कहीं भी उत्कर्ष से जुड़ा है, तो वह हमारे अधीन हो जाए।
रावण ने तप किया, तो वही मिला रावण को, जो उसका उद्देश्य था। जिस भावना से आपने जो काम किया, आपको वही फल मिलता है। किसी ने विद्या अध्ययन के लिए तप किया, तो विद्या मिलेगी, किसी ने तप किया कि खूब मान मिले, तो मान मिलेगा, किसे ने तप किया कि खूब धन मिले, तो धन मिलेगा। जीवन की सार्थकता के लिए किया है, तो सार्थकता मिलेगी। कामना के अनुसार ही फल मिलता है। रावण ने मांगा, हमें लंका चाहिए, लंका मिल गई, तमाम पत्नियां मिल गईं, यह तप का तुच्छ स्वरूप है। ब्राह्मण वंश में जन्म लेकर आदमी केवल भोग और अर्थ के लिए जीवन जीने लगा।
कुंभकर्ण को छह महीने भोग के लिए और छह महीने सोने के लिए मिल गए। सोना भी भोग का स्वरूप है, सोया हुआ है, कोई उत्पादन नहीं, किसी तरह का विकास नहीं। इसी तरह से ब्राह्मण वंश में जन्म होने पर भी संयम-नियम की प्राप्ति नहीं। पिछले जन्म के पुण्य के कारण ब्राह्मण जन्म मिला, किन्तु उसे आगे बढ़ाने के लिए पुण्य नहीं था। जैसे घी, सूजी नहीं हो, तो हलवा नहीं बनेगा। जल नहीं हो, तो भी नहीं बनेगा। चूल्हा नहीं, तो नहीं बनेगा। धर्म की अधिकता के आधार पर ब्राह्मण स्वरूप की प्राप्ति होती है, और अधिक धर्म हो, तो ज्ञान को परिपक्व करना पड़ता है। ज्ञान अधिक हो, तो परम आनंद की प्राप्ति होती है। संपूर्ण अज्ञान दूर होकर आदमी अपने जीवन को प्रकाशित बनाकर जीवन जीए, मोक्ष की प्राप्ति करे, तो यह मनुष्य जीवन है। क्रमश:
जिस परिवेश में रावण का जन्म हुआ, उस परिवेश में बड़ी भूल हुई, वहां उन्होंने ज्ञान को पहले ही चरण में रहने दिया। अपरोक्ष ज्ञान के लिए बड़े ज्ञान की जरूरत होती है। संयम, नियम के साथ ज्ञान को परिपूर्ण स्वरूप देना पड़ता है। रावण ने भाइयों के साथ मिलकर तप भी किया। पुराणों और इतिहासों में वर्णित है, तीनों भाइयों ने घनघोर तप किया, किन्तु तप परम तत्व की प्राप्ति के लिए नहीं था, केवल भोग की प्राप्ति के लिए था।
कोई आदमी धन कमाए और बंदूक खरीद ले। धन कमाया, तो दूसरी पत्नी ले आया, धन कमाया, तो केवल शरीर को शक्ति से जोड़ा, केवल शरीर सशक्त बनाने में लग गया, तो वह कभी बड़ा आदमी नहीं होगा। रावण बंधुओं ने जो तप किया, उसका उद्देश्य था कि खूब धन मिले, खूब भोग मिले।
यदि सैनिक केवल यही प्रयास करे कि हमें खूब बल मिले, हमें भोग के साधन मिलें, तो वह राष्ट्र का संरक्षक कर्मचारी कभी नहीं हो पाएगा। उसका उद्देश्य है कि वह समझे - मातृभूमि की रक्षा के लिए मेरा सबकुछ है। मेरी मां को कोई ऊंगली नहीं उठाए, कोई मातृभूमि को लांछित नहीं करे, ऐसा सोचेगा, तब वह बड़ा सैनिक बनेगा। प्राणों को हथेली पर रखकर राष्ट्र की सेवा करे।
जीवन में विकास के लिए तप अच्छा साधन है। धर्म के चार स्वरूपों का वर्णन है - सत्य, तप, यज्ञ, दान। ये चार स्तंभ हैं धर्म के। तप करना अच्छी बात है, यज्ञ करना बहुत अच्छी बात है, दान देना और सत्य बोलना भी जरूरी है। रावण आदि भी जो तप करते हैं, उनका लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति नहीं है, ब्रह्म या सत्य या संतत्व की प्राप्ति नहीं है, उनका उद्देश्य केवल धन, भोग और बल है। रावण का तो तप स्वर्ण की लंका के लिए है और वह चाहता है - संसार में जितनी सुंदर स्त्रियां हैं, सब हमारी पत्नियां हो जाएं, संसार के सभी उत्कृष्ट साधन मिल जाएं, पुष्पक विमान मिल जाए। सजावट की सारी वस्तुएं मिल जाएं, संसार में जो कहीं भी उत्कर्ष से जुड़ा है, तो वह हमारे अधीन हो जाए।
रावण ने तप किया, तो वही मिला रावण को, जो उसका उद्देश्य था। जिस भावना से आपने जो काम किया, आपको वही फल मिलता है। किसी ने विद्या अध्ययन के लिए तप किया, तो विद्या मिलेगी, किसी ने तप किया कि खूब मान मिले, तो मान मिलेगा, किसे ने तप किया कि खूब धन मिले, तो धन मिलेगा। जीवन की सार्थकता के लिए किया है, तो सार्थकता मिलेगी। कामना के अनुसार ही फल मिलता है। रावण ने मांगा, हमें लंका चाहिए, लंका मिल गई, तमाम पत्नियां मिल गईं, यह तप का तुच्छ स्वरूप है। ब्राह्मण वंश में जन्म लेकर आदमी केवल भोग और अर्थ के लिए जीवन जीने लगा।
कुंभकर्ण को छह महीने भोग के लिए और छह महीने सोने के लिए मिल गए। सोना भी भोग का स्वरूप है, सोया हुआ है, कोई उत्पादन नहीं, किसी तरह का विकास नहीं। इसी तरह से ब्राह्मण वंश में जन्म होने पर भी संयम-नियम की प्राप्ति नहीं। पिछले जन्म के पुण्य के कारण ब्राह्मण जन्म मिला, किन्तु उसे आगे बढ़ाने के लिए पुण्य नहीं था। जैसे घी, सूजी नहीं हो, तो हलवा नहीं बनेगा। जल नहीं हो, तो भी नहीं बनेगा। चूल्हा नहीं, तो नहीं बनेगा। धर्म की अधिकता के आधार पर ब्राह्मण स्वरूप की प्राप्ति होती है, और अधिक धर्म हो, तो ज्ञान को परिपक्व करना पड़ता है। ज्ञान अधिक हो, तो परम आनंद की प्राप्ति होती है। संपूर्ण अज्ञान दूर होकर आदमी अपने जीवन को प्रकाशित बनाकर जीवन जीए, मोक्ष की प्राप्ति करे, तो यह मनुष्य जीवन है। क्रमश:
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