समापन भाग
अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के लिए जो शास्त्रीय क्रियाएं हैं, इनको मनमानी ढंग से जीने के कारण ही दुनिया में राक्षसी भाव बढ़ रहा है। सुख बहुत कम होता जा रहा है। रिश्ते टूट रहे हैं, सुंदरता कम हो रही है। संसार का जो आकर्षण था, वह कम हो रहा है। घुटन हो रही है। बड़ी विडंबना है, इसलिए प्रह्लाद जी के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए।
ज्ञान किसके लिए - यह कैसा ज्ञान कि बम बना दिया, लाखों लोगों को मार दिया। यह कौन-सा ज्ञान कि हर आदमी से हम ईष्र्या ही कर रहे हैं। यह कौन-सा ज्ञान कि हमारी सारी शक्ति अपने को सजाने में ही लग गई। क्या हम जीवन भर रजिस्टर ही लिखेंगे? हम जीवन भर लोहा पर लोहा ही ठोंकेंगे?
एक बार सूरत में किसी से पूछा कि एक आभूषण बनाने वाले को क्या देते हो। उत्तर मिला कि सौ रुपया, डेढ़ सौ रुपया एक दिन में देते हैं। वहां सौ से ज्यादा कारीगर थे। बतलाइए। ये सारा जीवन लग गया आभूषण बनाने में तो कुछ नहीं हुआ। यदि सही दिशा होती, तो ईश्वर का आभूषण बन जाता। वरदान हो जाता। इसीलिए हम अपने कर्म का इस रूप से उपयोग करें, भूलें नहीं। बंगला बना लेंगे, तो बच नहीं जाएंगे। कुछ भी कीजिएगा, मरने से नहीं बचिएगा। दुख से नहीं बचिएगा। छप्पन भोग भी खाइएगा, तो दुख और मरने से नहीं बचिएगा। बड़ा परिवार, बड़ी गाड़ी से जुडक़र नहीं, सुख सागर से जुडक़र हम आनंद पाएं। उसके लिए कर्म करें। जैसे प्रह्लाद जी ने किया। वे ईश्वर सेवा के मार्ग में कभी किसी से नहीं डरे।
भगवान की दया से मैं भी नहीं डरता था। अपने गुरुजी के सामने भी अवसर देखकर सही बात बोल देता था। मेरे गुरुदेव जमींदार परिवार के थे। जब उन्हें अवसर मिले, तो जमींदारी की कथा सुनाते रहते थे, मैं चरण दबाता रहता था। कुछ महीने जब हो गए। एक बार मैंने गुरुजी से बड़े संतों के नाम लेकर पूछता गया कि वो संत कैसे परिवार के थे। मैं संतों के नाम लेकर पूछता गया, गुरुजी बताते गए कि ये भी गरीब परिवार के थे।
फिर मैंने पूछा, आपके गुरुजी की क्या स्थिति थी?
मेरे गुरुदेव ने कहा, उनके पास भी ज्यादा संसाधन नहीं थे।
तब मैंने कहा, इसका मतलब गरीब का बच्चा भी संत हो सकता है। जरूरी नहीं कि बड़े जमींदार का ही हो। यदि ऐसा हो कि गरीब का नहीं हो सकता है, तो मैं तो जमींदार परिवार में नहीं जन्मा, तो मैं चला जाऊं क्या?
गुरुजी को लग गया कि अरे यह तो मुझे ही कह रहा है, तो उन्होंने कहा कि शिष्य ऐसी बात बोलता है क्या?
मैंने पूछा, यह कहां लिखा है कि गुरु रोज अपनी जमींदारी की बात करें।
मैंने कह दिया, कहिए तो मैं चलता हूं झोला उठाए। किसी और दरवाजे को खटखटाता हूं, जिस दरवाजे पर लिखा हो कि नहीं सामान्य परिवार का बच्चा भी संत हो सकता है, ऋषि हो सकता है, ज्ञानी हो सकता है, धन्य जीवन का हो सकता है। प्रह्लाद जी की तरह ही मैंने बिना भय के अपना विचार प्रस्तावित किया। गुरुजी के गांव में कई हजार एकड़ जमीन थी, जहां वो जन्मे थे। तो मैंने कह दिया। जब नहीं कहेगा आदमी, तो कैसे चलेगा।
प्रह्लाद जी लड़ गए कि आपको जो करना है, करो, किन्तु मैं अपना महापथ नहीं छोड़ूंगा। ध्यान रहे सभी श्रेष्ठ जो अवदान हैं, वो शास्त्रों से, ऋषियों से ही हमें प्राप्त हुए हैं। तभी हमारा जीवन धन्य हो जाएगा। जीवन की सारी कठिनाइयां दूर हो जाएंगी।
जय सियाराम
अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के लिए जो शास्त्रीय क्रियाएं हैं, इनको मनमानी ढंग से जीने के कारण ही दुनिया में राक्षसी भाव बढ़ रहा है। सुख बहुत कम होता जा रहा है। रिश्ते टूट रहे हैं, सुंदरता कम हो रही है। संसार का जो आकर्षण था, वह कम हो रहा है। घुटन हो रही है। बड़ी विडंबना है, इसलिए प्रह्लाद जी के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए।
ज्ञान किसके लिए - यह कैसा ज्ञान कि बम बना दिया, लाखों लोगों को मार दिया। यह कौन-सा ज्ञान कि हर आदमी से हम ईष्र्या ही कर रहे हैं। यह कौन-सा ज्ञान कि हमारी सारी शक्ति अपने को सजाने में ही लग गई। क्या हम जीवन भर रजिस्टर ही लिखेंगे? हम जीवन भर लोहा पर लोहा ही ठोंकेंगे?
एक बार सूरत में किसी से पूछा कि एक आभूषण बनाने वाले को क्या देते हो। उत्तर मिला कि सौ रुपया, डेढ़ सौ रुपया एक दिन में देते हैं। वहां सौ से ज्यादा कारीगर थे। बतलाइए। ये सारा जीवन लग गया आभूषण बनाने में तो कुछ नहीं हुआ। यदि सही दिशा होती, तो ईश्वर का आभूषण बन जाता। वरदान हो जाता। इसीलिए हम अपने कर्म का इस रूप से उपयोग करें, भूलें नहीं। बंगला बना लेंगे, तो बच नहीं जाएंगे। कुछ भी कीजिएगा, मरने से नहीं बचिएगा। दुख से नहीं बचिएगा। छप्पन भोग भी खाइएगा, तो दुख और मरने से नहीं बचिएगा। बड़ा परिवार, बड़ी गाड़ी से जुडक़र नहीं, सुख सागर से जुडक़र हम आनंद पाएं। उसके लिए कर्म करें। जैसे प्रह्लाद जी ने किया। वे ईश्वर सेवा के मार्ग में कभी किसी से नहीं डरे।
भगवान की दया से मैं भी नहीं डरता था। अपने गुरुजी के सामने भी अवसर देखकर सही बात बोल देता था। मेरे गुरुदेव जमींदार परिवार के थे। जब उन्हें अवसर मिले, तो जमींदारी की कथा सुनाते रहते थे, मैं चरण दबाता रहता था। कुछ महीने जब हो गए। एक बार मैंने गुरुजी से बड़े संतों के नाम लेकर पूछता गया कि वो संत कैसे परिवार के थे। मैं संतों के नाम लेकर पूछता गया, गुरुजी बताते गए कि ये भी गरीब परिवार के थे।
फिर मैंने पूछा, आपके गुरुजी की क्या स्थिति थी?
मेरे गुरुदेव ने कहा, उनके पास भी ज्यादा संसाधन नहीं थे।
तब मैंने कहा, इसका मतलब गरीब का बच्चा भी संत हो सकता है। जरूरी नहीं कि बड़े जमींदार का ही हो। यदि ऐसा हो कि गरीब का नहीं हो सकता है, तो मैं तो जमींदार परिवार में नहीं जन्मा, तो मैं चला जाऊं क्या?
गुरुजी को लग गया कि अरे यह तो मुझे ही कह रहा है, तो उन्होंने कहा कि शिष्य ऐसी बात बोलता है क्या?
मैंने पूछा, यह कहां लिखा है कि गुरु रोज अपनी जमींदारी की बात करें।
मैंने कह दिया, कहिए तो मैं चलता हूं झोला उठाए। किसी और दरवाजे को खटखटाता हूं, जिस दरवाजे पर लिखा हो कि नहीं सामान्य परिवार का बच्चा भी संत हो सकता है, ऋषि हो सकता है, ज्ञानी हो सकता है, धन्य जीवन का हो सकता है। प्रह्लाद जी की तरह ही मैंने बिना भय के अपना विचार प्रस्तावित किया। गुरुजी के गांव में कई हजार एकड़ जमीन थी, जहां वो जन्मे थे। तो मैंने कह दिया। जब नहीं कहेगा आदमी, तो कैसे चलेगा।
प्रह्लाद जी लड़ गए कि आपको जो करना है, करो, किन्तु मैं अपना महापथ नहीं छोड़ूंगा। ध्यान रहे सभी श्रेष्ठ जो अवदान हैं, वो शास्त्रों से, ऋषियों से ही हमें प्राप्त हुए हैं। तभी हमारा जीवन धन्य हो जाएगा। जीवन की सारी कठिनाइयां दूर हो जाएंगी।
जय सियाराम