Tuesday 15 May 2012

श्रीमठ : हमारी आध्यात्मिक राजधानी

आचार्य प्रवर स्वामी रामानन्दाचार्य जी ने महाप्रयाण के पहले अपने अन्तिम उद्बोधन में कहा था - भगवत्स्मरण ही जीवन का सार है। इसके द्वारा जीवन परम शान्ति को प्राप्त कर धन्य-धन्य हो जाता है। आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक इन तीनों ही दुखों की समूल निवृत्ति हो जाती है। परमानन्द-सिन्धु श्रीसीताराम जी के नित्य धाम साकेत लोक को प्राप्त कर उनकी समीपता, नित्य लीलाओं का दर्शन एवं सेवा के माध्यम से दिब्यानन्दसिन्धु में गोता लगाता है।’
स्वामी जी के इन भावों को परिपुष्ट करती है भगवान श्रीकृष्ण की ये वाणियां -
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
अन्तकाले च मामेव स्मरणमुक्त्वा कलेवरम्।।
य: प्रयाति स सद्भावं याति नास्त्यत्र संषय:।।
हम जिसका पुन:-पुन: स्मरण करते हैं, उनमें ही हमारा प्रेम बढ़ता है। जब हम संसार का स्मरण करते हैं, तब हमारा प्रेम संसार में बढ़ता है। इसी क्रम में परमेश्वर का स्मरण उसमें प्रेम प्रकर्ष को उत्पन्न करता है, जो जीवन को कृतार्थ करता है। सुख सिन्धु का स्मरण ही सुखदाय हो सकता है, संसार का नहीं, क्योंकि वह तो दुखमय है, सुख रहित है। तभी तो गीता की सुस्पष्ट घोषणा है - अनित्यमसुखं लोकम् - अनित्य संसार नित्य सुखप्रद कैसे हो सकता है?
सगुण तथा निर्गुण रामभक्ति के माध्यम-गोमुख रामानन्दाचार्य की तप:स्थली एवं आध्यात्मिक राजधानी श्रीमठ भगवत् स्मरण का ही सर्वश्रेष्ठ स्मारक केन्द्र था। इसका पर उद्देश्य जन-जन में भगवत् स्मरण की गंगा को प्रवाहित करना था, जिसमें सभी संकुचित भेदभावों को छोडक़र लोग गोता लगावें एवं जीवन को परमोज्ज्वल बनावें। इस क्रम को अपूर्व सफलता मिली, जिसे आज भी रामभक्ति के विशालतम क्षेत्र एवं रामचरित्र के प्रति परम जनाकर्षण से मापा जा सकता है। श्रीमठ से प्रवाहित श्रीराम स्मारिका गंगा ने समाज के उन दरवाजों का भी स्पर्श किया तथा उनसे निकलने वाले लोगों को समान रीति से कृतार्थ किया, जिनकी छाया भी लोगों को अपवित्र बनाती थी। परमसन्त रविदास, संत शिरोमणि कबीर, धन्ना जाट एवं सेनानाई आदि इसके परम दृष्टान्त हैं। समाज के सभी वर्गों ने इससे शीतलता प्राप्त किया। एक दूसरे के बीच खाई मिट गई। विभिन्न तटों के बीच में सेतु का निर्माण हुआ। समाज विखण्डन की भयावह ज्वाला से बच गया। प्रत्येक के हृदय में दूसरों के प्रति सहानुभूति एवं स्नेह का उदय हुआ। इन व्यावहारिक लाभों से विशिष्ट होते हुए लोगों ने परम शान्ति को भी प्राप्त किया।
अनेक साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि श्रीमठ संसार के तत्कालीन आध्यात्मिक केन्द्रों में सर्वश्रेष्ठ था। भारत देश ही नहीं, संसार के सभी भागों से साधक एवं जिज्ञासु श्रीमठ में आते थे तथा पूर्णता को प्राप्त कर लौटते थे। इतिहासकारों का मानना है कि बारह प्रधान शिष्यों के अतिरिक्त स्वामी जी के पांच सौ विरक्त शिष्य थे, जो श्रीमठ में ही रहते थे। झोपड़ी से लेकर महल पर्यन्त के लोगों का आध्यात्मिक पिपासा की तृप्ति के लिए यहां आना-जाना था। तत्कालीन श्रीमठ की विशालता, भव्यता एवं जनाकर्षण के चश्मे से वर्तमान श्रीमठ को पहचानना उतना ही कठिन है, जितनी कठिनता सुदामा को अपनी झोपड़ी पहचानने में हुई थी। इसको देख श्रीमठ से प्रवाहित रामभक्तिगंगा के घाटों का आकलन करना किसी के लिए सम्भव नहीं है। पूरे देश में फैले श्रीमठ के अनुयायी आश्रमों तथा सन्तों की नामावली का संग्रह भी वर्तमान श्रीमठ में नहीं रखा जा सकता। यह दशा श्रीमठ की तब से हुई, जब औरंगजेब ने श्रीमठ का विध्वंस कर दिया। संसार का सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक केन्द्र भयावह खण्डहर में बदल गया। राम-नाम संकीर्तन के बदले नमाज की धारा चल पड़ी। राम भक्तों की जमघट मौलवी-मुल्लों में बदल गई। दीर्घ काल तक रिक्तता एवं सूनापन की दशा बनी रही। लोगों ने धीरे-धीरे खण्डहर श्रीमठ की परिधि को घेरना शुरू किया। यह क्रम इतना प्रबल रहा कि श्रीमठ का सम्पूर्ण क्षेत्र घिर गया। आचार्य निष्ठा के क्षेत्र में कुम्भकर्ण तथा स्वकीर्ति मात्रैकशरण-साम्प्रदायिक-सिद्धान्तानभिज्ञ महन्तों, सन्तों एवं भक्तों की जब तक निद्रा खुली, तब तक उतना ही स्थान बच पाया था, जितना वर्तमान श्रीमठ का स्वरूप है। किसी विदेशी महिला अन्वेषक ने खोज किया है कि श्रीमठ की प्राचीन परिधि लगभग पांच किलोमीटर में थी।
संसार के सर्वश्रेष्ठ प्रकाशक को भी आज प्रकाश की आवश्यकता पड़ती है। यही तो श्रीराघव के संसार का वैचित्र्य है। वस्तुत: श्रीराघव ही शाश्वत, परम तथा निरपेक्ष प्रकाशक एवं स्मारक हैं तथा सर्वश्रेष्ठ स्मरणीय भी हैं। अपौरुषेय वेद की यही घोषणा है - तस्य भाषा सर्वमिदं विभाति। यही भाव हम सभी लोगों के संतोष का एकमात्र अवलम्ब है। श्रीमठ रामानन्द सम्प्रदाय का मूल एवं परम श्रद्धापरक पीठ है।
क्रमश:

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