Friday 8 December 2017

चंचल चित्त की चिंता - योग का उद्देश्य समझिए

(स्वामी रामनरेशाचार्य जी के प्रवचन से, जो उनकी नई प्रवचन पुस्तिका में शामिल है)
शास्त्रीय चिंतन परंपरा के जो अत्यंत उत्कृष्ट स्वरूप हैं, उनमें वेद, उपनिषद, स्मृतियां, पुराण, दर्शन इत्यादि समाहित हैं। मूलभूत वेदों के जो मानवोपयोगी अत्यंत श्रेष्ठ विचार हैं, जो मनुष्य जीवन को पूर्णता प्रदान करने वाले हैं, वेदों में ही उनका मूल है। उनको ऋषियों ने समझा, उनका साक्षात्कार किया और उनको लोगों को देने के लिए विभिन्न दर्शनों के रूप में निर्मित करके, उस परंपरा को, उस ज्ञान निधि को समाज को प्रदान किया, उसमें योग दर्शन भी एक है। वेदों को लोगों तक पहुंचाने के लिए यह ऋषियों का प्रयास था। जैसे योग अनादि हैं, सृष्टि अनादि है, उसी तरह से दर्शन शास्त्रों के चिंतन भी अनादि हैं। ऋषियों ने उन्हें जैसा देखा, समझा और वैसा ही लोगों को दिया। यह कोई आम लोक का चिंतन-विचार नहीं है, जो तत्वदर्शी नहीं होते। भारतीय परंपरा में योग दर्शन एक अत्यंत महत्वपूर्ण दर्शन है। यह कोई ऐसा ज्ञान नहीं था, जिसे यहां-वहां से लिया, यहां-वहां से देखकर लिखा, जो भी उल्टा-सीधा समझ में आया, उसे अनेक उद्देश्यों से लोगों तक पहुंचाया। इसी तरह आजकल अपरिपक्व ज्ञान के लोग ही ग्रंथ लिखते हैं, जो संपूर्ण स्वरूप को नहीं समझते। आज ऐसे अनेक लोग होने लगे हैं, जो ज्ञान की उच्चा अवस्था को प्राप्त नहीं करते, वे भी अध्यापन करते हैं, दूसरों को सिखाने की चेष्टा करते हैं। लेकिन ऋषियों ने ऐसा नहीं किया था। उन्होंने योग को पहले स्वयं के जीवन में उतारा और उसके बाद ही व्यापक लोक कल्याण के लिए पूरे संसार को प्रदान किया।
जीवन को पूर्णता देने के लिए जीवन को प्रकाशित करने के लिए जीवन को बाहर-भीतर से उज्ज्वल बनाने के लिए योग आवश्यक है। योग संसार के सभी लोगों के लिए ऑक्सीजन के समान, प्राण वायु के समान नितांत आवश्यक है। ऐसा नहीं है कि केवल भारत के ही लोगों के लिए योग का ज्ञान आवश्यक है या सनातन धर्म के लोगों के लिए ही आवश्यक है, अपितु यह ऐसा जीवनोपयोगी संसाधन है या ऐसी व्यवस्था है, ऐसी चिंतन प्रक्रिया है, जो ईश्वर के वरदान स्वरूप ऐसा आशीर्वाद है, ऐसा अवदान है कि जिसकी संसार में सभी लोगों को आवश्यकता है। योग से सभी को जुडऩा चाहिए और अपने जीवन को आगे बढ़ाना चाहिए।
योग दर्शन को महर्षि पतंजलि ने संसार के सामने लिखकर उद्घाटित किया था। महर्षि पतंजलि ने योग व्याख्यान की जब प्रतिज्ञा की कि मैं योग का व्याख्यान करूंगा। योग का एक अर्थ होता है जोडऩा। इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी शक्ति, अपने संसाधनों को जोडऩे से ही हमें जीवन में उत्कर्ष की प्राप्ति होती है। हम श्रेष्ठ फल से जुड़ें, श्रेष्ठ लोगों से जुड़ें, श्रेष्ठ समाज से जुड़ें, श्रेष्ठ कर्म और ज्ञान से जुड़ें, श्रेष्ठ साधनों से जुड़ें। यहां योग दर्शन में योग का अर्थ समाधि है। महर्षि पतंजलि ने व्याख्यान किया कि संसार में जितनी भी कठिनाइयां हैं, जितनी भी क्रियाएं हैं, उन सबका मूल चंचलता ही है। जितना संसार दिख रहा है, वहां बड़ी चंचलता है। चित्त जब जड़ पदार्थों से जुड़ता है, तो भटकता है। कष्टों का एक ही कारण है - हमारा चित्त चंचल है। जैसे पशु-पक्षी भटकते रहते हैं कहीं भी उन्हें संतोष नहीं होता, कहीं भी उन्हें सुकून नहीं मिलता। ठीक उसी तरह से हम भी भटकते हैं, तरह-तरह की चीजों से अपने चित्त को जोड़ते हैं, उसी अनुरूप चित्त का आकार बढ़ाते-बनाते हैं। चित्त भटकता ही रहता है। इसलिए महर्षि पतंजलि ने कहा कि चित्त के भटकाव का निरोध होना चाहिए। योग का यही अर्थ है। चित्त वृत्तियों का थमना जरूरी है। चित्त वृत्तियां निरुद्ध हो जाएंगी, तो हमारे जीवन की कठिनाइयां नष्ट हो जाएंगी और हमें पूर्ण जीवन प्राप्त होगा। यह सबके लिए जरूरी है, यह केवल हिन्दू के लिए नहीं है। संपूर्ण काल के लिए संपूर्ण संप्रदाय के लोगों के लिए है, यह सबके लिए परमोपयोगी है। क्रमश:

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