Sunday 12 June 2016

महर्षि वशिष्ठ : ऐसा साधु न कोय

समापन भाग
कालीदास ने लिखा है - रघुवंशी राजाओं का प्राण योगियों की तरह छूट रहा है, तो इसके लिए तो अभ्यास करना पड़ेगा। संयम, नियम, तप से चलना पड़ेगा। गुरु वशिष्ठ आदर्श हैं संतों के, गुरुत्व के, संतत्व के। जितनी भी आध्यात्मिक ऊंचाइयां हैं, उसके अंतिम सोपान हैं वशिष्ठ जी। उन्होंने रघुवंश को ऊंचाई पर पहुंचाया और स्वयं पीछे रहकर संरक्षण का काम किया। निर्देशक मुख्य होता है, वह हर तरह के सुधार के लिए आग्रह करता है, प्रेरित करता है और ब्राह्मण, ऋषि, गुरु हमेशा पर्दे के पीछे रहता है, शासन के लिए आगे आने की परंपरा नहीं थी। सीधे शासन चलाना ब्राह्मणों का काम नहीं था।
कहने को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू भी ब्राह्मण थे, लेकिन ब्राह्मणत्व के लिए जो प्रयास होने चाहिए थे, जो गुण होने चाहिए थे, वो उनमें नहीं थे, लेकिन यदि ब्राह्मणत्व के जरूरी गुण उस वंश को प्राप्त हुए होते, तो यह वंश और भी ऊंचाई पर होता। उन्होंने शासक के रूप में ऊंचाइयों को प्राप्त नहीं किया जैसा रघुवंशी लोग प्राप्त करते थे। आध्यात्मिक ऊर्जा का लाभ देश को मिले, इसके लिए कोई प्रयास नहीं था।
जैसे अध्यापक बहुत अच्छा मिल जाए, लेकिन विद्यार्थी बहुत प्रयास नहीं करेंगे, पहलवान गुरु मिल जाए, शिष्य प्रयास न करे, तो सफल नहीं हो सकता। वैसे ही कितना बड़ा ही वैज्ञानिक अध्यापक हो जाए और विद्यार्थी प्रयास न करे, तो क्या लाभ होगा, इसलिए गुरु वशिष्ठ को मानक बनाकर चलना होगा। संपूर्ण संसार के लोग देश के लिए उनको प्रेरक स्तंभ बनाकर उनके अनुसार जीवन जीएं, आज भी जो पुराणों में संदर्भ हैं, विश्वास हैं, इस आधार पर हम अपने जीवन को जीएं, तो हमारा वंश ही रघुवंश हो जाएगा। हमारा जीवन ही राम जी के जैसा हो जाएगा। हमारा संपूर्ण प्रयास राम राज्य का संस्थापक प्रयास हो जाएगा। गुरु वशिष्ठ जी कहीं गए नहीं हैं, सप्त ऋषियों के रूप में मान्यता के आधार पर मौजूद हैं, बहुत खिन्न होकर भारत भूमि को देख रहे हैं, जहां रघुवंश आलोकित हो रहा था, वह भूमि कैसी हो गई। हमारे जो विचार हैं, कृतित्व हैं, जो आदर्श थे, जिसके आधार पर लोगों को प्रेरित होना था, जिससे लोग लोक, परलोक दोनों को बनाते, वो कहां गए। वशिष्ठ जी आज भी सप्तऋषि मंडल में विराजमान रहकर प्रेरित करने के लिए तत्पर हैं। कोई भी चाहे कि हमारे जीवन में रामराज्य आए, राम जी हमारे यहां प्रकट हों, रघु जी हमारे यहां प्रकट हों, हम असंख्य लोगों के लिए गंगा को लाने वाले भगीरथ जी की भूमिका में आ जाएं, तो वशिष्ठ जी से प्रेरणा लेनी पड़ेगी।
दोनों ही पक्षों में कमी आई है। संत लोग वशिष्ठ बनने के लिए प्रयासरत नहीं हैं, गाड़ी लिया, गद्दी पर बैठे, मौज से जीवन जी रहे हैं, उनमें यह इच्छा ही नहीं कि लोग उन्हें तपस्वी कहें, उन्हें तो बस पैसे की जरूरत है।
जैसे अभिनेता प्रदर्शन के लिए धन मांगते हैं, वैसे ही संत लोग भी मांगने लगे हैं। ऐसे लोग भी धर्म मंच पर विराजमान होने लगे हैं, जिनमें कोई तप-त्याग नहीं है। यह भी माना जाने लगा है कि जो जितना ज्यादा नंगा है, वह उतना ही बड़ा संत है, जिसके गले में जनेऊ है, वही ब्राह्मण है, जो बहुत बड़-बड़ करता है, वही बड़ा विद्वान है। जो चुनाव जीत जाए, वही नेता है, ये नई परिभाषाएं हैं।
पहले लोग केवल ज्ञान से बड़े नहीं होते थे, वे कर्म से बड़े होते थे, वे अपने लोगों, मानवता और संसार के लिए जीते थे। जैसे संतों ने केवल अपने लिए काम नहीं किया, सबके लिए काम किया। सभी के लिए जो काम करता है, वही तो ईश्वर है, जो अपने लिए काम करता है, वह मनुष्य है, जो अपने लिए भी नहीं करे, दूसरों के लिए भी नहीं करने दे, वह राक्षस है।
जो अपना संपूर्ण जीवन समाज के लिए दे, साधु का मतलब ही यही है कि वह अपनी संपूर्ण ऊर्जा दूसरों के लिए लगा दे। वह स्वयं भी आनंद के सागर में होता है और दूसरों को भी आनंद सागर में ले जाता है, दूसरों को भी धन्य जीवन के लिए, राष्ट्र जीवन के लिए तैयार करता है। वशिष्ठ जी आचार्य शिरोमणि हैं, जिनसे आचार्य भी सीख सकते हैं। मैं प्रार्थना करता हूं कि आप स्वयं के लोगों को शक्ति दें आशीर्वाद दें, प्रेरणा दें, शक्ति दें, हमें वशिष्ठ जैसे गुरु प्राप्त हों।
अभी तो साधु इसी बात में लगे हैं कि हमारा शिष्य हमें दक्षिणा दे। जजमान कहां डूब रहा है, उससे पुरोहित का कोई लेना-देना नहीं है। संत से सम्बंध को महत्व देना चाहिए, यह सम्बंध भोग के लिए नहीं है, लेकिन आज समाज में लोग संतों से भोग के लिए भी जुडऩे लगे हैं, इससे बुरी बात क्या हो सकती है? संत भी समाज से केवल पैसे के लिए सम्बंध बना रहे हैं, आज के ज्यादातर संतों, पुरोहितों को भी केवल भोग चाहिए। वैदिक सनातन धर्म को वशिष्ठ जी प्राप्त हुए, इसका गौरव है, पूरी दुनिया के इतिहास में वशिष्ठ जैसे गुरु किसी पंथ-संप्रदाय में नहीं हुए हैं। ऐसे पुरोहित गुरु न पहले हुए थे, न आज हैं और न कल होंगे।
हमारे देश को संपूर्ण रघुवंश जैसा होना चाहिए, संपूर्ण दुनिया रघुवंश जैसी हो जाए, रामराज्य की संस्थापना भारत में हो, पूरी दुनिया में हो। रामराज्य केवल भारत का राज्य नहीं था, पूरी दुनिया का राज्य था। रामराज्य में सभी राज्य समाहित थे, उन्हीं नियमों-कायदों से जुड़े हुए थे। आज कलयुग में भी अच्छे प्रयास जारी हैं, हम वशिष्ठ जी जैसा जीवन अपनाकर असंख्य लोगों का उद्धार करें। तभी हम अच्छे जीवन को जी सकेंगे।
जय श्रीराम

महर्षि वशिष्ठ : ऐसा साधु न कोय

भाग -६
आज जो संत का सम्मान होना चाहिए, जो सम्मान पुरोहित का होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है। समाज में इसमें बहुत अंतर आ गया है। लोग केवल औपचारिक रूप से संतों से जुड़ते हैं, गुरु से जुड़ते हैं, लाभ उठाने की प्रेरणा और उसके लिए समर्पित होना, सेवा भावी होना और उसके लिए निष्ठावान होना चाहिए। संत के लिए, गुरु के लिए, जैसे रघुवंशी लोग थे, आज वैसे लोग नहीं हो रहे हैं। रघुवंशियों के मन में अपने पुरोहित के प्रति कितना विश्वास था।
ताडक़ा, सुबाहू, मारीच इत्यादि राक्षस बहुत तंग कर रहे थे यज्ञ में, जब विश्वामित्र जी यज्ञ रक्षा के लिए राम, लक्ष्मण को लेने आए, तो दशरथ जी ने मना कर दिया, मेरे बच्चे छोटे हैं, राम के बिना एक क्षण नहीं रह सकता। ये क्या लड़ेंगे राक्षसों से, ये तो बहुत छोटे हैं। मैं नहीं दूंगा पुत्र।
गुरु वशिष्ठ जी ने तत्काल कहा, राम जी आपकी गोद में बैठने के लिए आए हैं क्या, पूरे संसार को बनाने वाले संहार करने वाले हैं, इनको आप क्या समझ रहे हैं। अरे, ये तो आए ही हैं इसी काम के लिए कि यज्ञ की रक्षा कैसे हो, वेदों, ब्राह्मणों, साधुओं, संतों, तपस्वियों की सेवा के लिए, समाज के लिए काम करने वालों के लिए, पूरे संसार में अच्छे भाव हों, इसके लिए राम जी आए हैं, केवल आपके आंगन में खेलने के लिए नहीं आए हैं, इसलिए इन्हें जाने दीजिए।
दशरथ जी ने अपनी गलती को समझा और राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेज दिया। वरना विश्वामित्र नाराज हो जाते, यज्ञ की रक्षा नहीं होती, शापित कर देते दशरथ जी को, राम जी अगर जाते नहीं हैं, तो चारों भाइयों का विवाह तब नहीं हुआ होता। जो राम जी की महानता है, उनका जो जीवन है, उसका प्रारंभ विश्वामित्र जी के साथ ही हुआ। वशिष्ठ जी केवल केवल ज्ञानी ही नहीं हैं, सफल अध्यापक हैं। कौन-सा ऐसा ज्ञान विज्ञान है, जो वशिष्ठ में नहीं है। जो पढ़ेगा, उन्हें जानेगा, उसका लौकिक और आध्यात्मिक जीवन आलोकित होगा, इसलिए गुरु वशिष्ठ को प्राप्त करने के लिए हमें रघुवंशियों जैसा बनना चाहिए और रघुवंशियों जैसा बनने के लिए हमें गुरु वशिष्ठ को प्राप्त करना चाहिए और गुरु वशिष्ठ जैसा बनने के लिए हमें गुरु वशिष्ठ से प्रेरणा लेनी चाहिए। हमें अपने जीवन को सभी अच्छी क्रियाओं से जोडऩा चाहिए। हमारा जीवन रामराज्य का जीवन होगा, हमारा जीवन रघुवंशियों का जीवन होगा। गुरु वशिष्ठ की प्रेरणा से उनके मार्ग पर चलकर ही रामराज्य आ सकता है।
आज गुरुओं में संयम, नियम, तप की बहुत कमी आ गई है, यह बड़ी चिंता का विषय है। ऐसा नहीं है कि बीज नष्ट हो गया हो, संख्या कम हो गई हो, हां, वोल्टेज कम हो गया है। उतनी शक्ति नहीं रही। एक बड़ी विडंबना है, लोकतंत्र में बहुत कम लोग हैं, जो गुरु वशिष्ठ से सीखकर राज्य का संचालन करते हैं।
एक बड़े विद्वान कह रहे थे कि एक नेता उनके यहां बहुत आया करते थे, जब मुख्यमंत्री हो गए, तब भी शुरू में एक महीना में एक बार मिलने लगे, एक साल बीत गए, तो दो महीने में एक बार मिलने लगे, बाद में छह महीने में एक बार मिलने लगे, पांचवा साल आया, तो एक ही बार मिले, लेकिन जब दूसरी बार मुख्यमंत्री बने, तो एक बार भी नहीं मिले। वे राजनीति शास्त्र के विद्वान हैं, वो सुना रहे थे मुझसे जबलपुर में। तो आज की जो राजशाही है, जो राजनेता हैं, बड़े शिक्षाविद् हैं, लौकिक शिक्षा और ऐसे ही विभिन्न क्षेत्रों के जो लोग हैं, उन्होंने चमत्कार का लाभ उठाया और बाद में मान लिया कि यह मेरा ही काम है।
ऐसे लोग अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन नहीं लाते हैं। आध्यात्मिक ऊर्जा या किसी ढंग के संत, पुरोहित से अपने को नहीं जोड़ते हैं। वे सोचते हैं कि जो मैं कर रहा हूं, मैं वहीं करूंगा, केवल हमें लाभ मिलना चाहिए। अभी क्षत्रियों में कम लोग हैं, जो संध्या वंदन करते होंगे, लेकिन वेदों में लिखा गया है कि ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों को जनेऊ पहनना चाहिए। वैश्य लोग सर्वथा दूर हो गए, वे संतों की सन्निधि में कम रहते हैं, बस कुछ देर के लिए मिले, आशीर्वाद लिया, चिंता है कि हमारा धन बढ़े, हम समृद्ध हों, लेकिन हमारा परलोक भी ठीक हो जाए, हमारी संतति भी शुद्ध हो, ऐसी कोई चिंता नहीं है। 
ऐसा आज के समाज में हो रहा है। संतों, ब्राह्मणों, विद्वानों से आशीर्वाद का संपर्क है, वास्तविक लाभ उठाना नहीं चाहते। उनके विचारों के अनुसार अपने जीवन क्रम को बनाना नहीं चाहते। केवल गुरु वशिष्ठ आशीर्वाद दे दें, काम तो आज के लोग अपनी मनमर्जी से ही करेंगे।
राम जी सबकुछ जानते हैं। तुलसीदास जी ने लिखा है...
गुरुगृँह गए पढऩ रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई।
वशिष्ठ जी वेद-पुराण सुनाते हैं, राम जी अत्यंत आदर के साथ सुनते हैं, जैसे कुछ जानते ही नहीं हों। उन्हें सब मालूम है। परमात्मा हैं, तो कौन-सा ज्ञान होगा, जो उनमें नहीं होगा, लेकिन इसके बाद भी वे अपने गुरु की पूरी बात सुनते हैं। समाज का भी बड़ा दूषण है, जो लाभ उठाना चाहिए पुरोहित से, ब्राह्मण से, संत से, गुरु से, वह नहीं उठाया जा रहा है। लोग अपने जीवन की गतिविधियों को नहीं सुधार रहे हैं, केवल गुरु महाराज का आशीर्वाद मिले, मैं खूब कमाऊं, खूब भोग करूं, थोड़े रुपए इनको भी दे दूं, बस इतना ही सम्बंध रह गया है। इसलिए समाज में जितना लाभ होना चाहिए लोगों को, उतना नहीं हो रहा है।
आज गायत्री जपने में बड़ी क्षमता है। कहा जाता है ब्राह्मणों ने जो ज्ञान अर्जित किया, वह गायत्री की महिमा से किया, व्रत, तप की महिमा से पूरे संसार में झंडा फहरा दिया। तो आज बड़ी दोष की अवस्था है, लोग ज्ञान से लाभ नहीं लेना चाहते हैं, केवल चमत्कार का लाभ चाहते हैं। रघुवंशी लोग केवल आशीर्वाद का चमत्कार नहीं चाहते थे।
क्रमश:

महर्षि वशिष्ठ : ऐसा साधु न कोय

भाग -५
जैसे सूर्य का प्रकाश बहुत काम करता है, लेकिन ब्रह्मर्षि नहीं बना सकता, वह संसार की सभी वस्तुओं को बनाता है, लेकिन क्या वह कोई ब्रह्म ज्ञानी पैदा करेगा, क्या कोई रघुवंश को पैदा करेगा? रघुवंशी सूर्यवंशी ही हैं, लेकिन रघुवंशियों को जो ज्ञान हुआ, वह वशिष्ठ जी के कारण ही हुआ।
आज सभी गुरुओं को गुरु वशिष्ठ से प्रेरणा लेनी चाहिए, वह नहीं हो रहा है। गुरु वशिष्ठ होने के लिए बड़े त्याग ज्ञान की जरूरत है। रोग रहित रहने की कामना, तमाम तरह की जीवन की कमियों से दूर रहने की कामना। राजा का पद तो तुच्छ है, जिस अवस्था में पुरोहित रहता है, अपने जजमान के यहां, वहां राजा नतमस्तक होता है, जिसके चरणों की धूल के लिए तरसता रहता है। उसके आशीर्वाद से ही वह राजा है, वैभवशाली है, उसका ज्ञान बढ़ रहा है, उसके वंश की वृद्धि हो रही है। आज के संतों को गुरु़ वशिष्ठ से प्रेरणा लेनी चाहिए, तभी उनके जजमान का वंश रघुवंश के समान होगा, वहां राम जी प्रगट होंगे और रामराज्य की स्थापना होगी।
राम जी के जंगल जाने के बाद भी रघुवंश चला, भरत के दौर में भी रघुवंश आगे बढ़ा। अध्यात्म रामायण में लिखा है भरत जी अनशन करने लगे कि राम जी साथ चलेंगे, तभी अनशन तोडूंगा, नहीं तो शरीर छोड़ दूंगा। 
गुरु वशिष्ठ ने कहा कि तुम क्या बालकपन कर रहे हो, एक बार आंख घुमाया, तो भरत जी आकर चरणों में बैठ गए। यदि भरत जी शरीर छोड़ देते, तो राम जी बहुत मुश्किल में पड़ जाते, जंगल से लौटना भी नहीं था, पिता जी ने जो वरदान दिया था, वह यदि नहीं पूरा होता, तो पाप लगता, वे जो स्वर्ग में गए थे नीचे उतर आते। राम जी बार-बार दोहराते हैं, पिता की कीर्ति अनुकरणीय है, अनुपम है, उसके लिए हम लोगों को प्रयास करना चाहिए, उन्होंने माता जी को वरदान दिया था, यदि वह वरदान पूरा नहीं करते हैं, तो निश्चित रूप से कीर्ति नष्ट होगी। हम लोग पुत्र होकर क्या करेंगे, हमारा पुत्रत्व तब नष्ट हो जाएगा, जब पिता स्वर्ग से नीचे आ जाएंगे। तो इन सभी क्रमों, स्थानों व्यवस्थाओं में गुरु वशिष्ठ की अहम भूमिका है और गुरु वशिष्ठ कहीं से भी लालची नहीं हैं, क्रोधी नहीं हैं, संपूर्ण ज्ञानी हैं। वे केवल ज्ञानी ही नहीं हैं, ज्ञान उनके रोम-रोम में उतरा हुआ है। संसार में तमाम व्यावहारिक कर्म के वे ज्ञाता हैं, नियामक हैं, प्रेरक हैं, आज के गुरुओं को निस्संदेह प्रेरणा लेनी चाहिए कि हम भी गुरु वशिष्ठ के जैसे बनें। हमारा ज्ञान ऐसा बढ़े कि हम ईश्वर के सदृश हो जाएं, हमारा नियम, संयम, प्रतिष्ठा, हमारी समाधि, हमारा द्वंद्व, काम करने का गुण ऊंचाई को प्राप्त हो, हम अपने कमाए हुए धन से अपना भी भला करें, अपने जजमान का भी भला करें, राज्य का भी भला करें। हमारा इतना वोल्टेज हो या इतनी ऊर्जा हो तप, ज्ञान, विज्ञान की कि उससे संपूर्ण संसार लाभान्वित हो। संपूर्ण संसार पे्ररित हो। इसके लिए हमें गुरु वशिष्ठ से प्रेरणा लेकर और गुरु वशिष्ठ के समान बनकर लोगों को लाभान्वित करना चाहिए। यह संतत्व की पराकाष्ठा है। यदि किसी को संत में निष्ठा नहीं हो रही है, तो उसे वशिष्ठ जी को ही संत में रूप में देखते हुए प्रेरणा लेनी चाहिए।
क्रमश:

महर्षि वशिष्ठ : ऐसा साधु न कोय

भाग -४
आजकल ऐसे संतों-ऋषियों का जो अभाव दिख रहा है, उसमें सबसे महत्वपूर्ण जो बात है कि आजकल का जो पुरोहित है, उसे न तो पूरा ज्ञान है और लोभ वृत्ति भी बहुत बढ़ गई है। व्यावहारिक ज्ञान के अभाव की स्थिति है। जैसे तैसे पुरोहित कर्म किया और चलता बना, इसकी चिंता नहीं है कि जजमान का भला हुआ या नहीं हुआ। न उसे यह ज्ञान है कि कैसे भला होगा, यदि ज्ञान है, तो अपने जजमान के लिए समर्पण नहीं है, कृतज्ञता नहीं है कि हम जजमान से सम्मान ले रहे हैं, धन ले रहे हैं, तो हमारे जजमान का भला होना चाहिए। घातक स्वरूप पैदा हो गया है, ब्राह्मणों में, साधुओं में, कइयों को तो केवल पैसे से मतलब है, जजमान का भला हो, उससे कोई मतलब नहीं है। जैसे अपने-अपने क्षेत्र में लोग अभ्यास करते हैं, अभ्यास के बल पर आगे निकलते हैं, वैसे ही यदि कोई संत बनना चाहता है, तो उसे संयम, नियम, कठोर परिश्रम की जरूरत है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए बहुत प्रयास करने की जरूरत पड़ती है। जिस जजमान से जुड़ा है, उसके प्रति पूरी समर्पित भावना होनी चाहिए। हमारे जजमान का जरूर भला हो, विपत्ति टले, लेकिन आज के पुरोहित ऐसा करते नहीं हैंं। ज्यादातर लोगों का भाव यही है कि हमें तो पैसा मिले, नहीं हुआ, तो नहीं हुआ, हम क्या करें। संकट में जजमान हैं, तो हैं, हमें क्या लेना देना? ऐसे गुरु वशिष्ठ नहीं थे, राज्य की जो समस्याएं थीं, उसका समाधान करते थे, ठीक उसी तरह से रघुवंशियों का भी उन्होंने समाधान किया। रघुवंश उस समय दुनिया का केन्द्रीभूत वंश था, कोई छोटा-मोटा राज्य नहीं था, आज जैसे संयुक्त राष्ट्र दुनिया का केन्द्र बना हुआ है, सारी दुनिया जब उससे जुड़ी हुई है, ठीक उसी तरह से रघुवंश से बाकी वंश जुड़े हुए थे, पूरी दुनिया के लिए रघुवंश मानक था, आदर्श था, पे्ररक संस्थान था। संपूर्ण संसार को उससे प्रेरणा मिलती थी, सभी राजा-महाराजा उससे प्रेरित होते थे। ऐसे वंश को गुरु वशिष्ठ जी ने ही तैयार किया था। उनमें क्षमता थी सभी तरह की। यदि क्षमता नहीं होती, तो विश्वामित्र ब्रह्मर्षित्व को प्राप्त नहीं होते।
विश्वामित्र जी एक बार वशिष्ठ जी की गऊ कामधेनु पुत्री नंदिनी का अपहरण करना चाहते थे, गऊ नहीं ले जा पाए, गऊ ने ही सैनिकों को पैदा कर दिया और विश्वामित्र जी की सेना हार गई, तब से विरोध चला और चलता रहा। ऋषि से पराजित होने के बाद विश्वामित्र जी को लगा कि सामान्य बल से तपोबल श्रेष्ठ है। परिणाम यह हुआ कि भगवान की दया से उन्होंने बहुत तप किया। भगवान शंकर से उन्हें धनुर्वेद की शिक्षा मिली, भगवान ने उन्हें दिव्यास्त्र प्रदान किए। दिव्यास्त्र लेकर विश्वामित्र जी ने फिर वशिष्ठ को मारना चाहा, लेकिन उनके आक्रमण को वशिष्ठ जी ने ब्रह्मदंड से पराजित कर दिया। विश्वामित्र जी चाहते थे कि किसी भी तरह से वशिष्ठ जी को नुकसान पहुंचाया जाए, उन्हें आत्मसमर्पित होने के लिए तैयार करा दिया जाए, उनके सौ पुत्रों को भी मार दिया, किन्तु वशिष्ठ जी ने अपने ऋषित्व को कहीं भी क्षतिग्रस्त नहीं होने दिया। विश्वामित्र ने फिर तपस्या शुरू की। बताया जाता है कि उन्होंने महाराज सुदास को शाप देकर बारह वर्ष के लिए राक्षस बना दिया, उस राक्षस ने ही वशिष्ठ जी के पुत्रों को नष्ट कर दिया था। वशिष्ठ जी में विशेषता थी कि वे कभी भी क्रोधित नहीं होते थे। उद्वेग नहीं आता था, हमेशा ही संयमित और प्रसन्न रहते थे। जो गुरु की सबसे ऊंची स्थिति है, वे संयमित रहकर सबकुछ करते थे। यही कारण था कि अंत में विश्वामित्र जी को झुकना पड़ा। विश्वामित्र जी बोलते थे, जब तक वशिष्ठ जी मुझे ब्रह्मर्षि नहीं कहेंगे, तब तक मैं मानूंगा नहीं कि मैं बह्मर्षि हो गया हूं। कहते हैं कि ब्रह्मा ने ही शर्त लगाई थी कि ब्रह्मर्षि तो वशिष्ठ जी ही बना सकते हैं। जिनके सौ बच्चों को नष्ट कर दिया, उन्हीं से ब्रह्मर्षि की उपाधि लेने की कोई कल्पना नहीं कर सकता। कितनी दयालुता होगी, कल्पना कीजिए, पुत्रों को मारने वाले को माफ कर दिया। उनमें क्रोध का कितना अभाव होगा, यह सोचा जा सकता है। लिखा है कि इतना होने पर भी विश्वामित्र जी इस इरादे से आए थे कि वशिष्ठ जी को नष्ट कर दूंगा, लेकिन जब एकांत में पत्नी के साथ वार्तालाप कर रहे वशिष्ठ जी के मुख से अपने लिए प्रशंसा सुनी, तो उनको सही ज्ञान हुआ, वशिष्ठ जी के चरणों में गिर पड़े।
क्रमश:

महर्षि वशिष्ठ : ऐसा साधु न कोय

भाग -३
जो सम्मान वशिष्ठ को राजा बने बिना प्राप्त था, जो ज्ञान प्राप्त था, जो लोगों का स्नेह प्राप्त था, जो लोगों की श्रद्धा प्राप्त थी, जो लोगों के श्रेष्ठ भाव प्राप्त थे, तो राजा का पद उनके सामने छोटा दिखता था।
ज्ञानी अपने ज्ञान के माध्यम से जो सम्मान प्राप्त करता है, वह राजा कभी नहीं प्राप्त कर सकता। हम लोगों ने पढ़ा था, अपने ही देश में राजा की पूजा होती है, दूसरे देशों में कोई राजा को पूजता नहीं है, लेकिन विद्वान तो सर्वत्र पूजा जाता है। वशिष्ठ जी का सम्मान तो सर्वोच्च था। आध्यात्मिक ऊंचाई को वे प्राप्त थे, वहां लौकिक ऐश्वर्य, भूमिका या राजा का सम्मान, तमाम तरह की उपलब्धियां, वहां वैसी ही कम महत्व की हो जाती हैं, जैसे सूर्य के उगने पर जितने प्रकाश के स्तंभ हैं शून्य हो जाते हैं, जितने तारे हैं धूमिल हो जाते हैं, उनका कोई मतलब नहीं रह जाता है, जैसे सूर्य उगते ही सर्वव्यापी हो जाता है। वैसे ही वशिष्ठ अपनी उपस्थिति से सबको प्रभावित करते हैं। जिस ज्ञान गरिमा को वे प्राप्त हैं, जिस संयम-नियम को वे प्राप्त हैं, वहां राजा बनने का कोई मतलब नहीं होता, वहां वे राजा की तुलना में असंख्य गुना ज्यादा सम्मान पाते हैं। लिखा है शास्त्रों में कि जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्रह्म के समान ही हो जाता है।
जैसे तुलसीदास जी ने भी कहा कि
जानत तुम्हही तुमही होई जाईं।
आपको जानने के बाद आपके जैसा हो जाता है। जैसे शंकराचार्य जी के अनुसार, ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म हो जाता है, लेकिन वैष्णव मत में ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म के समान हो जाता है। ब्रह्म नहीं होता। वशिष्ठ जी संत शिरोमणि हैं, गुरु शिरोमणि हैं, ज्ञान शिरोमणि हैं, ऐसी अवस्था में आध्यात्मिक संसार में जितने भी सोपान हो सकते हैं, उसके एवरेस्ट पर विद्यमान हैं गुरु वशिष्ठ जी। ईश्वर से बराबर का दर्जा वशिष्ठ जी के पास है। वशिष्ठ जी के मन में राजा बनने या सत्ता संभालने की इच्छा कभी नहीं होती।
राजा तो विश्वामित्र थे, लेकिन वह भी राजा का पद छोडक़र ऋषि बने, राजर्षि बने और फिर ब्रह्मर्षि बने। ऐसे तमाम राजाओं का इतिहास भारत में मिलता है, जिन्होंने राजा का पद छोडक़र फकीरों का जीवन प्राप्त किया, ज्ञानियों, संतों का जीवन प्राप्त किया। वशिष्ठ जी के पास इतनी क्षमता होने के बाद भी उन्होंने राजा बनना स्वीकार नहीं किया, वे राजाओं के राजा हैं। लौकिक दृष्टि से देखा जाए, तो संपूर्ण रघुवंश में जो सबसे बड़ा पद है, राजा भी अपने हर कार्य में सम्मति लेना चाहता है, आशीर्वाद लेना चाहता है, जिसने संपूर्ण जीवन को अपनी तपश्चर्या से पल्लवित किया है, राम जी ने कहा वशिष्ठ जी को कि आप जो कहेंगे, वही होगा, दूसरा कुछ होना ही नहीं है, आपने संपूर्ण वंश को जो ऊंचाई दी है, संपूर्ण वंश को जिस तरह से सिंचित किया है, उसका कोई ऋण त्राण नहीं सकता। आप नहीं होते, तो रघुवंश आज का रघुवंश नहीं होता। ऐसे कई वंश संसार में आए और गए, लेकिन एक भी वंश रघुवंश जैसा नहीं हुआ। जो भी विशिष्टता है इस वंश में, सबकुछ आपका दिया हुआ है, हम रोम रोम से आपके ऋणी हैं। मैं प्रफुल्लित हूं, आपके मन में मेरे भाई के लिए कितना लगाव है। वशिष्ठ जी संपूर्ण गुरु हैं। दिलीप को पुत्र देकर, गंगा को लाकर, दशरथ जी को चार पुत्र देकर, उन्होंने केवल राजा बनने के लिए ही प्रेरित नहीं किया, उनको ज्ञानी भी बनाया।
कालिदास ने लिखा है कि जो रघुवंशी थे, वे विद्या का अभ्यास करते थे छोटी आयु से ही। युवा अवस्था में विवाह करके और प्रजा के रंजन के लिए प्रजा की सेवा के लिए पुत्र की प्राप्ति करते थे, जहां वृद्धावस्था आई, वहां मुनि का जीवन जीते थे, जैसे योगी लोग अपने शरीर का परित्याग करते हैं, वैसे ही रघुवंशी लोग अपने प्राणों का त्याग करते थे। जिस वंश में राजा योगी के रूप में अपने जीवन का समापन करे, जिस वंश में राजा जहां ऋषियों के पुत्र पढ़ते थे, वहां पढ़े, ऋषियों जैसा जीवन जिए, यह कितना महान वंश है। ऐसे वंश का जिन्होंने पालन-पोषण किया, ऐसे गुरु वशिष्ठ अतुलनीय ऋषी हैं।
क्रमश: