Monday 16 May 2016

साधु, तुझको क्या हुआ ?

भाग - ५
आज हमें प्रयास करना है कि इस संसार में अच्छाई को बल मिले, सभी में ईवरीय जीवन वितरित हो, धैर्य का जीवन वितरित हो। संतों, ऋषियों को अपनी ऊर्जा का ध्यान रखना चाहिए, उन्हें पता होना चाहिए कि ऊर्जा कहां लगानी है। ताडक़ा, सुबाहू को तो विश्वामित्र जी भी मार सकते थे, लेकिन वे अपनी तप-जप शक्ति को नष्ट करना नहीं चाहते थे, इसलिए राम-लक्ष्मण जी को मांगकर ले गए और राक्षसों के आतंक को कम करवाया, जिससे यज्ञ संभव हुए।
तो संतों के श्रेष्ठ जीवन की बड़ी लंबी परंपरा है, इसमें अब शिथिलता आई है। युगों का परिवर्तन होता रहता है, जब कलयुग समाप्त हो जाएगा, तब पुन: सतयुग आएगा, सभी भावों में परिष्कार आ जाएगा, सही भावों में मजबूती आ जाएगी।
संतों के सम्बंध में अपने मनोबल और मनोभावों को यह सोचकर दूषित नहीं करना चाहिए कि अब संत नहीं रहे। ईश्वर की फैक्ट्री बंद होने वाली नहीं है। एक फैक्ट्री बंद होती है, तो तमाम फेक्ट्रियां खुल जाती हैं। जो ईश्वर की प्रक्रिया है, उसमें कभी भी संतत्व लुप्त नहीं होता है, क्योंकि संत तो ईश्वर के प्रतिनिधि हैं। संत में गुणवत्ता की कमी आ जाना संभव है, लेकिन संतत्व पूरी तरह से कभी लुप्त नहीं होता।
लोगों को आज आशंका होती है, संतों पर प्रश्न उठते हैं। फिर भी यदि विवेचना की जाए, तो अनेक ऐसे संत मिलेंगे, जिनका जीवन पवित्र है, जो पूरा जीवन समाज के लिए लगा रहे हैं, कहीं से भी जिनमें कोई बुराई नहीं है। अनेक संत उत्तम निर्माण में लगे हैं। लोगों को परखने में अवश्य परेशानी होती है, वे गलत लोगों को भी संत मान लेते हैं। रजनीश को भी लोगों ने संत मान लिया था, जबकि उनका शास्त्रों, वेदों से लेना-देना नहीं था, जिनका संयम-नियम से लेना-देना नहीं था, जहां सच्चा साधु जीवन नहीं था, जो आदमी यह कह रहा है कि संभोग से समाधि होती है, वह वैदिक सनातन धर्म का कैसे हो सकता है? हमारे चिंतन में यह बात कहीं नहीं दिखाई देती। परिणाम सामने है, आज उन्हें संत के रूप में कम ही लोग याद करते हैं।
ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि संपूर्ण संतत्व लांछित हो गया है। जैसे कभी मंदी आ जाती है, मजबूती गायब हो जाती है, तो कभी मंदी दूर हो जाती है, मजबूती आ जाती है। परिवर्तन चलता रहता है, ठीक इसी तरह से संतत्व समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। संत के रूप में हमें ईश्वर प्रतिनिधि रूप में प्राप्त हैं।
संत और ईश्वर में अभेद भावना का भी उल्लेख किया गया है। देवर्षि नारद जी स्वयं भी एक संत हैं, हर युग में उनकी उपस्थिति मानी जाती है, वे हमेशा ही रहते हैं। उन्होंने अपने गं्रथ में लिखा है कि संत में और भगवान में कोई भेद नहीं होता। भगवान की जो भावना होती है, जो उसके गुण होते हैं, जो उसकी क्रिया होती है, जिस तरह से परिवर्तन होते हैं, वे सभी संतों में भी होते हैं। रामानंद संप्रदाय में एक संत हुए नाभादास जी, उन्होंने संत चरित्र की रचना की, वे राजस्थान के सीकर में रैवासा पीठ में रहे। उन्होंने भी यही कहा कि भक्त और भगवान में भेद नहीं होता।
सारे वेदों में संत तत्व एक ही है। सारा संसार ईश्वर स्वरूप ही है। जेट चलाने वाले से लेकर रिक्शा चलाने वाले तक ईश्वर की व्याप्ति है, किन्तु सभी लोग एक ऊंचाई के नहीं होते हैं। सबकी अपनी-अपनी ऊंचाई होती है, ठीक उसी तरह से संत एक जैसे नहीं होते, लेकिन संतत्व का जो सही परिमार्जित स्वरूप है, वह ईश्वर की भावना का स्वरूप है। इन्हीं भावों को ईश्वरों ने शास्त्रों के रूप में प्रस्तुत किया। संतों ने ईश्वर के लिए समर्पित होकर शास्त्र ज्ञान को संसार के लिए समर्पित किया।
क्रमश:

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