Monday, 3 June 2019

प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा

समापन भाग
अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के लिए जो शास्त्रीय क्रियाएं हैं, इनको मनमानी ढंग से जीने के कारण ही दुनिया में राक्षसी भाव बढ़ रहा है। सुख बहुत कम होता जा रहा है। रिश्ते टूट रहे हैं, सुंदरता कम हो रही है। संसार का जो आकर्षण था, वह कम हो रहा है। घुटन हो रही है। बड़ी विडंबना है, इसलिए प्रह्लाद जी के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए। 
ज्ञान किसके लिए - यह कैसा ज्ञान कि बम बना दिया, लाखों लोगों को मार दिया। यह कौन-सा ज्ञान कि हर आदमी से हम ईष्र्या ही कर रहे हैं। यह कौन-सा ज्ञान कि हमारी सारी शक्ति अपने को सजाने में ही लग गई। क्या हम जीवन भर रजिस्टर ही लिखेंगे? हम जीवन भर लोहा पर लोहा ही ठोंकेंगे?  
एक बार सूरत में किसी से पूछा कि एक आभूषण बनाने वाले को क्या देते हो। उत्तर मिला कि सौ रुपया, डेढ़ सौ रुपया एक दिन में देते हैं। वहां सौ से ज्यादा कारीगर थे। बतलाइए। ये सारा जीवन लग गया आभूषण बनाने में तो कुछ नहीं हुआ। यदि सही दिशा होती, तो ईश्वर का आभूषण बन जाता। वरदान हो जाता। इसीलिए हम अपने कर्म का इस रूप से उपयोग करें, भूलें नहीं। बंगला बना लेंगे, तो बच नहीं जाएंगे। कुछ भी कीजिएगा, मरने से नहीं बचिएगा। दुख से नहीं बचिएगा। छप्पन भोग भी खाइएगा, तो दुख और मरने से नहीं बचिएगा। बड़ा परिवार, बड़ी गाड़ी से जुडक़र नहीं, सुख सागर से जुडक़र हम आनंद पाएं। उसके लिए कर्म करें। जैसे प्रह्लाद जी ने किया। वे ईश्वर सेवा के मार्ग में कभी किसी से नहीं डरे। 
भगवान की दया से मैं भी नहीं डरता था। अपने गुरुजी के सामने भी अवसर देखकर सही बात बोल देता था। मेरे गुरुदेव जमींदार परिवार के थे। जब उन्हें अवसर मिले, तो जमींदारी की कथा सुनाते रहते थे, मैं चरण दबाता रहता था। कुछ महीने जब हो गए। एक बार मैंने गुरुजी से बड़े संतों के नाम लेकर पूछता गया कि वो संत कैसे परिवार के थे। मैं संतों के नाम लेकर पूछता गया, गुरुजी बताते गए कि ये भी गरीब परिवार के थे। 
फिर मैंने पूछा, आपके गुरुजी की क्या स्थिति थी?
मेरे गुरुदेव ने कहा, उनके पास भी ज्यादा संसाधन नहीं थे।
तब मैंने कहा, इसका मतलब गरीब का बच्चा भी संत हो सकता है। जरूरी नहीं कि बड़े जमींदार का ही हो। यदि ऐसा हो कि गरीब का नहीं हो सकता है, तो मैं तो जमींदार परिवार में नहीं जन्मा, तो मैं चला जाऊं क्या? 
गुरुजी को लग गया कि अरे यह तो मुझे ही कह रहा है, तो उन्होंने कहा कि शिष्य ऐसी बात बोलता है क्या?
मैंने पूछा, यह कहां लिखा है कि गुरु रोज अपनी जमींदारी की बात करें। 
मैंने कह दिया, कहिए तो मैं चलता हूं झोला उठाए। किसी और दरवाजे को खटखटाता हूं, जिस दरवाजे पर लिखा हो कि नहीं सामान्य परिवार का बच्चा भी संत हो सकता है, ऋषि हो सकता है, ज्ञानी हो सकता है, धन्य जीवन का हो सकता है। प्रह्लाद जी की तरह ही मैंने बिना भय के अपना विचार प्रस्तावित किया। गुरुजी के गांव में कई हजार एकड़ जमीन थी, जहां वो जन्मे थे। तो मैंने कह दिया। जब नहीं कहेगा आदमी, तो कैसे चलेगा। 
प्रह्लाद जी लड़ गए कि आपको जो करना है, करो, किन्तु मैं अपना महापथ नहीं छोड़ूंगा। ध्यान रहे सभी श्रेष्ठ जो अवदान हैं, वो शास्त्रों से, ऋषियों से ही हमें प्राप्त हुए हैं। तभी हमारा जीवन धन्य हो जाएगा। जीवन की सारी कठिनाइयां दूर हो जाएंगी। 
जय सियाराम

प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा

भाग - ८
सभी लोगों को भगवान उज्ज्वल अनुपम प्रेरणा दे रहे हैं। कहीं कोई पिता है, यदि वह गलत बोलता है, तो वो नहीं है पिता। अगर गलत बोलता है, तो वह नहीं है पुत्र। पिता डकैती करने के लिए कहेगा, तो करेंगे क्या? गलत भावना का समर्थन भी नहीं करना चाहिए। भयभीत नहीं होना चाहिए। ईश्वर रक्षक हैं। 
मेरे जीवन में भी व्यवधान आए। मेरे पिता गुरुजी बड़े विद्वान थे। बड़े गुरु के शिष्य थे, लेकिन आश्रम की सेवा को चंदा लाना, कमरा बनाना, यही सबको बहुत महत्व देते थे। मांग-मांग कर लाना। व्यसनी नहीं थे, चरित्रवान थे, वंश बड़ा था, पढ़े भी थे, किन्तु वे हमें भी बोलते थे, आपको ऐसे ही करना है। उसका हमने थोड़ा भी पालन नहीं किया। मैं कहता हूं- भक्त हमें जो धन देते हैं, उसका हम पूर्ण सदुपयोग करते हैं राम भाव के प्रचार-प्रसार में। 
सभी लोगों को अपनी शक्ति का उपयोग प्रह्लाद जी की रीति से करना चाहिए। वो चंद्रमा हैं, जिसका सबको लाभ उठाना चाहिए। वे कभी मरने वाले नहीं हैं, उनका महापथ कभी मरने वाला नहीं है। यह पथ प्रह्लाद जी का ही नहीं है, यह पथ वेदों का है, स्मृतियों, पुराणों का है। परमार्थ का जीवन केवल कीर्तन करने के लिए नहीं है। केवल मंच पर कहे और फिर लग गए मांगने कि आप कितनी दक्षिणा देंगे। आज के संत जब किसी मंच पर कथा करने आते हैं, तो पहले ही अनुबंध कर लेते हैं। 
सुदामा जी जब गए भगवान के यहां, कई कथाकार कहते हैं कि सुदामा जी से बड़ा कोई दरिद्र ही नहीं हुआ। ऐसे कथाकारों से बड़ा दरिद्र कोई नहीं है। बोलते हैं कि लाइए चावल जैसे सुदामा जी लाए थे और मेरा बोरा भर दीजिए। दक्षिणा के लिए रूठ जाते हैं। 
एक बार एक जगह भागवत सप्ताह का उद्घाटन करने मैं गया था। वहां एक कथाकार ने कहा कि साढ़े तीन सौ कथाएं मैंने की, किन्तु इतना फिसड्डी पंडाल कहीं नहीं लगा, सूर्य की रोशनी तक नहीं रुक रही है। मंच विमान जैसा बनवाया था। मैंने कहा, वाह, जिस भगवान ने नंगे पांव गायों के पीछे चलकर अपने मित्रों के साथ सेवा का परम आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया, उसी भगवान की कथा कहने वाला कथाकार पंडाल में आती धूप पर ही प्रवचन करने लग गया। यह भी बतला दिया कि अब तक कितनी कथाएं कर चुका हूं। 
मैंने मैल छुड़ा दिया उद्घाटन भाषण में। यह कोई बात नहीं, मुझे २९ साल हो गए रामानंदाचार्य हुए, कभी भी किसी को नहीं कहा कि आपका मंच कैसा है, पंडाल कैसा है, दक्षिणा कैसी है, आपका भोजन कैसा है। 
प्रह्लाद जी का अनुकरण करना है। सारी यातनाओं को झेलकर प्रह्लाद जी वैसे ही हो गए जैसे चंद्रमा और सूर्य हैं, जैसे वायु हैं। जिनका कोई जोड़ नहीं है। एक से एक लोग हुए सनातन धर्म में जिन्होंने परम पुरुषार्थ की प्राप्ति के व्यवहार को बतलाया। केवल रोटी और भोग के लिए हमें व्यवहार नहीं करना है, हमें केवल धर्म के लिए व्यवहार नहीं करना है। 
सबसे उत्तम मोक्षीय व्यवहार ही होता है, इसी के लिए मानव जीवन है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो व्यवहार है, उसका सभी को लाभ लेना चाहिए। हमें सुधार करना होगा। एक ही बार में कोई चाहे कि मैं चौथे पायदान पर पहुंच जाऊं, तो उसके पैर ही टूटेंगे। ऊंचाई पर पहुंचने के लिए आवश्यक है कि पहला पायदान, दूसरा पायदान, तीसरा पायदान आवश्यक है। धीरे-धीरे बढ़ें। 
पहला पायदान - हम अर्थ को शुद्ध करें, अर्थीय व्यवहार सुधारें, अर्थ पाने के व्यवहार को शास्त्रीय बनाएं। उसके आधार पर धन अर्जित करें। 
दूसरा पायदान - हम भोग की प्राप्ति के अनुरूप व्यवहार को शुद्ध करें। 
तीसरा पायदान - हम अपने धर्म के संपादन की जो क्रियाएं हैं, जिन्हें हम व्यवहार कहेंगे, उनको भी शुद्ध करें। दान भी व्यवहार का बड़ा स्वरूप है। आज दान ही देने नहीं आ रहा है लोगों को। आयकर चुराकर दान दे रहे हैं। लूटपाट करके दान दे रहे हैं। दान के पात्र, स्थान, काल का ध्यान नहीं है। आज लोग दान दे रहे हैं कि इससे हमारा उपकार होगा, इससे हमारा धन लौटेगा। जैसे उद्योगपति लोग नेताओं को देते हैं कि नेता जी सत्ता में आएंगे, तो लाभ देंगे। यहां केवल लोगों में लेने की भावना है कि क्या लौटेगा, हमारा कैसे उपकार होगा। दान में बिल्कुल दिखावा नहीं, वर्णन नहीं करते हुए दान करना है। अभी जो राष्ट्राध्यक्ष लोग हैं, जो राजनीति से, समाजसेवा से जुड़े हैं लोग, जो नकली संत, सब यह बताने में जुटे हैं कि मैंने यह किया, मैंने वह किया। भक्त ऐसा नहीं करते। भक्त कहता है ठाकुर जी ने किया, हमने क्या किया। हममें कहां क्षमता है कि हम समुद्र पार कर जाएं, लंका जला दें। हनुमान जी ने कहा कि ये सब तो हमारे राम जी ने किया। सैनिक कभी नहीं बोलता कि मैं विजयी हो गया, वह देश प्रेम और लोगों को श्रेय देता है। 
क्रमश:

प्रह्लाद ने प्रभु से क्या मांगा

भाग - ७
क्या कहा प्रह्लाद जी ने सुनिए। कहा कि प्रभु, हमें आपसे कुछ नहीं चाहिए। भगवान ने कहा कि मांगों बहुत खुश हूं। प्रह्लाद जी ने कहा, मैंने वणिक भक्ति नहीं की है। बनिया वाली भक्ति नहीं की, सामान देना और उसके बदले में पैसा लेना। एक हाथ से लो, एक हाथ से दो। हमने आपकी सेवा की, समर्पित हुआ, भजन किया, स्मरण किया, जो भी नवधा भक्ति के स्वरूप हैं, किन्तु ये सब हमारे किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए नहीं हैं। इसके लिए हमें कोई ‘रिटर्निंग गिफ्ट’ नहीं चाहिए। यह सब हमने आपकी सेवा के लिए किया। इसका कोई सकाम उद्देश्य नहीं था। जो किया, निष्काम भाव से किया। हमारे पास जो भी आपका दिया था, वो आपको दिया, कुछ लेने के लिए नहीं दिया। 
भक्त अपने स्वामी के लिए सर्वस्व अर्पित करता है, उसकी खुशहाली के लिए उसके बदले में कभी नहीं कहता कि हमें भी आप कुछ दीजिए। यही भक्ति का सबसे बड़ा सिद्धांत है - तत्सुखे सुखम्
उसके सुख में सुखी रहना। अपने सुख की परवाह नहीं करना। ऐसी गोपियां हुईं, तुलसीदास जी हुए, अनेक संत हुए, जिन्होंने कभी नहीं कहा कि हमें कुछ चाहिए। हमने वणिक भक्ति नहीं की। 
तो प्रह्लाद जी के बहुत मना करने बावजूद नरसिंह भगवान ने जोर देकर कहा कि मांगो, कुछ मांगो। 
तब प्रह्लाद जी ने कहा, ऐसी कृपा करें भगवान कि मेरी इच्छा ही जल जाए। जिस बीज को हम दग्ध भाव कर देते हैं, मतलब सिंकाई हो गई, तो उसमें से अंकुर नहीं निकलते हैं। आशीर्वाद दीजिए कि मेरे मन में कोई इच्छा ही नहीं हो। सारी इच्छाएं जल जाएं। अब क्या इच्छा, जब आप मिल गए। जब मेरा मन आपका हो गया, हमारी इन्द्रियां आपकी हो गईं, अब क्या? इच्छा दुखदायक है, नहीं चाहिए कुछ भी। 
यहां तक कह दिया प्रह्लाद जी ने, कोई जब संपूर्ण इच्छाओं को छोड़ता है, तो देवता हो जाता है। प्रयास करना चाहिए कि कम से कम इच्छाएं हों। जैसे गृहिणी कम इच्छा करे, सास-ससुर की सेवा करे, परिवार की सेवा करे, कोई इच्छा न करे कि यहां ले चलो, वहां ले चलो, ये चाहिए, वो चाहिए। इच्छाएं सब खत्म होंगी, तो वह देवी बन जाएगी। 
प्रह्लाद जी ने कहा - ईश्वर को समर्पित होकर इच्छाओं से हीन होकर भगवान के सदृश हो जाता है जीव। आज भी प्रह्लाद जी का जोड़ नहीं है। अभावग्रस्त परिवेश वाले कोल, भील का कोई जोड़ नहीं मिल रहा है, गोपियां तो उनसे श्रेष्ठ स्थिति में हैं, आलवार संतों का कोई जोड़ नहीं मिल रहा है। अनेक महात्मा, ऋषि, संत इस देश में हुए, जिन्होंने बिना स्वार्थ संसार की सेवा की। आवश्यकता है प्रह्लाद जी से सीखने की, उनसे प्रेरणा लेने की। प्रह्लाद जी ने बहुत कहने के बाद भी कुछ भी नहीं मांगा। कह दिया, नहीं चाहिए। 
मैं पहले भी कह चुका हूं, जो भगवान की सभी दृष्टि से सेवा करेगा, जो ऐसी भक्ति करेगा, उसे लोक और परलोक, दोनों मिलेंगे। उसका कोई अभाव शेष नहीं रहेगा। दुनिया का कोई ऐसा सोपान नहीं, कोई ऐसा गंतव्य नहीं, इसलिए नहीं चाहने पर भी प्रह्लाद जी को भगवान ने राजा बना दिया। किसी को बड़ा फल देना हो, तो पात्र को ही देगा, अपनों को ही देगा, प्रिय को ही देगा। जो मूर्ख है, वह अक्षम बेटे को, पापी बेटे को भी दे देता है। यहां तो ईश्वर को दिया ईश्वर ने। 
ऐसे ही संसार के लोगों को धैर्य के साथ सभी कामों में लगे रहना चाहिए। मैंने भी जीवन में अभाव में ही शुरुआत की, किन्तु मुझे भगवान ने सब दिया, रोटी कपड़ा, मान, स्नेह, आत्मीयता, किन्तु मैं हमेशा ध्यान रखता हूं कि मेरा जो ईश्वरीय समर्पण है, वह कभी नीचे नहीं हो जाए। संपूर्ण वरीयता रहनी चाहिए। जो मिला हुआ प्रसाद है भक्ति, ज्ञान, उनका प्रयोग बना रहे। 
क्रमश: